Friday, 25 March 2016

निश्चयात्मक बुद्धि

निश्चयात्मिका बुद्धि
कर्म, ज्ञान एवं भक्ति- इन त्रिविध बुद्धियोग में विशुद्ध भक्तियोग विषयिणी बुद्धि ही सर्वाेत्कृष्ट है। मुख्य भक्तियोग का लक्ष्य एकमात्र श्रीकृष्ण ही हैं। इससे केवल भगवत्सम्बन्धिनी बुद्धि ही एकान्तिकी अथवा अनन्या कहलाती है। ऐसी एकान्तिकी भक्ति के अनुष्ठाता साधक भक्त भोग और मोक्ष की कामना से रहित तथा निष्कपट होते हैं। इनकी बुद्धि भी निश्चयात्मिका होती है। वे सोचते हैं कि भजन में कोटि-कोटि विघ्न उपस्थित होते हों तो हों, प्राण जाये तो जाये, अपराध के कारण नरक में भी जाना पड़े तो कोई बात नहीं, परन्तु मैं भक्ति का परित्याग नहीं कर सकता। यदि स्वयं ब्रह्मा भी आदेश करें तो भी ज्ञान और कर्म को अंगीकार नहीं करूंगा। मैं किसी भी परिस्थिति में भक्ति का परित्याग नहीं कर सकता। ऐसी दृढ़ता का ही नाम निश्चयात्मिका बुद्धि है।

(श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर)

Tuesday, 22 March 2016

सुषुप्ति और ब्रज लीला

ब्रज लीला का तत्व भली प्रकार समझने के लिए सुषुप्ति रहस्य को समझना आवश्यक है । जहाँ सुषुप्ति नहीँ और जहाँ स्वप्न भी नहीँ वहीँ प्रकृत जगत अवस्था है । उसी को महाजागरण या परचैतन्य कहकर निर्देशित किया जाता रहा है । वस्तुतः जगे रहना ही चेतन रहना है । वहीँ चैतन्य है । सुषुप्ति अचेतन भाव या जड़त्व है । जो चेतन है , वह वस्तुतः ही चेतन है , अचेतन नहीँ । फिर भी स्वतंत्रता के वश से वह आंशिक रूप में अचेतन हो सकता है ।  यह अचेतन होना ही सुषुप्त होना या निद्रित होना है । इसी का नाम आत्मविस्मृति है । किन्तु यह आत्मविस्मृति स्वेच्छा मूलक है , स्वतन्त्रता से है । इसलिये यह भी केवल एक अभिनय है । वस्तुतः चैतन्य की नाट्य लीला इस सुषुप्ति रूप या आत्मविस्मृति रूप यवनिका के ग्रहण से ही प्रारम्भ होती है ।
चैतन्य का अपनी इच्छा से अपनाया हुआ यह सुषुप्त भाव आभास मात्र है । महाचैतन्य जागृत ही है , और अत्यन्त क्षीण अंश में मानो सुक्षुप्त या आत्मविस्मृत हो जाता है । यह उसकी स्वभाविक क्रीड़ा है । इस क्रीड़ा को स्वभाव , लीला , अविद्या , अथवा महेच्छा जो भी कहा जाए उसे अस्वीकार नहीँ किया जा सकता । मानो महाचैतन्य की 15 से भी अधिक परिमाण विशिष्ट कला चैतन्यस्वरूप में ही प्रतिष्ठित रहती है । किञ्चित् न्यून एक कला आभास रूप में सुषुप्त हो जाती है ।  लीलामयी सृष्टि की धारा इस कला में से होकर फूट निकलती है ।
सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।

नित्य विरह

अभाव (नित्य विरह)

