Thursday, 29 September 2016

श्रित कमला कुच मण्डल ऐ

श्रित कमला कूचमण्डल ऐ ।

श्री किशोरी जी - कमले - आपकी आश्रय स्वरूपिणी श्री जी का कूच मण्डल आपका आश्रय है ।
श्यामसुन्दर के क्रीडाविलास की सिद्धि , उनकी प्रियसी वशता को कहता जयदेव जी के गीत का यह प्रथम भाव ... !
ईश्वरत्व की निश्चिन्तता को कहने के लिये भी उनकी रस लोलुप्ता को प्रकाशित किया जाता है । जो निश्चिन्त होगा वही रस-आतुर होगा । जिसे विभिन्न चिंतन सताये वह श्री प्रिया के स्तन मण्डल का आश्रय कैसे लेगा ?
यहाँ वन्दना श्यामसुन्दर की हो रही है और उन्हें प्रथम ही कमला के स्तन मण्डल का आश्रय लेने वाला कह कर उनकी रसमयता से रस आतुर भगवत् - पथिकों की और पिपासा की वृद्धि की गई है ।
सामान्य जन विचार कर सकते है कि ईश्वर कैसे रस लोलुप्त होंगे ? यह कूच मण्डल का आश्रय क्या जगत में ईश्वर की विषय सिद्धि करता है ?
विषयी और कामुक - वासनाओं घिरे हम इस बात को नहीँ समझ सकते है कि रस और काम में भेद क्या है ?
रसिक सन्त इस तरह की जयघोष सर्वप्रथम अपनी रचना में कर के विषयी जन को लौटा देते है और प्रेमी-बावरे जन को ही अग्रिम कदम बढ़ाने का संकेत करते है ।
काम वासना में डूबा तो यह प्रथम उक्ति से ही लौट जाता है , वह सोचता है जो स्वयं स्तन मण्डल का आश्रय लेता हो वह भगवान कैसे होगा ?
कुच मण्डल पर आश्रित ! आखिर कैसे ?
ब्रह्म-परमात्मा-भगवान के समस्त अध्ययन-मनन आदि को यही प्रथम पंक्ति चकित कर देती है ।
गीत-गोविन्द की रस सिद्धि को प्रकाशित करते हुये इस गीत का प्रथम पद ही ईश्वर के युगलतत्व का प्रकाशक है । रस और आनन्द के सारभूत सरोवर राशि श्यामसुन्दर की प्रथम विशेषता तो उनकी रसमयता और माधुर्यता ही है ।
श्री किशोरी जी उनकी आह्लादिनी शक्ति है । श्यामसुन्दर में जो आह्लाद है , उनके नाम-स्मरण-कीर्तन- दर्शन आदि से जो मन रंजित हो जाता है वह रञ्जनता , वह आह्लाद क्या जीव का है ? नहीँ वह तो उसी रस भुत श्यामसुन्दर का ही है और उनमें भी वह आह्लाद वह रस समुद्र आया कहाँ से ?
कमला से - श्री किशोरी से ...श्री किशोरी जी स्वयं रस-माधुर्य की सिंधु राशि की सारभूता होकर भी उसी रसमाधुर्यसार सिंधु से कमलिनी रूप प्रकाशित है अर्थात् सार रस और सार माधुर्य -सौंदर्य होकर भी वह श्यामसुन्दर को जलराशि की सौंदर्य निधि की भाँति कमल की तरह ही अति विशेष रस-माधुर्य-सौंदर्यता से अभिसार करने हेतु कमला है । कमलवासिनी , कमलरूपिणी का अर्थ है रस-माधुर्य -सौंदर्य की सार राशि का प्रकाशित कमल स्वरूप ।
कमल जलराशि से ही सौंदर्य माधुर्य से प्रकाशित है , वैसे ही पूर्ण रससार सिंधु , माधुर्य-सौंदर्य सार सिंधु होकर भी उसी का अत्यंतम सार स्वरूप दिव्य कमल है ।
