नित्य विहार भाग 1
नित्य-विहार
परिचर्या का सहज एवं पूर्ण प्रेममय रूप ‘नित्य विहार’ में प्रकट होता है। नित्य विहारी प्रेम सहज रूप से सेव्य सेवक भाव मय है। ‘तहाँ सेव्य श्री राधिका सेवक मोहन लाल’ और सहचरी गण सेवा की मूर्ति हैं। प्रकट सेवा और भावना में क्रमशः अधिक सिथर होने पर मन की देहासक्ति कम होने लगती है। देह और उससे सम्बन्धित समस्त पदार्थों की ओर से वह धीरे-धीरे मरने लगता है और धीरे-धीरे प्रेम रस का अद्भुत चमत्कार उसको अपनी ओर अधिक आकर्षित करने लगता है। हृदय में प्रेम के सुसिथर होते हर उस प्रेम में से रूप की झलक मारने लगती है और यहीं से उपासक नित्य विहार सेवा का अधिकारी बनने लगता है।
प्रेम-सौन्दर्य के दृष्टि में आते ही सम्पूर्ण दृष्टि बदल जाती है। इसको देखकर और सब देखना भुला जाता है। ‘जो एक बार इस छवि को देख लेता है उसको त्रिभुवन तृण सा लगता है। इस द्वार के भिखारी से सारा संसार भिक्षा माँगता है। जो यहाँ का हो जाता है वह उन्यत्र का नहीं रहता और युगल के रूप-लावण्य में पग जाता है। वह बेसुध और मतवाला बनकर सोता हुआ सा संसार में जागता रहता है।’
एक बा छवि देखी उसको त्रिभुवन तृन-सा लागै है।
इस दा का जु भिखारी उससे सब जग भिक्षा माँगै है।।
जो ह्याँ का फिर सा न अनत का दंपति पानिग पागै है।
‘हित भोरी’ बेसुध मतवारा सोता-सा जग जागै है।।
नित्य प्रेम के नित्य नूतन रूप का प्रत्यक्ष परिचय हुए बिना यहाँ केवल बुद्धि से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। श्री वृन्दावन दास कहते हैं ‘रसमय धाम की रसमय सृष्टि की कथा अलौकिक है। रासेश्वरी की कृपा के अतिरिक्त यहाँ अन्य कोई साधन नहीं है। इस सृष्टि को समझने के लिये विद्वान और अविद्वान सदैव बुद्धि-बल का प्रयोग करते रहे हैं और सदैव करते रहेंगे। प्रेम-रूप का स्पर्श हुए बिना यहाँ नीरस तर्क से काम नहीं चलता।'
रस मय सृष्टि जहाँ रसमय कथा अलौकिक न्यारी।
रासेश्वरी कृपा तैं जानैं और नहीं अणिकारी।
बुधि बल करत, करि गये, करिहैं पंडित और अनारी।।
वृन्दावन हित रूप न परचे नीरस तर्क विकारी।।
नित्य विहार सेवा मानसी-सेवा की भाँति केवल मानस प्रत्यक्ष ही नहीं होती, वह प्रकट सेवा की भाँमि इन्द्रिय-प्रत्यक्ष भी होती है। उपासक के मन एवं इन्द्रियों में प्रेम का प्रकाया होने के बाद वह अपने इन ही नेत्रों से युगल की अद्भुत रूप माधुरी का दर्शन करता है और अपने इनही कानों से उनके अद्भुत मधुर वचनों को सुनता है। वह अपनी इसी नासिका से उनके अंगों की अद्भुत सुगंध का आघ्राण करता है एवं अपने इनही हाथ-पैरों से उनकी अद्भुत सुखमयी परिचर्या में नियुक्त होता है। श्री ध्रुवदास ने कहा है ‘जो उपासक मन और वाणी को एकत्र करके इस रस का गान करता है वह निश्चय सहचरि पद को प्राप्त होता है। वह इनही नेत्रों से सम्पूर्ण सुख देखता है और अपने जीवन को सफल मानता है। नव मोहन एवं राधा प्यारी को निरख कर वह उन पर न्यौछावर हो जाता है।’
यह रस जो मन बच कै गाबै, नियचै सो सहचरि पद पावै।
इनही नैननि सब सुख देखै, जनमसुफल अपनौं करि लेखै।
नव मोहन श्रीराधा प्यारी, हित ध्रुव निरखि जाई बलिहारी।
इन्द्रियाँ जब प्रेममय सेवा के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होती तब उनकी प्रत्येक क्रिया सेवा-सुख में वृद्धि करने वाली बन जाती है। इन्द्रियों के सामने प्रकट संसार के स्थान में नित्य प्रकट प्रेमोल्लास आ जाता है और वे सहज रूप से उसका उपभोग करने लगतीं हैं। श्री नागरी दास बतलाते हैं ‘यदि इन्द्रियाँ अपने विषयों को छोड़ कर भजन में स्थिर हो जाय तो उपासक सर्वत्र सेवा-सुख का भोग करता हुआ विचरण कर सकता है। उसको कहीं भी सुख की कमी नहीं रहती। भजन के बल से यदि इन्द्रियों के हाथों भाव का स्फुरण होले लगे तो सर्व गुणों से पूर्ण नित्य-विहार प्रत्यक्ष हो जाय और हृदय में नित्य नूतन चाव बढ़ता रहे।'
इन्द्री अपगुन त्यागि जो भजन माहिं ठहराँई।
जहँ-तहँ सुख विलसत फिरै तौ कहुँ टोटौ नाहिं।।
भजन बल इन्द्री हाथ जो फुकरबौ करिहै भाव।
सब गुन वस्तु विलोकी है नव-नव नित चित्त चाव।।
पृथक रस पथ के मूल में आंतरिक भाव और व्याकुलता की एकता ही है , बस कुछ दर्शन का भेद है । वह भी भेद न कह कर रस की वैचित्री हेतु ही कहा जाये । अतः यह लेख एक निश्चित पथ का द्योतक होकर भी सभी भिन्न-भिन्न रस पथिकों हेतु रसवर्धक ही है । इसे हम 3 भाग में रखेगें - सत्यजीत तृषित ।
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