ब्रह्म , परमात्मा और भगवान तीनोँ अनुभूतियों में प्रत्येक की ही एक एक स्थिति की अवस्था है  ।
एक से दूसरी स्थिति में जाना कठिन है , क्योंकि उस स्थिति में मिला रस आगे बढ़ने में बाधक हो सकता है । ब्रह्मानुभूति से परमात्मस्वरूप अनुभूति फिर भगवत् अनुभूति ।
जिसे पूर्ण रस मय होना हो वह किसी स्थिति में नहीँ बंधता । प्रत्येक स्थिति पाकर आगे की लालसा में बढ़ता रहता है । अभाव ही पथ आगे बढ़ाने में सहयोग करता है ।
नित्य लीला में जो भी होते है वे परिपूर्ण स्थिति लाभ करके भी उस स्थिति में बंध नहीँ पाते या जुड़ नहीँ पाते , वह तृप्त होकर भी अतृप्त ही रहते है । नित्य मिलन के बीच ही नित्य विरह अनुभूत् करते है । मिलन में विरह होने से मिलन सार्थक नहीँ होता , वैसे ही विरह भी सार्थक नहीँ , वह नित्य मिलन को विरह नहीँ सिद्ध कर सकता है । नित्य मिलन में विरह नहीँ रहता ऐसा नहीँ हो पाता । प्रत्येक स्थिति पूर्ण है , भगवान अखण्ड है , अतः उनका खण्ड हुआ ही नहीँ , वहीँ भगवान अखण्ड होने से सभी स्वरूप में अनन्त जगत में लीलामय है ।
भगवदरूप के मध्य वहीँ एक ही वस्तु चिदानन्दमय अखण्ड अद्वितीय सम्राट भाव के भी पार होकर अचिन्त्य माधुर्य भाव के रसास्वादन में स्वयं में स्वयं ही विभोर है ।
गहनता में प्रत्येक स्थिति पूर्ण है , फिर भी चरम की कोई सीमा नहीँ ।
जैसी दृष्टि वहीँ तक वह देख उसे ही चरम पूर्ण रस जान रुक जाता है और चरमत्व का अनुभव कर लेता है । जबकि पूर्ण स्वरूप के चरम को कोई भी विधि आदि लांघ नहीँ पाई ।
पाकर भी आशा रहना , परिपूर्ण रस की तृप्ति में भी बार बार अतृप्त रहना , यह जो भाव के मध्य अभाव की अनुभूति है , यही नित्यानन्द स्वभाव का खेल है , यह अभाव ना हो तो यह रस मय खेल पुनः पुनः ना हो । यह अभाव कुछ भी नहीँ क्योकि यह व्याकुल जिस रस हेतु है वह प्राप्त ही है , फिर भी यह सब कुछ है , इसके ही उदय से पुनः पुनः प्रगाढ़ता बढ़ती है । सब कुछ इसी से होता है क्योंकि यह लालसा उदय करता है फिर भी यह होकर भी नहीँ ही लगता है । दोनों ही तरह से यह सब कुछ है और कुछ भी नहीँ । यहीँ अद्वय (एकरूप) रस है । सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।

Monday, 21 March 2016

वैष्णव का घर ही ब्रज है

"वैष्णव का घर ही ब्रज है"
जो 4 लीला ब्रज में नित्य है वही 4 लीला वैष्णव के घर में भी नित्य है।
हमारे मन में प्रश्न उठता है की ये 4 लीला वैष्णव की गृह सेवा में कैसे नित्य है?
गृह सेवा में भी ये 4 लीला नित्य है इसका खूब सुन्दर भाव एक ग्रन्थ में बताया गया है।
ऐसा मनोरथ मन में लिए हुए जब हम ठाकुरजी का श्रृंगार करे और अचानक से अपने आप जब श्रृंगार बड़ा हो जाये। ऐसा जब बार बार हो तब मानना की आज श्री ठाकुरजी की मानलीला चल रही है।
ब्रज में 4 लीला नित्य है। मानलीला, दानलीला' रासलीला, गोचारणलीला। ये लीला श्री प्रभु नित्य करते है।
रासलीला----- जब हम सेवा में श्री ठाकुरजी का श्रृंगार करने बैठे हो और याद आये की कुछ वस्तु रह गई। "उस वस्तु को लाने के लिए उठे, उस वस्तु को लाकर फिर बैठे इतने में कुछ और वस्तु लाने की याद आवे फिर उठकर उस वस्तु को लाकर बैठे"। इस तरह बार बार हो तब मानना की आज प्रभु रासलीला कर रहे है और "हलारी" रास चल रहा है।
जब हम ठाकुरजी की सेवा में उपस्थित हो और सेवा में जरा भी मन ना लगे, चित्त की एकाग्रता ना हो तब मानना की ये मन रूपी मटकी प्रभु प्रेम से भराई नही, खाली है इसलिए प्रभु उस खाली मटकी को फोड़ देते है इसलिए श्री ठाकुरजी की सेवा में मन लगता नही।
कभी थोड़ा मन ठाकुरजी की सेवा में लगे और थोड़ा मन लौकिक काम में लगे तब मानना की प्रभु प्रेम से अधूरी मटकी भरी हुई है। अधूरी भरी हुई मटकी को प्रभु ढोल देते है।
दानलीला---- जब श्री प्रभु ने दानलीला करी तब प्रभु ने कुछ मटकी को फोड़ दिया, कुछ मटकी को ढोल दिया और कुछ मटकी प्रभु अपने संग में ले गये।
मटकी गोपीजन का मन है और मटकी में भरा गोरस प्रभु के लिए प्रेम, सर्वात्मभाव है।
मानलीला---- जब अपने घर में कोई वैष्णव आने वाले हो और अपने मन में मनोरथ जगे की-"आज ये वैष्णव आने वाले है तो प्रभु को सुन्दर और भारी श्रृंगार धरु और आने वाले वैष्णव दर्शन करके कहें की- वाह! क्या खूब सुन्दर श्रृंगार हुआ है।"
जब हम सेवा में उपस्थित हो तब कोई लौकिक विचार नही आये, मन कही और ना हो, सभी इन्द्रिया एक साथ श्री ठाकुरजी क़े स्वरूप में लीन हो तब मानना की आज मेरी मन रूपी मटकी रस से पूरी भराई है और प्रभु उस भरी हुई मटकी को अपने संग में ले गये है। जिससे चित्त प्रभु में स्थिर हुआ है।
जब मन रूपी मटकी खाली होगी तो प्रभु उसे फ़ोड़ देंगे, जब मन रूपी मटकी अधूरी होगी तो प्रभु उसे ढोल देंगे और जब मन रूपी मटकी पूरी भरी हुई होगी तो प्रभु उसे अपने संग ले जायेंगे।
गोचारणलीला------ गो यानि हमारी इंद्रियाँ। प्रभु ब्रज में गायो को चराने जाते नही बल्कि हमारी इन्द्रियों जो प्रभु को छोड़कर दूर दूर जा रही है उन इन्द्रियों को घेर घेर कर प्रभु अपने पास लेने जाते है। जब श्री ठाकुरजी से हम दूर हुए हो, विमुख हुए हो तब हमें कोई उत्तम वस्तु देखकर हमे हमारे प्रभु की याद आये की "ये वस्तु तो मेरे प्रभु लायक है" तब मानना की आज प्रभु गोचारणलीला कर रहे है।
🐄श्री कुञ्ज बिहारी श्री हरिदास ।