और उसी आह्लादिनी की शक्ति के आश्रय से सत्-चित्-आनन्द भगवान आनन्द रूप है । उनमें आनन्दत्व का जो प्रकाश है वह आया है उनकी रसपिपासा से । शास्त्र स्वयं उन्हें रस भुत सार कह कर मौन हो जाता है , रसो वै सः । परन्तु अत्यंत रस पिपासु ही रसभुत हो सकता है । श्यामसुन्दर का निज रस भी आह्लादिनी के प्रकाश से है । श्यामसुन्दर का रस स्वरूप प्रकाशित हुआ क्योंकि अगर यह रस उन्हें कहीं से प्राप्त न होकर उनके ही भीतर प्रकट होता , वह उनके अन्तः में वासित श्री आह्लादिनी का रस न होता तो वह रस इसतरह प्रकाशमय नही होता । जैसे वर्षा के जल से व्यक्ति स्पष्ट भिगा हुआ दिखाई दे देता है वैसे ही रस में भीगे भगवान का यह रस , यह आह्लाद , यह लावण्य , यह माधुर्य जिस शक्ति से प्रकट हुआ है वह उनकी आंतरिक आह्लादिनी शक्ति है । आंतरिक आह्लादिनी शक्ति ही अनन्त रस आह्लाद से स्वरूपित हो प्रकट रूप में श्री किशोरी जी है जो कि भगवान की ही अन्तः रस वस्तु है ।
जिस तरह जीव में चेतना का वास और उसकी ही आह्लाद आदि शक्तियों से जीव का जीवन विकसित होता है वैसे ही आह्लादिनी की आंतरिक और बाह्य श्रीकिशोरी जु की तरँग आदि से ईश्वरत्व का भी विकास होता है । जिस तरह जीव नित्य नव जीवन का पिपासु है वैसे ही रस रूप श्यामसुन्दर नित नव रस पिपासु है अतः यहाँ कुच मण्डल का आश्रयभुत उन्हें कहा गया है । यह स्तन मण्डल ही रस-माधुर्य के सार रूप यहाँ कहे गए है । भाव रूप हृदय के स्पर्श हेतु बाहरी देह में स्तन का स्पर्श होगा , हृदय के आह्लाद से ही कुच मण्डल विकसित होते है वास्तविक स्पर्श और आश्रय तो यहाँ हृदय मण्डल का है । परन्तु रसिक की बात रसिक ही समझें अतः दैहिक विषय को प्रकाशित किया गया है । श्यामसुन्दर का सम्पूर्ण वास तो श्री किशोरी जु का अन्तः हृदय ही है अतः वह किशोरी हृदय वस्तु होने से किशोरी इच्छा से प्रकाशित होने से उनके हृदयमण्डल के आश्रयत्व है । जैसे जीव आत्मा की सत्ता से दृश्य है अतः उसे स्थूल आदि दृश्य होने के लिये उसकी आश्रय शक्ति की आवश्यकता है ही । आत्मा जब देह त्याग कर देती है तब देह स्वभाविक प्रकाश नही हो सकती । अतः ब्रह्म को परमात्मा और परमात्मा को और भी सार भुत साकार स्वरूप देने में जो सामर्थ्य और शक्ति लगी है वह आह्लाद वृत्ति है अर्थात् श्री किशोरी जी के रस से ही श्यामसुन्दर ब्रह्म से भगवान हुए है और जिस शक्ति के आह्लाद से वह निराकार से साकार प्रकाशित हो गए उसी शक्ति के प्यासे भी हो गये है । जैसे जल निराकार तत्व है उसमें सौंदर्य-माधुर्य सब है , जब जल का सौंदर्य आह्लादित होकर कमल रूप में प्रकट हो तब वह जल के सार तत्व का साकार रूप ही है और साकार होने पर अब उसे उस जल के आह्लाद शक्ति की पिपासा और गहरा गई है वह और आह्लादित होकर और प्रकाशित - और खिलना चाहता है ।
और हाँ बाहर की वस्तु से कमल का प्रस्फुरण सम्भव नहीँ , वैसे ही अनन्त शक्ति भगवत् तत्व से बाह्य है परन्तु जो शक्ति उनकी आंतरिकता में है वह ही उनके नित्य प्रस्फुरण का कारण है । श्री कृष्ण तत्व असहज इसलिये भी है क्योंकि वह नित्य पूर्ण होकर भी नित्य नव लीला से नित्य प्रस्फुरित होते रहते है । "सत्यजीत तृषित" ।  जयजयश्यामाश्याम ।

