Saturday, 26 August 2017

ललिता अष्टकं

🌿🌹 *श्री ललिता अष्टकम*🌹🌿
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1) 🌷जो श्री श्री राधा-मुकुंद के चरणों के श्रम बिंदु(पसीने) की भी आराधना करती है,जो श्री श्री राधा श्याम सुंदर के साथ मित्रता वश निर्भीक होकर बात करती है,ऐसी अनंत गुणशालीनि श्री ललिता जी की मैं वंदना करता हूँ।

2)🌻 जिनके मुख की सुंदरता पूर्ण चन्द्र की अमृतमयी किरणों को तुच्छ करती है,जिनके नेत्र किसी सजग हरिणी के नेत्रों के जैसे हैं,जो श्री राधा  को श्रृंगार करवाने में परम दक्ष हैं,ऐसे अनंत गुणशालीनि श्री ललिता जी की मैं वंदना करता हूं।

3) ☘जो मोरपंख के रंग के रेशमी परिधान(वस्त्र)धारण करती हैं, जिनका वर्ण गोरोचन को मात देता है,ऐसे अनंत गुणशालीनि श्री ललिता जी की मैं वंदना करता हूँ।

4) 🍂जो रसवर्धन के लिए श्री राधा को वाम्य नायिका की शिक्षा देती है,कठिन शब्दों में डांटकर रोकती है कि -"राधे इस धूर्त श्याम सुंदर पर विश्वास न करना,बिल्कुल मत आना इसकी बातों में",ऐसी अनंत गुणशालिनी श्री ललिता जी की मैं वंदना करता हूं।

5)🌸 जिन्हें भनक भी लग जाए अगर कि श्याम सुंदर राधारानी के साथ कुछ छल कर रहे,तो उनके नेत्र क्रोधसे लाल हो जाते हैं और जो श्याम सुंदर की भर्त्सना कर देती है,ऐसी अनन्त गुनशालिनी श्री ललिता जी की मैं वंदना करता हूं।

6)🥀 जो मैया यशोदा की अत्यंत स्नेह पात्री है,जो सभी सखियों की गुरु है,जिनका श्री श्री राधा कृष्ण में समान प्रेम है,ऐसी अनंत गुनशालिनी श्री ललिता जी की मैं वंदना करता हूं।

7)🍃 जो सभी व्रज ललनाओं को विनम्रता पूर्वक आग्रह कर उन्हें श्रीराधारानी सेवा में नियुक्त करती है,ऐसी अनंत गुनशालिनी श्री ललिता जी की मैं वंदना करता हूँ।

8)🌹 जो सदैव श्री श्री राधा माधव के मिलनोत्सव का विधान करती है,तथा उनके विलास से अत्यंत प्रसन्न होती है,जो राधारानी की सखियों में प्रधान है,ऐसी अनंत गुनशालिनी श्री ललिता जी की मैं वंदना करता हूँ

9)🍀 जो भी इस अष्टक को प्रेम पूर्वक पढ़ेगा,उसपर कीर्ति कुमारी श्री राधा अत्यंत प्रसन्न होगी और उसे अपने निज दासियों में गिनेगी।

जय ललिते🙌🏼🙇🏻🌹
आज यह भाव विनय करें

श्री ललिता सखी

श्री ललिता सखी जी  1⃣
🔅⚜🔅⚜🔅⚜🔅

श्री ललिता जी अनुराधा नामसे विख्यात है।

🏤गाँव =ऊँचा गाँव

💕नित्य उम्र =14-2-13 (14वर्ष 2 माह 13 दिन)ये श्री राधा रानी जी से 27 दिन बड़ी है)

👰🏼वस्त्र= मयूर पंख रंग के
💕स्वभाव =वामा प्रखरा
🙇सेवा= ताम्बुल पान सेवा
🙌🏻मंजरी =श्री रूप मंजरी
🙏🏻 चैतन्य लीला में ये श्री स्वरूप दामोदर जी है।

🌹माता पिता =शारदा ,विशोक
पति नाम=भैरव(ये गोवर्धन गोप के सखा है)

🌺अंग कान्ति= गौर चना

🏡कुंज = अनंग सुखदा कुंज (विधुत वर्ण रंग का)

🌅 जन्म दिन=श्रावण शुक्ल छठ

🌹 भाव =विशुद्ध खंडिता🚦 (जब नायक कृष्ण देर से आते है उसे देख कर नायिका आये हुए नायक का तिरस्कार करती है और मान करके बैठ जाती है🚪 )