दान लीला सांकरी खोर

राधे राधे
बरसाना में एक अत्यंत प्रसिद्ध कृष्ण लीला स्थल है 'सांकरी खोर'। यहां प्यारे नन्हेनटखट श्याम नित्य नवीन लीला किया करतें हैं।सांकरी खोर ब्रह्मपर्वत और विष्णु पर्वत के बीच अत्यंत संकरा रास्ता है, एक बार में एक ही व्यक्ति आ जा सकता है।
                   गोपियाँ प्रतिदिन दही दूध की मटकी सर पर रख इस मार्ग से जाया करतीं हैं। दूसरी दिशा से नटखट कान्हा आकर उनका रास्ता रोकते हैं और बोलते हैं दान दो यानि यहां से जाने का 'दधि-कर'। गोपियाँ हैरान परेशान।एक दिन एक गोपी को पकड़ लिया, लगे दान मांगने।वो बोली -"कैसा दान,क्या ये मार्ग तुम्हारा हे? कृष्ण बोले-" नही देगी तो जाने नही दूंगा"  खूब बहस हुई।मटकी फोड़ डाली।दूध दधि सब बिखेर दिया।

गोपी गई राधा के पास। सब हाल सुनाया। राधा ने कहा बस अब तो इन्हें सबक सिखाना ही होगा। सबने मिलकर योजना बनाई। विशाखा, ललिता और राधा के नेतृत्व में सेना गठित की गईं। सब छिप कर बैठ गईं। एक।गोपी का मार्ग जब फिर रोका कृष्ण ने तो बहस शुरू। कान्हा लगे छेड़छाड़ करने। चुनरी खीची,बहियाँ मरोड़ी और मटकी फोड़ दी। अब जैसा की तय था, गोपी ने सीटी बजाई और तुरन्त चहुँ ओर से गोपियों की सेना निकलकर आ गई। घेर लिया कृष्ण और सखाओं को.. ललिता ने मधुमंगल को पकड़कर पेड़ से उसकी चोटी बाँध दी।वह रोने लगा। अब कान्हा को घेरा,पकड़कर लहंगा पहना दिया। सर पे चुनरी सिंदूर, बिंदी सखी बना दिया।राधा बोली, कान पकड़कर क्षमा मांगो।मांगी क्षमा। गोपियाँ बोली, तुम्हारी शिकायत राजा कंस से करेंगी। कृष्ण गुस्से में बोले-" क्या वह तुम्हारा भरतार लगता है"
                     अब गोपियाँ सटपटा गई। बोली-"इस समय तो तुम भी गोपी हो" और कृष्ण गोपियों से खूब बहस करने लगे।इसी बीच उचित अवसर देख, बहस करते करते जीभ निकाल, सींग बना, गोपियों को चिड़ाते वहां से सखाओं के साथ भाग गये।