Saturday, 24 September 2016

परिचर्या , हित रस भाग 2

परिचर्या भाग 2

तिय के तन कौ भाव धरि सेवा हित श्रृंगार।
युगल महल की टहल कौ तब पावै अधिकार।।
नारी किंवा पुरुष हो जिनके मन यह भाव।
दिन-दिन तिनकी चरण-रज लै लै मस्तक लाव।।

दासी रूप के चिंतन से उपासक के चित्त में जिस भाव-स्वरूप का निर्माण होता है, वह उसका भाव-देह कहलाता है। जीव के प्राकृत देह का संचालन उसका मलिन अहंकार करता है, जिसके कारण वह अपने को अमुक जाति, कुल, वर्ण और सम्बन्धों वाला समझता है। उपासक के भाव देह का संचालन उसका शुद्ध अहंकार करता हैं, जिसके कारण वह अपने को राधामाधव की दासी एवं उनहीं के सम्बन्धों से सम्बन्धित व्यक्ति समझता है। भाव-देह के पुष्ट होने से प्राकृत देह का प्रभाव क्षीण होने लगता है एवं उससे सम्बन्धित सम्पूर्ण सम्बन्ध भी शिथिल हो जाते हैं। मनुष्य की इन्द्रियाँ निसर्गतः बहिर्मुख हैं अतः उसकी साधारण गति बाहर की और है। साथ ही, मनुष्य में कोई एक ऐसी चीज है जो बाहर की गति से सन्तुष्ट नहीं होती और उसको अन्दर की ओर जाने को प्रेरित करती है। सब साधना-मार्ग मनुष्य की इस अन्तर्मुखता को प्रोत्साहित करके उसको एक परम तोषमय पद पर पहुँचाने की चेष्टा करते हैं। दास किंवा सखीभाव की साधना मनुष्य की अंतर्मुखता को श्रीराधा-किंकरी के रूप में एक ऐसा आकर्षक एवं रुचिकर आधार प्रदान करती है जिसके सहारे वह क्रमशः बढ़ती चली जाती है। मनुष्य का अंतर्मुख रूप ही उसका स्थायी एवं वास्तविक रूप है। श्री लाड़िलीदास कहते है ‘सखी रूप त्रिगुण देह से प्रथक है। उसमें स्थित होकर ही अनुपम नित्यविहार के दर्शन होते हैं। उस रूप में स्थित होते ही त्रिगुण देह का अभिमान छूट जाता है और सुख-दुख, लाभ-अलाभ एवं मान-अमान में समता प्राप्त हो जाती है।

त्रिगुण देह तें प्रथक है सखी आपनौ रूप।
तामें स्थित ह्वै निरखि नित्यविहार अनूप।।
वामें स्थित ह्वै तजौ त्रिगुण देह अभिमान।
दुख-सुख, लाभ-अलाभ सम मानामान समान।।

