Saturday, 21 October 2017

रस के ही अन्न वारि मृदु , भोग पद

रस के ही अन्न वारि मृदु व्यंजन
नाना पाक जुगल अंग सरसत , दरस सुबचन आघ्रान आलिंगन ।१।
रूप माधुर्य विशाल कोट गिरि ,षटरस केलि पगे परसत घन ।
खूटत भोग न भोगी अघावत ,तृषा क्षुधा बाढ़त त्यौं भोजन ।२।
छप्पन भोग छत्तीस सुव्यंजन ,अन्नकूट रस के नव छिन छिन ।
कृष्णचन्द्र राधा चरणदासि बल , रस जूठन पोषत तन मन दिन ।३।
साभार श्री हरि दास कृपा-२. से

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