Monday, 19 September 2016

स्थिर मन और वृंदावन वास दृष्टान्त

वृन्दावन वास के लिये स्थिर मन की आवश्यकता

महापुरुषों के दिव्य भाव

श्रीगौड़ेश्वरसम्प्रदाय के विश्वविख्यात आचार्य श्रीरूप गोस्वामी महाशय श्रीवृन्दावन में एक निर्जन स्थान में वृक्ष की छाया में बैठे ग्रन्थ लिख रहे थे। गरमी के दिन थे। अतः उनके भतीजे और शिष्य महान विद्वान् युवक श्रीजीव गोस्वामी एक ओर बैठे श्रीगुरुदेव के पसीने से भरे बदन पर पंखा झल रहे थे। श्रीरूप गोस्वामी के आदर्श स्वभाव-सौन्दर्य और माधुर्य ने सभी का चित्त खींच लिया था। उनके दर्शनार्थ आने वाले लोगों का ताँता बँधा रहता था। एक बहुत बड़े विद्वान उनके दर्शनार्थ आये और श्रीरूपजी के द्वारा रचित ‘भक्तिसामृत’ ग्रन्थ के मगंलाचरण का श्लोक पढ़कर बोले, ‘इसमें कुछ भूल है, मैं उसका संशोधन कर दूँगा।’ इतना कहकर वे श्रीयमुना-स्नान को चले गये।

श्रीजीव को एक अपरिचित आगन्तुक के द्वारा गुरुदेव के श्लोक में भूल निकालने की बात सुनकर कुछ क्षोभ हो गया। उनसे यह बात सही नहीं गयी। वे भी उसी समय जल लाने के निमित्त से यमुनातट पर जा पहुँचे। वहाँ वे पण्डित जी थे ही। उनसे मगंला चरण के श्लोक की चर्चा छेड़ दी और पण्डितजी से उनके संदेह की सारी बातें भली भाँति पूछकर अपनी प्रगाढ़ विद्वता के द्वारा उनके समस्त संदेहों को दूर कर दिया। उन्हें मानना पड़ा कि श्लोक में भूल नहीं थी। इस शास्त्र के प्रसगं में अनेकों शास्त्रों पर विचार हुआ था और इसमें श्रीजीव गोस्वामी के एक भी वाक्य का खण्डन पण्डितजी नहीं कर सके। शास्त्रार्थ में श्रीजीव की विलक्षण प्रतिभा देखकर पण्डित जी बहुत प्रभावित हुए और श्रीमद्रूप गोस्वामी के पास आकर सरल और निर्मत्सर भाव से उन्होंने कहा कि ‘आपके पास जो युवक थे, मैं उल्लास के साथ यह जानने को आया हूँ कि वे कौन हैं?’ श्रीरूप गोस्वामी ने कहा कि ‘वह मेरा भतीजा है और शिष्य भी, अभी उस दिन देश से आया है।’

यह सुनकर उन्होंने सब वृतान्त बतलाया और श्रीजीव की विद्वत्ता की प्रशंसा करते हुए श्रीरूप गोस्वामी के द्वारा समादार प्राप्त करके वे लौट गये। इसी समय श्रीजीव यमुनाजी से जल लेकर आये और उन्होंने गुरुदेव के चरणकमलों में प्रणाम किया। श्रीरूप गोस्वामीजी ने अत्यन्त मृदृ वचनों में श्रीजीव से कहा- ‘भैया! भट्टजी कृपा करके मेरे समीप आये थे और उन्होंने मेरे हित के लिये ही ग्रन्थ के संशोधन की बात कही थी। यह छोटी-सी बात तुम सहन नहीं कर सके। इसलिये तुम तुरंत पूर्व देश को चले जाओ। मन स्थिर होने पर वृन्दावन लौट आना।’