🌹स्वाभाव = बामा प्रखरा (बामा मतलब मान करने बाली ,प्रखरा मतलब जो प्रखर  कठोर वाक्यो से  नायक की बांचना करती है)

🎸Fav वाद्य यन्त्र = बीणा

🎼Fav राग =राग भैरव्

💟विशेष गुण = पुष्पो के अलंकार, बर्तालाप करने , जादूगरी ,पहेलिया बनाने में  प्रिया प्रियतम के मिलान करने अति निपुण है।

  प्रार्थना🙏🏼

"श्री ललिता जी आप राधा रानी की सबसे प्रिय सखी हो आप प्रिया प्रियतम की मिलाने 💞में निपुण हो आप सभी सखियो की गुरु है। आप प्रिया जी की ताम्बूल सेवा☘ करने में अति निपुण है ,आपको मेरा प्रणाम🙏🏼"

⚜💠⚜💠⚜💠⚜

Tuesday, 22 August 2017

अद्भुत रस निधान श्रीराधा पद चिन्ह

*अद्भुत रस निधान श्रीराधा पद चिन्ह*

श्रीराधाष्टमी आनेवाली है।सभी भक्तों से अनुरोध है कि जब ब्रज आए तो श्री वृन्दावन-बरसाना आदि भूमि के कण कण से प्रार्थना करे कि

"हे श्रीवृन्दावन🙇🏻 आपका कण कण श्रीराधारानी के पद चिन्हों से अंकित है।

श्रीराधा चरणों से टपकते मधु से आपका प्रत्येक अणु सिक्त है

परन्तु फिर भी ये बात मेरे अनुभव में नही आती

हे रजरानी! कृपा करो।मुझे ये अनुभूति प्रदान करो

जिस रज में श्याम सुंदर लोटते हैं,अपने अंगों पर मलते हैं,जो रज श्याम सुंदर के गाढ़ श्रीराधा-अनुराग की साक्षी है,वही रजरानी मुझपर कृपा करे

जो लोग निरन्तर व्रज-रज की सेवा कर रहे,ये झाडूदार नही,महान ऋषि हैं जिन्होंने इस सेवा के लिए विशेष जन्म लिया है।
हे रजरानी! मुझे ये प्रेम दृष्टि प्रदान करो

मुझे अपनी पूर्ण शरणागति प्रदान करो

हे रजरानी! कृपा करो🙌🏼🙇🏻"

महाजन गाते हैं-
*धुला नय धुला नय,गोपिपदरेणु।*
*शेई धुला मेखेछिलो,नंदसुत कानू*

अर्थात-

"ये धूल नही धूल नही,गोपियों की पद रेणु है।इसी पदरेणु को नंदसुत कन्हैया ने अपने अंगों पर मला था"

🙇🏻🏞🌹🙇🏻🏞🙏🏼🌹🙇🏻🏞🙏🏼

राधिकाष्टकं (रूप गोस्वामी जु)

*श्रीराधिकाष्टकम्*


*दिशी दिशी रचयन्तीं संरन्नेत्रलक्ष्मी-*
      *विलासित-खुरलीभि:खञ्जरीटस्य खेलाम्।*अ
*ह्रदयमधुपमल्लीं बल्लवाधीशसूनो-*
      *राखिल-गुण-गभीरां राधिकामर्चयामि*।।

में उन श्रीमती राधिका जी की पूजा करता हूं कि, जो प्रत्येक दिशा में विचरण करने वाले अपने नेत्रों की शोभारूप विलासके अभ्यासों के द्वारा खञ्जनपक्षी के खेल की रचना करती हैं, अर्थात राधिका जिस दिशाकी ओर दृष्टि पात करती हैं, वह दिशा माने खञ्जनमाला से व्याप्त हो जाती है।तात्पर्य-जिनके दोनों नेत्र खञ्जन के समान हैं एवं जो नन्दनन्दन श्रीकृष्ण के हृदय रूप भ्रमर के लिए, मल्लिका के पुष्प के समान है। भ्रमर के लिए मल्लिका जिस प्रकार आनन्ददायिनी है, उसी प्रकार राधिका श्रीकृष्ण हृदय के लिए आनन्ददायिनी हैं तथा जो समस्त गुणों के कारण अतिशय गम्भीर हैं।।