Thursday, 17 March 2016

ताम्बूल पान लीला

ताम्बूलामृत
श्रीप्रिया जु ने स्वयं ताम्बूल को प्रियतम् हेतु बनाया , ताम्बूल प्रेम का ही प्रतीक है , वह रस वर्धन करता है । श्री जी सदा प्रियतम् हेतु प्रेममय ताम्बूल धारण किये सभी प्रेमी जन दर्शन किये ही है , वह प्रेम ही है , मुर्त प्रेम ,
यह बड़ी ही दिव्य सुगन्ध और रस वर्धन दिव्य भावों से बना है । श्री प्रिया बड़ी ही सावधानी से उसे तैयार करती है ।और इसमें नित्य उनके भाव सागर के दिव्य अतृप्त प्रेम के कारण विशेष अति विशेष रस स्वतः हो जाता है । प्रियतम् को नित् लगता है जैसे आज ही ताम्बूल पाया हो।
एक बार लाडिली जु ने नाना रस पवा कर उन्हें पान आगे किया । वह सदा की तरह प्रिया और पान को निहारे , फिर प्रिया को मुस्कुरा कर देखने लगे , वह संकोच से हाथ में दे रही थी । प्रियतम् के देखने से वह शर्मा गई
फिर प्रियतम ने नेत्र प्रिया के नेत्रों से लगा कर मुख खोल दिया , श्री किशोरी जु तो भाव मय हो और संकुचित और स्पंदित होने लगी
बड़े भय से उन्होंने प्रियतम के मुख कमल में पान धरा , इस में उनकी अंगुलियां प्रियतम् अधर छु कर और तीव्र भाव आवेश से सम्पूर्ण शरीर को रोमांचित कर गई
प्रियतम् को पूर्ण ताम्बूल पवा वह उनके ताम्बूल के लालिम में रचे अधर नयन झुका कर भी छिप छीप कर निहारने लगी ।
फिर प्रियतम् को ध्यान हुआ , वह पूरा ताम्बूल पा रहे है , रस मगन हो वह किशोरी जु को भूल गए
प्रियतम् ने ताम्बूल मय मुख से कहा तुमने तो पाया ही नहीँ
लाडिली जु ने प्रेममय मुस्कराहट से हाथ आगे कर दिया , नयन झुकाये रखे और संकोच गहराने लगा
प्रियतम् ने पुनः कह पाने में असमर्थ हो कर कहा , ऐसे ???
ऐसे पाओगी आप।।
किशोरी जु ने कहा फिर जैसा आप चाहे
प्रियतम् ने श्री किशोरी जु के अधर की और दृष्टि लगा दी , वह समझ गई । और अति व्याकुलित , व्यथित सी सहम सी गई
पुनः वह कहते है , मुझे अमनिया ही पवा दिया , देखो यह कसेरा है ,
यह सुन लाडिली व्याकुल हो गई । और स्वयं जो सहम सी गई थी अधर से अधरामृत रंजित ताम्बूल पान करने लगी । ताम्बूल पान छुट गया और अधरामृत पान होने लगा , यह सब दर्शन सखी कर रही थी ।
भावमय झाँकि पा कर वह गदगद हो गई । सखी ने देखा , कि ताम्बूल कितना धनी है , उसने एक समय युगल अधर रस का संयोजन पीया
सखी कुछ क्षण ताम्बूल के सुख से व्याकुल हुई । फिर किशोरी जु जब प्रियतम् से अपने भाग का पान आरोग् पुनः हटी कि उनकी दृष्टि सखी पर गई और वह शर्मा गई।
किशोरी जु के आगे सखी ने कर बढ़ा दिया
किशोरी जु ने उसके कर में नहीँ मुख में अपने कर से प्रेम के कोर गिरा दिए । युगल अधर रस पी चुके , दिव्य ताम्बूल को पा कर सखी धन्य हो गई ।
प्रियतम् के अधर से श्रेष्ट को रस नहीँ , और प्रियतम के लिए भी प्रिया अधर रस से श्रेष्ट कुछ हो यह वह नहीँ जानते , अपितु वह अधर रस को ही अपनी पूर्ण रस मदपय मानते है । और वह ताम्बूल युगल अधरामृत मुख मण्डल के प्रेम का प्रसाद नहीँ , साक्षात् सर्वोत्तम पुरस्कार ही है -- सत्यजीत तृषित ।।।

सब रसन को सार पायो ब्रजनंदन तेरे चरणन में
चरणन रस सूं अति गहन सघन रस पायो मदनमोहन तेरे अधरन में
तव अधरन में रस आयो रसिका स्यामा अधरन से
द्वय सुविकसित कुमल नीरद दल लिपटन सु
अती गूढ़ गहन मिलन रस प्रीतसोरभ चहु और छायो
किशोरी ते पाये मदमिलित सुंगधित कनिकन में
---   सत्यजीत तृषित ।।।

Wednesday, 16 March 2016

नाम रहस्य

(नाम रहस्य)

★ मान लो की मनुष्य के पास दो अंगुठी है-- एक अंगुठी मे कांच लगा है ओर दुसरी अंगुठी मे हीरा लगा है तो हीरे वाली अंगुठी से मनुष्य को ज्यादा प्रेम होता है क्योकि उस हीरे के कारण अंगुठी का मुल्य ओर महत्व बढ गया --
उसी प्रकार भगवान के नाम को कभी मुल्यहीन मत समझो क्योकि भगवान खुद अपने नाम मे बैठे रहते है--