उज्जवल प्रेम की परिचर्या के लिये दासी भाव आवश्यक है और दासी भाव की स्थिति के लिये परिचर्या आवश्यक है। परिचर्या के विविध अंगों का अनुष्ठान करने से दासी भाव पुष्ट होता है और दासी भाव से की गई परिचर्या पूर्ण एवं रसमय बनती है। उपासक के मन को प्रेमाधीन बनाकर अन्तर्मुख बना देना परिचर्या का फल है। प्रेम के द्वारा अन्तर्मुख बना हुआ मन ही जड़ता के बंधनो से निकल कर परम प्रेम रस का आस्वाद करता है। इस सम्प्रदाय में परिचर्या के तीन भेद माने गये हैं-प्रकट सेवा, भावना एवं नित्यविहार।
श्री राधाकृष्ण के प्रकट स्वरूपों[1] की परिचर्या को प्रकट सेवा कहते हैं। राधावल्लभीय पद्धति की सेवा में राधावल्लभलाल का त्रिभंग-ललित, वेणुवादन-तत्पर स्वरूप विराजमान रहता है और उनके वाम अंग में, एक विशेष प्रकार से, भव्य वस्त्रों के द्वारा श्रीराधा की ‘गादी’ की रचना रहती है, जिसमें कनक-पत्र पर लिखा हुआ--‘श्री राधा’ नाम धारण रहता है। इस ‘गादी’ किंवा ‘आसन’ पर ही श्री राधा की परिचर्या में आवश्यक द्रव्य धारण कराये जाते हैं।

स्थापयेद्वामभागे तु प्रेयस्या आसनं प्रभोः।
तदीपं परिचर्याहं द्रव्यं तत्रैव विन्यसेत्।।[2]

कहा गया है ‘श्री राधा के बिना न तो श्री हरि का पूजन करना चाहिये, न ध्यान करना चाहिये और न जप करना चाहिये। क्योंकि राधा के बिना क्षणार्थ में ही श्रीकृष्ण विकल होकर सुध-बुध खो बैठते हैं। इसलिये सार बेत्ता शुद्ध युगल उपासक को, श्री राधा के साथ रह कर ही प्रमुदित रहने वाले अपने स्वामी की, सदैव श्री राधा के साथ ही सेवा करनी चाहिये।’

श्रीमद्राधां बिना न प्रभुवर मनिशं श्री हरिं पूजयेच्च,
नध्यायेन्नोजपत्तामल युगलवरोपासकः सारवेत्ता।
यामादर्ध क्षणेतद्विरह विकलितो मुग्धतामेति कृष्ण-
स्तस्मात्साकं तयैव प्रमुदित मनसं स्वामिनं स्वं भजेत।।

सेवा का आरंभ प्रातः-काल से होता है। ‘स्नानादिक से निवृत्त होकर उपासक मस्तक पर तिलक एवं अंगों में भगवन्नामांकित मुद्रा धारण करता है और फिर भक्ति पूर्णता हृदय से गुरु-प्रदत्त मंत्र का जाप करता है। इसके बाद वह अपने सेव्य के मन्दिर का संमार्जन करके उसको शुद्ध जल से धोता है और सेवा के पात्रों को माँज कर साफ करता है। तदनंतर युगल का गुण-गान करता हुआ वह उनको शय्या पर से उठाता है और उनके सन्मुख जल, कुल्ला करने का पात्र एवं मुख पौंछने के लिये स्वच्छ वस्त्र रखता है स्निग्धभोग सामग्री एवं शीतल जल निवेदन करके उनको ताम्बूल अर्पण करता है और फिर श्री युगल की ‘मंगला आरती’ करता है। इसके बाद प्रभु के शरीर पर सुगंधित तेल का मर्दन करके उनको गुनगुने सुगंधित जल से स्नान कराता है और स्वच्छ वस्त्र से अंग अँगोछ कर उनका विविध वस्त्राभूषणों से श्रृंगार करता है। उनके मुख पर चंदन से मकरी-लेखन करता है और उनको पुष्पों की वैजयंती माला धारण कराकर चरणों में तुलसी अर्पण करता है। तदनंतर भोग एवं जल अर्पण करके प्रीति पूर्वक श्रृंगार आरती करता है और प्रमुदित मन से युगल की परिक्रमा करके उनको दर्पण दिखाता है। इसके बाद सेवा के अपराधों के लिये क्षमा माँगता हुआ, उनके मार्जन के लिये भगवन्नाम का जप करता है। तदनंतर वह अपने प्रभु के सामने रसिक महानुभावों के बनाये हुए पदों का गान करता है और प्रेम पूर्वक नृत्य करता है। इन सुख मय कार्यों से निवृत्त होकर वह युगल को विविध प्रकार की भोग-सामग्री अर्पण करता है और ताम्बूल अर्पण करके मध्याह्न आरती करता है। आरती के बाद सुगंधित पुष्पों के द्वारा शय्या की रचना करके अपने इष्ट को उस पर शयन कराता है और स्वयं प्रीति पूर्वक उनका चरण संवाहन करता है एवं पंखे से धीरे-धीरे हवा करता है।' जयजय श्यामाश्याम ।