*पितुरिह वृषभानोरन्ववाय-प्रशास्तिं*
         *जगति किल समस्ते सुष्ठु विस्तारयन्तीम्*।
*व्रजनृपतिकूमारं खेलयन्तीं सखीभि:*
          *सुलभिणि निजकुण्डे राधिकामर्चयामि*।।

*शरदुपचित-राका-कौमुदीनाथ कीर्ति-*
       *प्रकर-दमनदीक्षा-दक्षिण-स्मरेवक्त्राम्*।
*नटदधभिदापाड्गोतानड़ग- रड़गा*
       *कलित-रूचि-तलड़गां राधिकामर्चयामि*

में उन श्रीमती राधिका जी की पूजा करता हूं जो अपने पिता श्रीवृषभानु जी के वंशकी प्रशंसा को इस समस्त जगत् में भली प्रकार विस्तारित करती रहती हैं एवं जो पुष्पों के पराग से सुगंधित अपने कुण्ड मे, ललिता आदि अपनी सखियों के सहित, व्रजराजकुमार श्रीकृष्ण को खेल कराती रहती है, अर्थात सखियों सहित श्रीकृष्ण को जल से सिचाती रहती हैं।।

श्रीराधिका के अनुपम मुखमंडल का माधुर्य को आधारता का वर्णन करते हुए कहते हैं कि

में, उन श्रीमती राधिका की पूजा करता हूं जिनका मन्दहास्युक्त मुखारविंद, शरद् ऋतु में वृद्धि को प्राप्त चंद्रमा की कीर्ति के समूह को दयन करने की दीक्षा में निपुण है, अर्थात शरद् ऋतु के पूर्ण चंद्रमा से भी परम मनोहर हे एवं श्रीकृष्ण चञ्चल कटाक्षपात से जिनका अनडंग रडंग परमवृद्धि का प्राप्त हो रहा हे तथा जिनके श्री अंग मे शोभा की तरंग नृत्य करती रहती है।।

*विघटित-मद-पूर्णत् क॓क-पिच्छ-प्रशस्तिम्*।
*मथुरिपु-मुख-बिम्बोद् गीर्ण-ताम्बुल-राग*
      *स्कुरदमल-कषोलां राधिकामर्चयामि*।।

*अमलिन-ललितान्तःस्नेह-सिक्तान्तरंग*-
     *मखिल-विधविशाखा-सख्य-विख्यात-शीलाम्*।
*स्फुरदधभिदर्घ-प्रेम-माणिक्य-पेटीं*
      *धृत-मधुर-विनोदां राधिकामर्चयामि*।।
*अतुल-महसि वृन्दारण्यराज्येऽभिषिक्तां*
       *निख्ल-समय-भर्तुः कार्तिकस्याधिदेवीम्*।
*अपरिमित-मुकुन्द-प्रयेसी-वृन्दमूख्यां*
       *जगदघहर-कीर्तिं राधिकामर्चयामि*।।

मे, उन श्रीमती राधाकाजी की पूजा करता हूं जो अनेक प्रकार के पुष्पों से सुशोभित, अपने केशपाश के बलपूर्वक आक्रमण के द्वारा, मदमाते मयूर के पंखो की प्रशंसा को तिरस्कृत करने वाली हैं एवं जिनके निर्मल कपोल मुखबिबं से निकलते हुए तांबूल रस की ललिमा से स्फूर्ति पा रहे है।

श्रीराधिका अपनी सखियों की एवं अपने नायक की मुख्य प्रेम पात्री है, इस भाव को वर्णन करते हुए कहते हैं कि-

      में उन श्रीमती राधिका जी की पूजा करता हूं जिनके अन्तःकरण ललिता सखी के निर्मल आन्तरिक स्नेह से सित्त (सरस) रहता है एवं जिनका शीलस्वभाव विशाखा सखी के समस्त प्रकार की मित्रता से विख्यात हे एवं जो श्रीकृष्ण के दमदमाते हुए प्रेमरूपी अमूल्य रत्नों की मंजूषास्वरूप है तथा जो मधुरविनोद को धारण करती रहती हैं।।

    मे उन श्रीमती राधीका जी की पूजा करता हूं जो अतूलनीय प्रभाव वाले श्रीवृंदावन के राज्यपद पर अभिषिक्त हैं, (ब्रह्मामोहन लीला में एक कोने में ही करोडों ब्रह्माण्डों को दृष्टिगोचर करा देने से एवं वैकुण्ठ से भी अतिशय श्रेष्ठ मधुरामण्डल के भी उतमप्रदेश होने के कारण, वृंदावन का प्रभाव अतुलनीय हैं।यह वृंदावन सर्वदा वसन्त ऋतु से सेवित होने के कारण एवं आनंआनंदमय श्रीकृष्ण द्वारा