व्रज-रस के सच्चे रसिक, व्रजभाव में पारगंत श्रीरूप के मुख कमल से बड़ी मृदु भाषा में ये शासन वाक्य निकले। इनमें मृदुता है, दैन्य है, शिष्य के प्रति उपदेश है और कृपा से पूर्ण शासन हैं ‘मन स्थिर होने पर वृन्दावन आना।’ अर्थात् वृन्दावन वास करने के वे ही अधिकारी हैं जिनका मन स्थिर है। अस्थिर मन वाले लोगों का वृन्दावन वास सम्भवतः अनर्थोत्पादक हो सकता है। और स्थिर मन का स्वरूप है- परम दैन्य, आत्यन्तिक सहिष्णुता, नित्य श्रीकृष्णगत चित्त होने के कारण अन्यान्य लौकिक व्यवहारों की ओर उपेक्षा। भट्टजी ने श्रीरूप गोस्वामी जी की भूल बतायी थी, इससे उन्हें क्षोभ होना तो दूर रहा, उन्हें लगा कि सचमुच मेरी कोई भूल होगी, भट्टजी उसे सुधार देंगे। श्रीजीव गोस्वामी ने शास्त्रार्थ में पण्डित जी को हरा दिया, इससे श्रीरूप गोस्वामी को सुख नहीं मिला। उन्हें संकोच हुआ और अपने प्रियतम शिष्य को शासन करना पड़ा। वे श्रीजीव गोस्वामी के पाण्डित्य को जानते थे, पर श्रीजीव में जरा भी पाण्डित्य का अभिमान न रह जाय, पूर्ण दैन्य आ जाय- वे यह चाहते और इसी से उन्होंने श्रीजीव को चले जाने की आज्ञा दी।

यह उनका महान् शिष्यवात्सल्य था और इसी रूप में बिना किसी क्षोभ के अत्यन्त अनुकूल भाव से श्रीजीव ने गुरुदेव की इस आज्ञा को शिरोधार्य किया। वे बिना एक शब्द कहे तुरंत पूर्व की ओर चल दिये तथा यमुना के नन्दघाट पर, जहाँ स्नान करते समय नन्दबाबा को वरुण देवता को दूत वरुणालय में ले गये थे, जाकर निर्जन वास करने लगे। वे कभी कुछ खा लेते, कभी उपवास करते और भजन में लगे रहते। उन्होंने एक बार श्रीगुरुमुख से सुना था कि ‘सुख-दुःख-दोनों में परमानन्द का आस्वादन हुआ करता है।’ यहाँ श्रीजीव को गुरुदेव के वियोग का दुःख था; परंतु इस दुःख में भी वे श्रीगुरुदेव के पादपहा में तन्मयता प्राप्त करके परमानन्द प्राप्त कर रहे थे। विरह में ही मिलन की पूर्णता हुआ करती है।
श्रीजीव इस प्रकार जब निर्जन वास कर रहे थे, तब एक समय अकस्मात् श्रीसनातन गोस्वामी (श्रीरूप के बड़े भाई) वहाँ जा पहुँचे। श्रीसनातन के प्रति व्रजवासियों का बड़ा प्रेम था। व्रजवासी भक्तों ने श्रीसनातन को बताया कि ‘आजकल यहाँ नन्दघाट पर एक अत्यन्त सुन्दर तरुण तपस्वी निर्जन वन में निवास कर रहे हैं। बड़ा प्रयत्न करने पर भी वे कभी-कभी निराहार रह जाते हैं, कभी फल-मूल खा लेते हैं और कभी सत्तू ही जल में सानकर खाते हैं।’ सनातन समझ गये कि ये तपस्वी हमोर श्रीजीव ही हैं। वे अत्यन्त स्त्रेहार्द्रचित्त होकर वहाँ गये। उनको देखते ही श्रीजीव अधीर होकर उनके चरणों पर गिर पड़े। वे अपने ताऊ के चरणों में लुट पड़े और आँसू बहाने लगे। व्रजवासी बड़े आश्चर्य से इस दृश्य को देख रहे थे। श्रीजीव से बातचीत करके तथा व्रजवासियों को समझकर श्रीसनातनजी श्रीवृन्दावन चले गये।

श्रीवृन्दावन में श्रीरूप गोस्वामी के पास पहुँचे। श्रीरूप गोस्वामी ने उनके चरणों में प्रणाम किया। श्रीसनातन के पूछने पर श्रीरूप ने बतलाया कि उनका भक्तिग्रन्थ-लेखन प्रायः समाप्त हो गया है। श्रीजीव होते तो शीघ्र संशोधन हो जाता। प्रसगं पाकर श्रीसनातन ने कहा- ‘श्रीजीव केवल जी रहा है, मैंने देखा, जरा-सी हवा से उसका शरीर काँप जाता है।’ इतना सुनते ही श्रीरूप का हृदय द्रवित हो गया। श्रीजीव का पता लगाकर उन्होंने तुरंत उन्हें अपने पास बुला लिया और उनकी ऐसी दशा देखकर परम कृपार्द्रहृदय से उनकी उचित सेवा-शुश्रुषा करके उन्हें स्वस्थ किया। फिर तो श्रीरूप-सनातन दोनों का सारा भार श्रीजीव ने अपने ऊपर ले लिया। श्रीजीव श्रीरूप की परिभाषा के अनुसार अब पूर्ण स्थिरचित्त थे।

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