ईसलिए भगवान का नाम संकीर्तन करते समय ये बात पुर्ण विश्वास से हमेशा याद रखना की हम जो नाम लेने जा रहे है उस नाम मे भगवान सम्पुर्ण शक्तियो के साथ बैठे है--
नाम्नामकारि बहूधा निज सर्व शक्ति -- जिस तरह भगवान रस स्वरुप है उसी प्रकार भगवान का नाम भी रस स्वरुप है क्योकि खुद भगवान उस नाम मे बैठे है ---
कभी कभी मनुष्य कहता है की भगवान का नाम तो खूब लिया लेकिन रस नही मिला--

ईसका केवल एक ही कारण है की भगवान के नाम मे भगवान बैठे है ये बात मनुष्य को मालुम नही है-- अगर ये बात बुद्धि मे बैठा लोगे तो भगवान का नाम लेते समय रस मिलेगा -- ईसलिए जब भी नाम गाओ तो ये सोचकर गाना की नाम मे भगवान सम्पुर्ण शक्तियो के साथ बैठे है

जिस तरह अंगुठी मे हीरा लगा दिया जाये तो लोग हीरे की वजह से उस अंगुठी से प्रेम करने लगते है उसी प्रकार भगवान के नाम मे भगवान बैठे है ये बात जीवन मे उतार लो ओर तब नाम संकीर्तन करो -- रस मिलेगा--

राधे राधे

आनन्दाष्टक

आनन्दाष्टक
(श्री ध्रुवदास जी विरचित)

सखी सबै उडगन मनौं , एक बार आनन्द ।
पिय चकोर ध्रुव छकि रहे , निरखि कुँवरि मुखचन्द ।। 1 ।।

श्री वृन्दावन नित्य विहार के नित्य नव निभृत निकुँज विलासी चतुर्व्यूह का संक्षिप्त परिचयात्मक रूपक प्रस्तुत करते हुए श्री हित ध्रुवदास जी कहते है कि आनन्द धाम श्रीवृन्दावन ही मानो एक नीरभ्र , प्रेमाकाश है । जहाँ सखियोँ का समुदाय ही देदीप्यमान तारामण्डल है । जिसके मध्य में नवल किशोर निकुंजेश्वरी श्रीराधा का छविधाम मुखमण्डल अलौकिक चन्द्रमा की भाँति जगमगा रहा है । प्रियतम श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के रूपपिपासु नेत्र चकोर हैं , जो निर्निमेष भाव से प्रियतमा की मुखचन्द्र माधुरी का पान करके छके रहते हैं । 1 ।

ऐसी अद्भुत सभा बनी , इक छत सुख की रासि ।
फूले फूल आनन्द के , सहज परस्पर हाँसि ।। 2 ।।

वृंदावन प्रांगण में सखी जन एवम् प्रियप्रियतम की यह मण्डली अद्भुत तो है ही , विलक्षण एवं एक छत्र सुख की राशि भी है , जहाँ परिकर का परस्पर हास्य ही आनन्द रुपी पुष्पों का विकास है । 2 । 

देखि लाल के लालचहि , लालच हू ललचाइ ।
नवल कटाक्ष तरंग रस , पिवतहू न अघाइ ।। 3 ।।

श्री किशोरी के विशाल नेत्रों की नव नव कटाक्ष तरंगों का अनवरत रसपान करते हुये भी प्रियतम् का रूप लालची मन तृप्त नहीँ होता है । श्री लाल जी के रूपदर्शन लालच को देखकर ऐसा लगता है कि मूर्तिमान लालच भी लाल जी के लालच को देखकर ललचा रहा है । 3 ।

एकहि वय गुन प्रेम रस , रूपअरु सील सुभाव ।
अद्भुत जोरी बनी ध्रुव , देखि बढ़त चितचाव ।। 4 ।।

युगल किशोर की वय (आयु) , गुणावली , पारस्परिक विलास , प्रेम , नवनवायमान रूप , शील , नम्रता , मृदुता युक्त स्वभाव , सभी कुछ समान हैं । ऐसी अद्भुत मिथुन मूर्ति को देख कर देखते रहने का ही चाव चढ़ता रहता है । 4 ।

या रस के जे रसिकजन , तिनकी कौन समान ।
बिना मधुर रसमाधुरी , परसत नहिं कछु आन ।। 5 ।।

वृन्दावन नित्य विहार परिकर के नाम , रूप , लीला , रसास्वादी रसिक जनोँ की समता कौन कर सकता है ,जो इस मधुर रस की माधुरी के सिवाय अन्य किसी रस का स्पर्श भी नहीँ करते । 5 ।