परिचर्या , हित रस भाग 1

परिचर्या भाग 1

परिचर्या का लक्षण गोस्वामी वृन्दावनदास जी ने बतलाया है ‘दास जिस प्रकार की सेवा नृपति की करता है, उस प्रकार की सेवा का नाम परिचर्या है। नवधा भक्ति में परिचर्या को पाद-सेवन कहते हैं।'

परिचर्या तु सा ज्ञेंया सेवा या दास वन्नृपे।
पाद सेवन मित्यस्याः पर्यायः श्रवणादिषु।[1]

सम्पूर्ण अधीनता प्रेम का एक अत्यन्त मौलिक अंग है, यह हम देख चुके हैं। यह अधीनता नितान्त स्वभाविक होती है, अतः इसका पूरा उदाहरण नहीं मिल सकता। क्रीतदासों की अपने स्वामी के प्रति एकान्त अधीनता से इसको कुछ समझा जा सकता है। किन्तु इन दोनों में एक बड़ा भारी अंतर यह है कि प्रेम में मनुष्य को बिना मोल बिक जाना पड़ता है। क्रीत दास अवसर मिलने पर मुक्ति का स्वप्न देखता है। प्रेमी के लिये मुक्ति अकल्पनीय ही नहीं, सबसे बडा अभिशाप है। उपासक के हृदय में प्रेम की इस सहज अधीनता को उदय करना ही ‘परिचर्या’ का प्रधान लक्ष्य है। परिचर्या दो भावों से की जाती हैं, दास-भाव से और दासी-भाव से। अधीनता समान होते हुए भी, रसिकों ने, रस के अधिकार की दृष्टि सी, इन दोनों में बहुत बडा अंतर माना है। उज्जवल रस की परिचर्चा में केवल दासी-भाव का ही अधिकार है। दास भाव ही नहीं, सख्य एवं बत्सल भावों का भी वहाँ प्रवेश नहीं होता। उज्जवल रस की उपासना की दृष्टि से दास-भाव, सख्य-भाव, वत्सल-भाव एवं दासी-भाव किंवा सखी-भाव के तारतम्य को स्पष्ट करते हुए गोस्वामी ब्रजलाल जी कहते हैं ‘दास अपने स्वामी श्रीकृष्ण की सेवा राजसभा में कर सकता है, अन्तपुर में उसका कोई अधिकार नहीं होता है। सखागण श्रीकृष्ण के साथ समानता के भाव से हास-परिहास करते हैं किन्तु रहस्य में उनका भी प्रवेश नहीं है। वत्सल भाव में स्नेह तो खूब होता हैं किन्तु दोनों के बीच में स्वामि-सेवक भाव नहीं होता। अतः श्री राधा की दासी किंवा सखी भाव के बिना उपासक का प्रवेश रास लीला में नहीं होता।

