Tuesday, 15 March 2016

विप्रलम्भ

विप्रलम्भ
विप्रलम्भ नायक और नायिका की वह अवस्था है, जिसमें वे एक-दूसरे के निकट नहीं होते, या निकट होते हुए भी अपना अभीष्ट आलिंगनादि प्राप्त नहीं कर सकते। विप्रलम्भ सम्भोग का पुष्टिकारक तो है ही, स्वयं रस भी है। विप्रलम्भ में नायक और नायिका के निविड़तम पारस्परिक स्मरण-चिन्तन के फलस्वरूप स्फूर्ति में परस्पर के निकट परस्पर का आविर्भाव होता है। उस अवस्था में जो परस्पर का मानसिक, चाक्षुष और कायिक आलिंगन-चुम्बनादि होता है, वह सम्भोग की अवस्था के आलिंगन-चुम्बनादि की अपेक्षा अधिक चमत्कारमय होता है। इसलिए विप्रलम्भ को सम्भोग-पुञ्जमय कहा है। सम्भोग में एक ही कृष्ण का अनुभव होता है, विप्रलम्भ में विश्व कृष्णमय होता है। अनुभवी व्यक्तियों ने सम्भोग और विप्रलम्भ के बीच विप्रलम्भ को ही वरणीय कहा है।

No comments:

Post a Comment