Wednesday, 20 September 2017

श्रीकृष्ण शोभा-वर्णन (तुलसीदासजी)

*कृष्ण-शोभा-वर्णन*
*(तुलसीदास जी)*

राग बिलावल
(21)
देखु सखी हरि बदन इंदु पर।
चिक्कन कुटिल अलक-अवली-छबि
कहि न जाइ सोभा अनूप बर ।। 1 ।।
बाल भुअंगिनि निकर मनहुँ मिलि
रहीं घेरि रस जानि सुधाकर।
तजि न सकहिं, नहिं करहिं पान, कहु,
कारन कौन बिचारि डरहिं डर ।। 2 ।।
अरून बनज लोचन कपोल सुभ,
स्त्रुति मंडित कुंडल अति सुंदर।
मनहुँ सिंधु निज सुतहि मनावन
पठए जुगुल बसीठ बारिचर ।। 3 ।।
नंदनँदन मुख की सुंदरता
कहि न सकत स्त्रुति सेष उमाबर।
तुलसिदास त्रैलोक्यबिमोहन
रूप कपट नर त्रिबिध सूल हर ।। 4 ।।
(प्रियतम श्रीकृष्ण के मुखचन्द्र को देखकर एक सखी कहती है) सखी! (प्रियतम) श्यामसुन्दर के मुखचन्द्र पर चिकनी और घुँघराली अलकावली की छवि तो देख। उसकी ऐसी अनुपम और श्रेष्ठ शोभा है कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता ।। 1 ।। ऐसा लगता है कि मानो बाल नागिनियों के दल ने चन्द्रमा को अमृतरूप जानकर घेर लिया है। पर वे न तो उसे छोड़ ही सकती हैं और न पान ही करती हैं। सोचकर बताओ तो इसका क्या कारण है, वे किस डर से डरी हुई हैं ।। 2 ।। श्यामसुन्दर के लाल कमल के सदृश नेत्र हैं, मनोहर कपोल हैं, कान अत्यन्त सुन्दर कुण्डलों से सुशोभित हैं। ऐसा लगता है मानो समुद्र ने अपने पुत्र (चन्द्रमा) को मनाने के लिये (मकराकृति दो कुण्डलों के रूप में) दो जलचरों (मगरों) को दूत बनाकर भेजा है।। 3।। नन्दनन्दन के श्रीमुख की सुन्दरता का वर्णन वेद, शेष जी और पार्वती पति शंकर जी भी नहीं कर सकते। तुलसीदास जी कहते हैं कि लीला से मनुष्य बने हुए एवं तीनों लोको को विमोहित करने वाले श्रीकृष्ण का यह रूप तीनों (दैहिक, दैविक, भौतिक) तापों को हर लेता है।। 4 ।।

शोभा-वर्णन
राग बिलावल
(22)
आजु उनीदे आए मुरारी।
आलसवंत सुभग लोचन सखि!
छिन मूदत छिन देत उघारी ।। 1 ।।
मनहुँ इंदु पर खंजरीट द्वै
कछुक अरुन बिधि रचे सँवारी।
कुटिल अलक जनु मार फंद कर,
गहे सजग है रह्यो सँभारी ।। 2 ।।
मनहुँ उड़न चाहत अति चंचल
पलक पंख छिन देत पसारी।
नासिक कीर, बचन पिक, सुनि करि,
संगति मनु गुनि रहत बिचारी ।। 3।।
रुचिर कपोल, चारु कुंडल बर,
भ्रुकुटि सरासन की अनुहारी।
परम चपल तेहि त्रास मनहुँ खग
प्रगटत दुरत न मानत हारी ।। 4 ।।
जदुपति मुख छबि कलप कोटि लगि
कहि न जाइ जाकें मुख चारी।
तुलसिदास जेहि निरखि ग्वालिनी
भजीं तात पति तनय बिसारी ।। 5 ।।