दासः स्वास्वामि सेवा सदसि च कुरुतान्नान्तर स्याधिकारः,
सख्ये कृष्णेन हासादिक मथ कुरुतान्नो रहस्ये प्रवेशः।
वात्सल्ये स्वामि भावः कथमिहमनयोः संभवेद्राधिकाकाया,
दास्यात्सख्याद्विना किंभवति चभजताँ रास लीला प्रवेशः।
संपूर्ण श्री राधासुधा निधि स्त्रौत में एकमात्र भी राधा दास्य की प्राप्ति की प्रार्थना की गई है। श्री राधा के अद्भुत रूप के वर्णन के साथ उनके सुदुर्लभ दास्य को प्राप्त करने की तीव्र आकांक्षा इस ग्रन्थ में पद-पद पर दिखलाई देती है। श्रीराधा के दास्य का अधिकार कितना दुर्लभ है इसको एक श्लोक में स्पष्ट करते हुए वे प्रार्थना करते हैं ‘जो लक्ष्मी को गोचर नहीं है, जो श्री कृष्ण-सखाओं को प्राप्त नहीं है और जो ब्रह्मा, नारद, शिव, आदि के लिये संभाव्य नहीं है, जो वृन्दावन की नागरी सखियों के भाव के द्वारा किसी प्रकार लभ्य हैं, श्रीराधा-माधव की एकान्त-क्रीडा का यह दास्याधिकार रूपी उत्सव मुझे प्राप्त हो।'[1]

अन्यत्र, इस सुदुर्लभ दास्य की रमणीयता का स्मरण करते हुए वे आकुलता से पूछते हैं, ‘जिन प्रेम घनाकृति श्री राधा के पद-नख-ज्योत्सना-प्रवाह में स्नान किये हुए हृदयों में कोई अनिर्वचनीय, सरस एवं चमत्कार पूर्ण भक्ति समुदित हो जाती है, वे गोकुल-भूप-नंदन के मन को चुराने वाली किशोरी अपना वह दास्य मुझे कब प्रदान करेंगी जो सम्पूर्ण वेदों के शिरोभाग रूप उपनिषदों का परम रहस्य हैं।’

यत्साः प्रेम घनाकृतेः पद-नख-ज्योत्सना भर स्नापित,
स्वान्तानं समुदेति कापि सरसा भक्तिश्चमत्कारिणी।
सा में गोकुल-भूप-नंदन मनश्चोरी किशोरी कदा,
दास्यं दास्यति सर्व वेद शिरसाँ यत्तद्रहस्यं परम्।।[2]

उपासक को अपने हृदय में दासी भाव का अंगीकार करके परिचर्या में प्रवृत्त होना चाहिये। दासीभाव के अंगीकार का अर्थ यह है कि उसे अपने आप को राधा-किंकरी के रूप में देखना चाहिये। इसके लिये उपासक को यह अनुभव करना चाहिये कि ‘मैं एक परम सुकुमारी किशोरी हूँ, जिसने अपनी स्वामिनी के द्वारा प्रणय पूर्वक दिये हुए वस्त्राभूषणों को धारण कर रखा है, जो सदैव अपनी स्वामिनी के पाश्र्व में स्थित है और जो नाना प्रकार की परिचर्याओं में चतुर हैं।'

श्यामा श्याम की परिचर्या का प्रकार बतलाते हुये श्रीध्रुवदास जी कहते हैं ‘उपासक को स्नानादिक से निवृत्त होकर अपने मस्तक पर तिलक धारण करना चाहिये और फिर स्त्री के शरीर का भाव रख कर सेवा के निमित्त विविध श्रृंगारों को उस शरीर पर धारण करना चाहिये। युगल के महल की टहल का अधिकार तभी प्राप्त होता है। नारी किंवा पुरुष जिनके हृदय में भी यह भाव स्थिर हो गया है उनके चरणों की रज लेकर नित्य प्रति अपने मस्तक पर धारण करनी चाहिये।'
क्रमशः