रसिक तबहिं पहिचानियै जाकैं यह रस रीति ।
छिन - छिन हिय में झलकि रहै , लाल लाडिली प्रीति ।। 6 ।।

यदि भक्तों का अस्वादनीय इष्ट तत्व यह रस प्रीति है एवम् क्षण क्षण प्रति उनके हृदय में ललित लाडिली लाल की प्रीति झलकती हिलोरें लेती रहती है , वास्तव में तभी उन्हें रसिक जानना और मानना चाहिये । 6 ।

यह रस जिन समुझ्यौ नहीँ , ताके ढिंग जिनि जाहु ।
तजि सतसंग सुधा रसहि , सिंधु-सुतहि जिनि खाहु ।। 7 ।।

जिन्होंने उपरोक्त वृन्दावन निकुँज विलास रस को जाना पहचाना तक नहीँ हैं , रसिक उपासक को उनके समीप जाना तक उचित नहीँ है , अर्थात् उनसे सम्पर्क स्थापित करना विषभक्षण तुल्य है, अतएव रसिक उपासक को चाहिए कि रसिक संग रूपी अमृत का त्याग करके अन्य किसी के संग रुपी सिंधु पुत्र विष का भक्षण न करें । 7 ।

वृन्दावन रस अति सरस , कैसैं करौं बखान ।
जिहि आगैं बैकुंठ कौ , फीको लगतु पयान ।। 8 ।।

वृंदावन रस अत्यंत ही सरस है , जिसका वर्णन करने में वाणी असमर्थ है । जिस वृन्दावन के समक्ष वैकुण्ठ का प्रस्थान भी तुच्छ प्रतीत होता है ।

यह अष्टक "ध्रुव" पढ़ै जौ , सन्ध्या और सबार ।
ताके हियैं प्रकास रहै , मिटै त्रिगुन - अँधियार ।। 9 ।।

श्री ध्रुवदास जी कहते है कि जो कोई सन्ध्या एवम् प्रातः काल इस आनन्दाष्टक का पाठ करेगा , उसके हृदय में त्रिगुण जन्य अंधकार का विनाश होकर सदा प्रेम का प्रकाश प्रकट होगा । 9 ।
सेवा -- सत्यजीत "तृषित"
जयजय लाडिलीलाल जु , जयजय श्यामाश्याम ।।

Tuesday, 15 March 2016

विप्रलम्भ

विप्रलम्भ
विप्रलम्भ नायक और नायिका की वह अवस्था है, जिसमें वे एक-दूसरे के निकट नहीं होते, या निकट होते हुए भी अपना अभीष्ट आलिंगनादि प्राप्त नहीं कर सकते। विप्रलम्भ सम्भोग का पुष्टिकारक तो है ही, स्वयं रस भी है। विप्रलम्भ में नायक और नायिका के निविड़तम पारस्परिक स्मरण-चिन्तन के फलस्वरूप स्फूर्ति में परस्पर के निकट परस्पर का आविर्भाव होता है। उस अवस्था में जो परस्पर का मानसिक, चाक्षुष और कायिक आलिंगन-चुम्बनादि होता है, वह सम्भोग की अवस्था के आलिंगन-चुम्बनादि की अपेक्षा अधिक चमत्कारमय होता है। इसलिए विप्रलम्भ को सम्भोग-पुञ्जमय कहा है। सम्भोग में एक ही कृष्ण का अनुभव होता है, विप्रलम्भ में विश्व कृष्णमय होता है। अनुभवी व्यक्तियों ने सम्भोग और विप्रलम्भ के बीच विप्रलम्भ को ही वरणीय कहा है।

