श्रीमनमहाप्रभु जी का अपने लीला के छह वर्ष श्रीराधा महाविरह दिव्यनुमाद अवस्था में गम्भीरा में वास करते थे
वास्तव में गम्भीरा का एक अर्थ
" श्रीराधा प्रेम कोटी कोटी समुद्र से भी अधिक गम्भीर हैं उस प्रेम समुद्र को गम्भीर होना अनिवार्य हैं अगर वह सागर पूर्णत बह जाता तो श्रीकृष्ण की सम्पूर्ण माया की चतुरता सृष्टि का विधान किसी युग में फिर प्रकट नहीं होता
वास्तव में इस प्रेम समुद्र की अत्यधिक चंचलता केवल रात्रि में श्रीकृष्ण पूर्ण चंद्रमाँ के समक्ष अधिक प्रकट होती थी ( जैसे पूर्ण चंद्र में समुद्र में ज्वार भाटा आता हैं)
तभी रात्रि में श्रीराधा भाव श्रीमनमहाप्रभु जी का विरह रात्रि में अत्यधिक बड़ जाता था
श्री सार्वभौम बोले " ओह ! मोर प्रभु "सिर पर वज्र टूट पड़ता, पुत्र मर जाता, तो सहन हो सकता था परंतु आपका वियोग सहन नहीं हो सकता। आप स्वतंत्र ईश्वर हो आप चले तो जाओगे ही परंतु प्रभु! कुछ दिन और यहाँ रहिए जिससे मैं आपके चरण दर्शन कर सकूँ।।
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