(दूसरी सखी बोली-) सखि! आज श्यामसुन्दर यहाँ नींद के बीच से ही उठकर आ गये हैं, तभी तो वे अपने अलसाते हुए सुन्दर नेखों को क्षण-क्षण में बंद कर रहे और खोल रहे हैं ।। 1।। (ऐसा लगता है) मानो चन्द्रमण्डल पर ब्रह्मा जी ने कुछ ललाई लिये हुए दो खंजनों को सजाकर बना (बैठा) दिया है। (गालों तक नाचती हुई) घुँघराली अलकें तो मानो कामदेव के फंदे हैं, जिन्हें सावधानी से हाथ में लेकर वह सँभाले हुए है (और जिनके द्वारा उन खंजनों को वह फँसाना चाहता है। इसी डर से) वे खंजन मानो उड़ना चाहते हैं, अत्यन्त चंचल होकर क्षण-क्षण में पलकरूपी पंखो को फैला देते हैं, पर नासिका रूपी शुक (को देखकर) तथा वचन रूपी कोयल की (मधुर) वाणी को सुनकर, उन (सब) का साथ देखकर (अपने को अकेला न समझकर) (उड़ते नहीं) रह जाते हैं ।। 2-3 ।। मनोहर कपोल हैं, (कानों में) सुन्दर श्रेष्ठ कुण्डल हैं, धनुष के समान टेढ़ी भौंहें है। परम चपल (नेत्ररूपी खंजन) पक्षी मानो उसी के (भौंहरूपी धनुष के) भय से कभी प्रकट हो जाते हैं कभी छिप जाते हैं परंतु हार नही मान रहे हैं ।। 4 ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि यदुपति श्रीकृष्ण की मोहिनी मुख–छवि का वर्णन चार मुखवाले बहा्जी भी (करना चाहे तो) करोड़ों कल्पों में भी नहीं कर सकते, जिस (छवि) को देखकर गोपियों ने अपने पिता, पति तथा पुत्रों तक को भुला दिया और (इनके समीप) भाग आयीं ।। 5 ।।

शोभा वर्णन
(राग बिलावल)
23
गोपाल गोकुल बल्लवी प्रिय गोप गोसुत बल्लभं।
चरनारबिंदमहं भजे भजनी सुर मुनि दुर्लभं ।। 1 ।।
घनश्याम काम अनेक छबि, लोकभिराम मनोहरं।
किंजल्क बसन, किसोर मूरति भूरि गुन करुनाकरं ।। 2 ।।
सिर केकि पच्छ बिलोल कुंडल, अरून बनरूह लोचनं।
गुंजावतंस बिचित्र सब अँग धातु, भव भय मोचनं ।। 3 ।।
कच कुटिल, सुंदर तिलक भ्रू, राका मयंक समाननं।
अपहरन तुलसीदास त्रास बिहार बृंदाकाननं ।। 4 ।।
(गोपांगनाओं की इस मिलन लीला के प्रेम का दिग्दर्शन कराकर अब श्रीतुलसीदास जी विरहलीला के प्रेम का स्वरूप बतलाना चाहते हैं। श्यामसुन्दर मथुरा पधार गये हैं। एक सखी प्रियतक श्रीकृष्ण की रूप माधुरी को मानो अपने सामने देखती हुई कहती है कि बस मैं तो उन सुर-मुनि-दुर्लभ श्रीकृष्ण-चरण-कमल का ही सेवन करूँगी) श्रीकृष्ण गौओं के रक्षक हैं, हम गोकुल की ग्वालिनियों के प्रियतम हैं, गोपों तथा गो–सुतों (बछड़ो) के प्राणप्रिय हैं, भजन करने योग्य तो (एकमात्र) उनके चरणारविन्द ही हैं, यद्यपि वे (भक्ति से शून्य देव-मुनियों के लिये भी दुर्लभ हैं, मैं तो बस, उन चरण–कमलों का ही भजन करती हूँ। (मेरे सर्वस्व तो वे ही हैं) ।। 1।। (अहा!) उन नव-नीरद श्यामसुन्द की अनेक कामदेवों के समान शोभा है, वे त्रिभुवन-मोहन हैं, सबके मनों को हरण करने वाले हैं, कमल के केसर–सदृश पीत पट धारण किये हुए हैं, किशोर मूर्ति हैं, अनन्त गुणों से युक्त हैं, करूणा की खान है। ।। 2 ।। उनके सिर पर मयूरपिच्छ शोभित है, कानों में कुण्डल नाच रहे हैं, अरूण कमल के सदृश नेत्र हैं, गुंजाओं की माला है, समस्त अडों को धातुओं से चित्रित कर रखा है, वे संसार-भय से मुक्त करने वाले हैं ।। 3 ।। उनकी घुँघराली टेढ़ी केशराशि है, सुन्दर तिलक है, मनोहर भौंहें हैं, पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख है। तुलसीदास जी कहते हैं, वे वृन्दावन विहारी श्यामसुन्दर ही हमारी त्रास हरण करने में समर्थ हैं ।। 4 ।।

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