*हरिपदनख-कोटी पुष्पों पर्यन्त-सीमा*-
      *तटमपि कलयन्तीं प्राणकोटरेभीष्टम्*।
*प्रमुदित-मदिराक्षी-वृन्दग्ध्य-दीक्षा*-
       *गुरूमति-गुरूकीर्ति राधिकामर्चयामि*।।
*अमल-कनक-पट्टोद्घष्ट-काश्मीर-गौरीं*
        *मधुरिम-लहरीभि:संपरीतां किशोरीम्*।
*हरिभुज-परिरब्धां लब्ध-रोमाञ्च-पालिं*
         *स्फुरदरूण-दुकूलां राधिकामर्चयामि।।*

अधिष्ठित होने के कारण, सदा उत्सवरूप बना रहता है) अतः इस प्रकार के वृंदावन के प्राज्य राज्य के आधिपत्य का उत्कर्ष, पराकाष्ठा को प्राप्त कर रहा है (श्री राधिका के राज्यभिषेक की कथा श्रील रूप गोस्वामी कृत ``श्रीदानकेलिकोमुदी'' नामक ग्रंथ मे निबद्ध है) एवं जो राधिका, सभी मासों की अधिअधिपति कार्तिक मास की अधिष्ठात्री देवी है जो श्रीकृष्ण के पद्दमहिषी  हैं तथा  जिनकी कीर्ति समस्त जगत के पापों को हरने वाली है।

    श्रीश्रीमती राधिका के लोकानतर धर्म को दिखाते हुए कहते हैं कि मे उन श्रीमती राधिका जी की पूजा करता हूं जो श्रीकृष्ण के पादपद्मो के सूक्षम नखाग्र-भाग को, अपने करोडों प्राणों की अपेक्षा  अधिक प्रियतम जानती है, अर्थात जो कृष्ण प्राण है एवं उनको भिन्न प्रकार की चातुरी की शिक्षा देने में, अतः जिनकी महती कीर्ति विद्यमान है।

श्रीराधिका जी के माधुर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं कि-मे उन श्रीमती राधिका जी की पूजा करता हूं जो निर्मल निकष पाषाण पर पीसे हुए कुंकुम के समान गौरवर्ण वाली है एवं जो माधुर्य के तरंगों से परिव्याप्त है, नित्य किशोरी हैं तथा जो श्रीकृष्ण की भुजाओं से आलिंगन होते ही, पुलकायलीको प्राप्त हो जाती है और उनकी ओढनी चमकीले अरूणवर्ण वाली है।

*तदमल-मधुरिम्णां काममाधारूपं*
      *परिपठति वरिष्ठं सुष्ठु राधाष्टकं यः*।
*अहिम-किरण-पुत्री-कूल-कल्याण-चंद्र*
     *स्फुटमखिलमभीष्टं तस्य तुष्टस्तनोति*
      

        *(श्रीमद् रूप गोस्वामी विचरितं)*

जो व्यक्ती, श्रीमती राधिका जी के स्वरूप-गुण-विभूती आदि माधुर्य के यथेष्ट अधारस्वरूप, इस उत्कृष्ट `राधिकाष्टक' का भली प्रकार प्रेमपूर्वक पाठ करता है, उस व्यक्ति के समस्त अभीष्ट को, सूर्य पुत्री यमुना के कमनीय-कलू के कल्याण चन्द्र श्रीकृष्णचंद्र प्रसन्न होकर, स्पष्ट ही विस्तारित करते रहे हैं।इस अष्टकमें `मालिनी' नामक छन्दे हैं