परिचर्या , हित रस भाग 2

परिचर्या भाग 2

तिय के तन कौ भाव धरि सेवा हित श्रृंगार।
युगल महल की टहल कौ तब पावै अधिकार।।
नारी किंवा पुरुष हो जिनके मन यह भाव।
दिन-दिन तिनकी चरण-रज लै लै मस्तक लाव।।

दासी रूप के चिंतन से उपासक के चित्त में जिस भाव-स्वरूप का निर्माण होता है, वह उसका भाव-देह कहलाता है। जीव के प्राकृत देह का संचालन उसका मलिन अहंकार करता है, जिसके कारण वह अपने को अमुक जाति, कुल, वर्ण और सम्बन्धों वाला समझता है। उपासक के भाव देह का संचालन उसका शुद्ध अहंकार करता हैं, जिसके कारण वह अपने को राधामाधव की दासी एवं उनहीं के सम्बन्धों से सम्बन्धित व्यक्ति समझता है। भाव-देह के पुष्ट होने से प्राकृत देह का प्रभाव क्षीण होने लगता है एवं उससे सम्बन्धित सम्पूर्ण सम्बन्ध भी शिथिल हो जाते हैं। मनुष्य की इन्द्रियाँ निसर्गतः बहिर्मुख हैं अतः उसकी साधारण गति बाहर की और है। साथ ही, मनुष्य में कोई एक ऐसी चीज है जो बाहर की गति से सन्तुष्ट नहीं होती और उसको अन्दर की ओर जाने को प्रेरित करती है। सब साधना-मार्ग मनुष्य की इस अन्तर्मुखता को प्रोत्साहित करके उसको एक परम तोषमय पद पर पहुँचाने की चेष्टा करते हैं। दास किंवा सखीभाव की साधना मनुष्य की अंतर्मुखता को श्रीराधा-किंकरी के रूप में एक ऐसा आकर्षक एवं रुचिकर आधार प्रदान करती है जिसके सहारे वह क्रमशः बढ़ती चली जाती है। मनुष्य का अंतर्मुख रूप ही उसका स्थायी एवं वास्तविक रूप है। श्री लाड़िलीदास कहते है ‘सखी रूप त्रिगुण देह से प्रथक है। उसमें स्थित होकर ही अनुपम नित्यविहार के दर्शन होते हैं। उस रूप में स्थित होते ही त्रिगुण देह का अभिमान छूट जाता है और सुख-दुख, लाभ-अलाभ एवं मान-अमान में समता प्राप्त हो जाती है।

त्रिगुण देह तें प्रथक है सखी आपनौ रूप।
तामें स्थित ह्वै निरखि नित्यविहार अनूप।।
वामें स्थित ह्वै तजौ त्रिगुण देह अभिमान।
दुख-सुख, लाभ-अलाभ सम मानामान समान।।

उज्जवल प्रेम की परिचर्या के लिये दासी भाव आवश्यक है और दासी भाव की स्थिति के लिये परिचर्या आवश्यक है। परिचर्या के विविध अंगों का अनुष्ठान करने से दासी भाव पुष्ट होता है और दासी भाव से की गई परिचर्या पूर्ण एवं रसमय बनती है। उपासक के मन को प्रेमाधीन बनाकर अन्तर्मुख बना देना परिचर्या का फल है। प्रेम के द्वारा अन्तर्मुख बना हुआ मन ही जड़ता के बंधनो से निकल कर परम प्रेम रस का आस्वाद करता है। इस सम्प्रदाय में परिचर्या के तीन भेद माने गये हैं-प्रकट सेवा, भावना एवं नित्यविहार।
श्री राधाकृष्ण के प्रकट स्वरूपों[1] की परिचर्या को प्रकट सेवा कहते हैं। राधावल्लभीय पद्धति की सेवा में राधावल्लभलाल का त्रिभंग-ललित, वेणुवादन-तत्पर स्वरूप विराजमान रहता है और उनके वाम अंग में, एक विशेष प्रकार से, भव्य वस्त्रों के द्वारा श्रीराधा की ‘गादी’ की रचना रहती है, जिसमें कनक-पत्र पर लिखा हुआ--‘श्री राधा’ नाम धारण रहता है। इस ‘गादी’ किंवा ‘आसन’ पर ही श्री राधा की परिचर्या में आवश्यक द्रव्य धारण कराये जाते हैं।