Sunday, 13 March 2016

श्री किशोरी महिमा भाई जी 2

श्री किशोरी महिमा  भाई जी 2

श्रीराधा के गुण-सौन्दर्य से नित्य मुग्ध प्रियतम श्यामसुन्दर यदि कभी प्रियतमा श्रीराधा के प्रेम की तनिक भी प्रशंसा करने लगते, उनके प्रति अपनी प्रेम-कृतज्ञता का एक शब्द भी उच्चारण कर बैठते अथवा उनके दिव्य प्रेम का पात्र बनने में अपने सौभाग्य-सुख का तनिक-सा संकेत भी कर जाते तो श्रीराधाजी अत्यन्त संकोच में पड़कर लज्जा के मारे गड़-सी जातीं। एक बार उन्होंने श्यामसुन्दर से रोते-रोते कहा—
तुमसे सदा लिया ही मैंने, लेती-लेती थकी नहीं।
अमित प्रेम-सौभाग्य मिला, पर मैं कुछ भी दे सकी नहीं।।
मेरी त्रुटि, मेरे दोषों को तुमने देखा नहीं कभी।
दिया सदा, देते न थके तुम, दे डाला निज प्यार सभी।।
तब भी कहते— ‘दे न सका मैं तुमको कुछ भी हे प्यारी।
तुम-सी शील-गुणवती तुम ही, मैं तुमपर हूँ बलिहारी’।।
क्या मैं कहूँ प्राण-प्रियतमसे, देख लजाती अपनी ओर।
मेरी हर करनी में ही तुम प्रेम देखते नन्दकिशोर।।
श्रीराधाजी का जीवन प्रियतम-सुखमय है। वे केश सँवारती हैं, वेणी में फूल गूँथती हैं, मालती की माला पहनती हैं, वेश-भूषा, साज-श्रंगार करती हैं, पर अपने को सुखी करने के लिये नहीं; वे सुस्वादु पदार्थों का भोजन-पान करती हैं, परंतु जीभ के स्वाद या अपने शरीर की पुष्टि के लिये नहीं; वे दिव्य गन्ध का सेवन करती हैं, पर स्वंय उससे आनन्द लाभ करने के लिये नहीं; वे सुन्दर पदार्थों का निरीक्षण करती हैं, पर अपने नेत्रों को तृप्त करने के लिये नहीं; वे मधुर-मधुर संगीत-ध्वनि सुनती हैं, पर अपने कानों को सुख पहुँचाने के लिये नहीं; वे सुख-स्पर्श प्राप्त करती हैं, पर अपने त्वगिन्द्रिय की प्रसन्नता के लिये नहीं। वे चलती-फिरती हैं, सोती-जागती हैं, सब व्यवहार-बर्ताव करती हैं, पर अपने लिये नहीं; वे जीवनधारण भी अपने लिये नहीं करतीं। वे यह सब कुछ करती हैं— केवल और केवल अपने परम प्रियतम श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये !
वस्तुतः वे सदा-सर्वदा यही अनुभव करती हैं कि उनके समस्त मन-इन्द्रिय, उनके समस्त अंग-अवयव, उनके चित्त-बु़द्धि, उनका चेतन-आत्मा - सभी को श्रीकृष्ण अपने नित्य-निरन्तर सुख-संस्पर्श-दान में ही संलग्न बनाये रखते हैं, अन्य किसी का भी वे कभी संकल्प भी करें, इसके लिये तनिक-सा अवकाश नहीं देते या क्षणभर के लिये किसी अंग की वैसी स्व-संस्पर्श रहित स्थिति ही नहीं होने देते। श्रीराधाजी अपनी परिस्थिति बतलाती हैं—
स्त्रवननि भरि निज गिरा मनोहर मधु मुरली की तान।
सुनन न दै कछु और सबद, नित बहरे कीन्हें कान।।
लिपटो रहै सदा तन सौं मम रह्यौ न कछु बिबधान।
अन्य परस की सुधि न रही कछु, भयौ चित्त इकतान।।
अँखियन की पुतरिन में मेरे निसिदिन रह्यौ समाय।
देखन दै न और कछु कबहूँ एकै रूप रमाय।।
रसना बनी नित्य नव रसिका चाखत चारु प्रसाद।
मिटे सकल परलोक-लोक के खाटे मीठे स्वाद।।
अंग सुगंध नासिका राची मिटी सकल मधु बास।
भई प्रमत्त, गई अग-जग की सकल सुबास-कुबास।।
मन में भरि दीन्हीं मोहन निज मुनि-मोहनि मुसकान।
चित्त कर्यौ चिंतन रत चिन्मय चारु चरन छबिमान।।
दई डुबाय बुद्धि रस-सागर उछरन की नहिं बात।
आय मिल्यौ चेतन मैं मोहन भयौ एक संघात।।
अतएव श्रीराधा के श्रृंगार-रस में तथा जागतिक गार में नामों की समता के अतिरिक्त किसी भी अंश में, कहीं भी, कुछ भी तुलना ही नहीं है। तत्त्वतः और स्वरूपतः दोनों परस्पर सर्वथा विपरीत, भिन्न तथा विषम वस्तु हैं। लौकिक श्रंगार होता है— काममूलक, काम की प्रेरणा से निर्मित! इन्द्रिय-तृप्ति की स्थूल या सूक्ष्म कामना-वासना ही उसमें प्रधान हेतु होती है।
