Saturday, 5 March 2016

श्री वृषभानुनन्दिनी से प्रार्थना

श्रीवृषभानुनन्दिनी से प्रार्थना

जो सबके हृदयान्तराल में नित्य-निरन्तर साक्षी और नियन्ता रूप से विराजमान रहने पर भी सबसे पृथक् गोप-वधूटी-विटरूप में वर्तमान रहते हैं, जो समस्त बन्धनों को तोड़कर सर्वथा उच्छृख्ङलता को प्राप्त हैं, जिनके स्वरूप का सम्यक् ज्ञान ब्रह्मा, शंकर, शुक, नारद और भीष्मादि ‘महतो महीयान्’ पुरुषों को भी नहीं है, अतएव वे हार मानकर मौन हो जाते हैं, उन सर्वनियमातीत, सर्वबन्धनविमुक्त, नित्य-स्ववश, परात्पर परम पुरुषोत्तम को भी जो श्रीराधिका-चरण-रेण इसी क्षण वश में करने की अनन्त शक्ति रखता है, उस अनन्त शक्ति श्रीराधिका-चरण-रेणु का हम अपने अन्तस्तल से बार-बार भक्ति पूर्वक स्मरण करते हैं—

यो ब्रह्मरुद्रशुकनारदभीष्ममुख्यै-
रालक्षितो न सहसा पुरुषस्य तस्य।
सद्योवशीकरणचूर्णमनन्तशक्ति
तं राधिकाचरणरेणुमनुस्मरामि।।

विश्व प्रकृति के प्रत्येक स्पन्दन में बिन्दु रूप से जो विदग्ध भाव, अनुराग, वात्सल्य, कृपा, लावण्य, रूप (सौन्दर्य) और केलिरस (माधुर्य) वर्तमान है - रासेश्वरी, नित्य-निकुन्जेश्वरी, श्रीवृषभानुनन्दिनी, उन्हीं सातों रसों की अनन्त अगाध उदधि हैं। इस प्रकार नित्यानन्द रसमय सप्त-समुद्रवती श्रीराधिका श्यामसुन्दर आनन्दकन्द के नित्य दिव्य रमणानन्द में अनादिकाल से ही उन्मादिनी हैं - नित्य कुलत्यागिनी हैं। इन्हीं के सहज सरल स्वच्छ भाव के शुद्ध रस से, इन्हीं के भावानुरागरूप दधिमण्ड से, इन्हीं की वात्सल्यमयी दुग्ध धारा से, इन्हीं की परम स्त्रिग्ध घृतवत् अपार कृपा से, इन्हीं की लावण्य-मदिरा से, इन्हीं के छवि रूप सुन्दर मधुर इक्षुरस से और इन्हीं के केलि-विलास-विन्यास रूप क्षारतत्त्व से समस्त अनन्त विश्वब्रह्माण्ड नित्य अनुरन्जित, अनुप्राणित और ओत-प्रोत हैं। ऐसी अनन्त विचित्र सुधारसमयी, प्राणमयी, विश्वरहस्य की चरम तथा सार्थक मीमांसामूर्ति श्रीवृषभानुनन्दिनी का दिव्य स्फुरण जिसके जीवन में नहीं हो पाया, उसका सभी कुछ व्यर्थ-अनर्थ है। देवी राधिके! अपने ऐसे दिव्य स्फुरण से मेरे हृदय को कृतार्थ कर दो—

वैदग्ध्यसिन्धुरनुरागरसैकसिन्ध-
र्वात्सल्यसिन्धुरतिसान्द्रकृपैकसिन्धुः
लावण्यसिन्धुरमृतच्छविरूपसिन्धुः
श्रीराधिका स्फुरतु मे हृदि केलिसिन्धुः।।

श्रीराधिके ! वह शुभ सौभाग्य-क्षण कब होगा, जब तुम्हारे नाम-सुधा-रस का आस्वादन करने के लिये मेरी जिह्वा विह्वल हो जायगी, जब तुम्हारे चरण चिह्नों से अंकित वृन्दारण्य की वीथियों में मेरे पैर भ्रमण करेंगे— मेरे सारे अंग उसमें लोट-लोटकर कृतार्थ होंगे, जब मेरे हाथ केवल तुम्हारी ही सेवा में नियुक्त रहेंगे, मेरा हृदय तुम्हारे चरण-पद्मों के ध्यान में लगा रहेगा और तुम्हारे इन भावोत्सवों के परिणामरूप मुझे तुम्हारे प्राणनााि के चरणों की रति प्राप्त होगी— मैं तुम्हारे ही सुख-साधन के लिये तुम्हारे प्राणनाथ की प्रणयिनी बनने का अधिकार प्राप्त करूँगा—

राधानामसुधारसं रसयितुं जिह्वास्तु में विह्वला
पादौ तत्पदकाङ्कितासु चरतां वृन्दाटवीवीथिषु।
सत्कर्मैव करः करोतु हृदयं तस्याः पदं ध्यायतात्
तद्भावोत्सवतः परं भवतु मे तत्प्राणनाथे रतिः।।

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