स्थापयेद्वामभागे तु प्रेयस्या आसनं प्रभोः।
तदीपं परिचर्याहं द्रव्यं तत्रैव विन्यसेत्।।[2]

कहा गया है ‘श्री राधा के बिना न तो श्री हरि का पूजन करना चाहिये, न ध्यान करना चाहिये और न जप करना चाहिये। क्योंकि राधा के बिना क्षणार्थ में ही श्रीकृष्ण विकल होकर सुध-बुध खो बैठते हैं। इसलिये सार बेत्ता शुद्ध युगल उपासक को, श्री राधा के साथ रह कर ही प्रमुदित रहने वाले अपने स्वामी की, सदैव श्री राधा के साथ ही सेवा करनी चाहिये।’

श्रीमद्राधां बिना न प्रभुवर मनिशं श्री हरिं पूजयेच्च,
नध्यायेन्नोजपत्तामल युगलवरोपासकः सारवेत्ता।
यामादर्ध क्षणेतद्विरह विकलितो मुग्धतामेति कृष्ण-
स्तस्मात्साकं तयैव प्रमुदित मनसं स्वामिनं स्वं भजेत।।

सेवा का आरंभ प्रातः-काल से होता है। ‘स्नानादिक से निवृत्त होकर उपासक मस्तक पर तिलक एवं अंगों में भगवन्नामांकित मुद्रा धारण करता है और फिर भक्ति पूर्णता हृदय से गुरु-प्रदत्त मंत्र का जाप करता है। इसके बाद वह अपने सेव्य के मन्दिर का संमार्जन करके उसको शुद्ध जल से धोता है और सेवा के पात्रों को माँज कर साफ करता है। तदनंतर युगल का गुण-गान करता हुआ वह उनको शय्या पर से उठाता है और उनके सन्मुख जल, कुल्ला करने का पात्र एवं मुख पौंछने के लिये स्वच्छ वस्त्र रखता है स्निग्धभोग सामग्री एवं शीतल जल निवेदन करके उनको ताम्बूल अर्पण करता है और फिर श्री युगल की ‘मंगला आरती’ करता है। इसके बाद प्रभु के शरीर पर सुगंधित तेल का मर्दन करके उनको गुनगुने सुगंधित जल से स्नान कराता है और स्वच्छ वस्त्र से अंग अँगोछ कर उनका विविध वस्त्राभूषणों से श्रृंगार करता है। उनके मुख पर चंदन से मकरी-लेखन करता है और उनको पुष्पों की वैजयंती माला धारण कराकर चरणों में तुलसी अर्पण करता है। तदनंतर भोग एवं जल अर्पण करके प्रीति पूर्वक श्रृंगार आरती करता है और प्रमुदित मन से युगल की परिक्रमा करके उनको दर्पण दिखाता है। इसके बाद सेवा के अपराधों के लिये क्षमा माँगता हुआ, उनके मार्जन के लिये भगवन्नाम का जप करता है। तदनंतर वह अपने प्रभु के सामने रसिक महानुभावों के बनाये हुए पदों का गान करता है और प्रेम पूर्वक नृत्य करता है। इन सुख मय कार्यों से निवृत्त होकर वह युगल को विविध प्रकार की भोग-सामग्री अर्पण करता है और ताम्बूल अर्पण करके मध्याह्न आरती करता है। आरती के बाद सुगंधित पुष्पों के द्वारा शय्या की रचना करके अपने इष्ट को उस पर शयन कराता है और स्वयं प्रीति पूर्वक उनका चरण संवाहन करता है एवं पंखे से धीरे-धीरे हवा करता है।' जयजय श्यामाश्याम ।