साधारण नायक-नायिका के श्रृंगार-रस की तो बात ही नहीं करनी चाहिये, उच्च-से-उच्चतर पूर्णता को पहुँचा हुआ दाम्पत्य-प्रेम का श्रंगार भी अहंकारमूलक सुतरां कामप्रेरित होता है; वह स्वार्थपरक होता है, उसमें निज सुख की कामना रहती है। इसी से इसमें और उसमें उतना ही अन्तर है, जितना प्रकाश और अन्धकार में होता है।
यह विशुद्ध प्रेम है और वह काम है। मनुष्य के आँख न होने पर तो वह केवल दृष्टि शक्ति से ही हीन— अन्धा होता है, परंतु काम तो सारे विवेक को ही नष्ट कर देता है। इसी से कहा गया है— ‘काम अन्धतम, प्रेम निर्मल भास्कर’ काम अन्धतम है, प्रेम निर्मल सूर्य है। इस काम तथा प्रेम के भेद को भगवान् श्रीराधा-माधव की कृपा से उनके बिरले प्रेमी भक्त वैसे ही जानते हैं, जैसे अनुभवी रत्न-व्यापारी— जौहरी काँच तथा असली हीरे को पहचानते और उनका मूल्य जानते हैं। काम या काममूलक श्रंगार इतनी भयानक वस्तु हे कि वह केवल कल्याण-साधन से ही नहीं गिराता, सर्वनाश कर डालता है।
काम की दृष्टि रहती है अधः इन्द्रियों की तृप्ति की ओर, एवं प्रेम का लक्ष्य रहता है ऊर्ध्वतम सर्वानन्द स्वरूप भगवान् के आनन्दविधान की ओर। काम से अधःपात होता है, प्रेम से दिव्यातिदिव्य भगवद्रस का दुर्लभ आस्वादन प्राप्त होता है। काम के प्रभाव से विद्वान् की विद्वता, बुद्धिमान् की बुद्धि, त्यागी का त्याग, संयमी का संयम, तपस्वी की तपस्या, साधु की साधुता, विरक्त का वैराग्य, धर्मात्मा का धर्म और ज्ञानी का ज्ञान-बात-की-बात में नष्ट हो जाता है। इसी से बड़े-बड़े विद्वान् भी ‘राधाप्रेम’ के नाम पर, उज्ज्वल श्रंगाररस के नाम पर पापाचार में प्रवृत्त हो जाते हैं और अपनी विद्वत्ता का दुरुपयोग करके लोगों में पाप का प्रसार करने लगते हैं।
अतएव जहाँ भी लौकिक दृष्टि है, भौतिक अंग-प्रत्यंगों की स्मृति है, उनके सुख-साधन की कल्पना है, इन्द्रिय-भोगों में सुख की भावना है; वहाँ इस दिव्य श्रृंगाररस के अनुशीलन का तनिक भी अधिकार नहीं है। रति, प्रणय, स्नेह, मान, राग, अनुराग और भाव के उच्च स्तरों पर पहुँची हुई श्रीगोपांगनाओं में सर्वोच्च ‘महाभाव’ रूपा श्रीराधा की काम-जगत् से वैसे ही सम्बन्ध-लेश-कल्पना नहीं है, जैसे सूर्य के प्रचण्ड प्रकाश में अन्धकार की कल्पना नहीं है।
इस रहस्य तत्त्व को भलीभाँति समझकर इसी पवित्र भाव से जो इस राधा-माधाव के श्रंगार का अनुशीलन करते हैं, वे ही वास्तव में योग्य अधिकार का उपयोग करते हैं। नहीं तो यह निश्चित समझना चाहिये कि जो लोग काममूलक वृत्ति को रखते हुए इस श्रंगाररस के क्षेत्र में प्रवेश करेंगे, उनकी वही दुर्दशा होगी, जो मधुरता के लोभ से हलाहल विषपान करने वाले की या शीतलता प्राप्त करने की अभिलाषा से प्रचण्ड अग्निकुण्ड में उतरने वाले की होती है।
यह स्मरण रखना चाहिये कि योग्य अधिकारी ही इस श्रीराधारानी के दिव्य श्रृंगार-राज्य में प्रवेश कर सकते हैं। इस दिव्य प्रेम-जगत् में प्रवेश करते ही एक ऐसे अनिर्वचनीय परम दुर्लभ विलक्षण दिव्य चिदानन्दमय रस की उपलब्धि होती है कि उससे समस्त विषयव्यामोह तो सदा के लिये मिट ही जाता है, दुर्लभ-से-दुर्लभ दिव्य देवभोगों के आनन्द से ही नहीं, परम तथा चरम वान्छनीय ब्रह्मानन्द से भी अरुचि हो जाती है।
श्रीराधा-माधव ही उसके सर्वस्व होकर उसमें बस जाते हैं और उसको अपना स्वेच्छा-संचालित लीलायन्त्र बनाकर धन्य कर देते हैं।
ऊपर जो कुछ लिखा गया है वह मेरी धृष्टतामात्र ही है। वास्तव में मेरे-जैसे नगण्य जन्तु का श्रीराधा के सम्बन्ध में कुछ भी लिखने जाना अपनी अज्ञता का परिचय देने के साथ श्रीराधारानी का भी एक प्रकार से तिरस्कार करना ही है। पर इस तिरस्कार के लिये तो वे स्वयं ही दायी हैं; क्योंकि उन्हीं की अन्तःप्रेरणा से यह लिखा गया है।
-- भाई जी श्री हनुमानप्रसाद पौद्दार जी ।