Saturday, 12 August 2017

श्री प्रिया जी की नामावली , ध्रुवदास जु

श्री प्रिया जी की नामावली
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श्री राधा
नित्य किशोरी
वृन्दावन विहारिणी
बनराज रानी निकुंजेश्वरी
रूप रँगीली
छबीली
रसीली
रस नागरी
लाडिली
प्यारी सुकुंवारी
मोहनी
लाल मुखजोहनी
मोहन मन मोहनी
रति विलास विनोदनी
लाल लाड़ लडावानी
रंग केलि बढ़ावनी
सुरत चंदन चर्चिनी
कोटि दामिनी दमकनी
लाल पर लटकनी
नवल नासा चटकनी
रहसि पुंजे वृन्दावन प्रकासिनी
रँग विहार विलासिनी
सखी सुखनिवासिनी
सौंदर्य रासिनी
दुलहिनी
मृदु हांसिनी
प्रीतम नैन निवासिनी
नित्यानन्द दारसिनी
उरजनी पिय परसिनी
अधर सुधारस बरसिनी
प्राणनि रस सरसनी
रँग विहारनि
नेह निहारनि
पिय हित सिंगार सिंगरिनी
प्यारे सों प्यारे को ले उर धारनि
मोहन मैन विथा निवारिनी
जानि प्रवीण उदार संभारनी
अनुराग सिन्धे
स्यामा
बामा
भामा
भाम
भांवती
जुवतिन जूथ तिलका
वृन्दावन चंद्र चंद्रिका
हांस परिहांस रसिका
नवल रंगीनी
अलकावली छवि फंदिनी
मोहन मुसकिनी मंदिनी
सहज आंनद कंदिनी
नेह कुरंगिनी
नैनविसाला
महामधुर रस कंदिनी
चंचल चित्त आकर्षिणी
मदन मान खंडिनी
प्रेम रंग रंगिनी
बंक कटाक्षनी सकल विद्या विच्छिनी
कुँवर अंक विराजनी
प्यार पट निवाजनी
सुरत समर दल साजिनी
मृगनैनी
पिकबैनी
सलज्ज अंचला
सहज चंचला
कोक कलानि कुशला
हाव भाव चपला
चातुर्य चतुरा
माधुर्य मधुरा
बिनु भूषण भूषिता
अवधि सौन्दर्यता
प्राण वल्लभा
रसिक रवनी
कामिनी
भामिनी
हंस कलि गामिनी
घनश्याम अभिरामिनी
चंद विपिनी
मदन दवनी
रसिक रवनी
केलि कमनी
चित्तहरनी
लाल उर पर चरणधरनी
छवि कंज वदनी
रसिक आंनदिनी
रूप मंजरी
सौभाग्य रसभरी
सर्वांग सुंदरी
गौरांगी रतिरस रँगी
विचित्र कोक कला अंगी
छवि चंद वदनी
रसिक लाल बंदनी
रसिक रंग रंगिनी
सखिनु सभामंडिनी
आनंद कंदिनी
चतुर अरु भोरी
सकल सुख रासि सदने
दोहा - प्रेम सिंधु के रत्न ये , अद्भुत कुँवरि के नाम ।
जाकी रसना रटे 'ध्रुव' सो पावे विश्राम ।।
ललित नाम नामावली , जाके उर झलकन्त ।
ताके हिय में बसे रहै , स्यामा स्यामल कन्त ।।

श्री किशोरी जी के द्वादश अलंकार

🌿🌺श्री किशोरी जी के द्वादश अलंकार🌺🌿

नूपुर, बिछिया, किंकिनी, नीबी-बंधन सोय।
कर मुँदरी, कंकन, बलय, बाजूबंद, भुज दोय।।
बाजूबंद भुज दोय, कंठस्त्री दुलरी राजै।
नासा बेसरि, सुभग स्रवन ताटंक विराजै।।
भगवत बैना भाल, माँग मोती गो ऊपर।
द्वादस भूसन अंग नित्य प्यारी पग नूपुर।।

भावार्थ :-

निम्नलिखित द्वादश अलंकार प्रियतमा के श्रीअंगों में नित्य शोभा बढ़ाते रहते हैं -
१- (पैरों में) पायजेब, २- बिछुआ, ३-(कमर में) करधनी-जिसने नीबी को बाँध रखा है, ४- दोनों हाथों में अँगूठी, ५- कंगन, ६- चूड़ी, ७- दोनों भुजाओं में बाजूबंद, ८- (गले में) दुलरी कंठश्री, ९- नाक में सुन्दर बेसर, १०- कानों में जगर-मगर करते ताटंक(कुंडल), ११- भाल पर बैना और १२- उसके ऊपर माँग में मोतियों की माला।।

(...श्री भगवत रसिक जी की वाणीं)
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Wednesday, 2 August 2017

कनुप्रिया

🌿🌺 - कनुप्रिया - 🌺🌿

धर्मवीर भारती की कृति 'कनुप्रिया', कनु अर्थात कृष्ण की प्रिया राधा की अनुभूतियों की गाथा है। इस रचना में नारी के मन की संवेदनाओं और प्यार के नैसर्गिक सौन्दर्य का अप्रतिम चित्रण है।
वह सुख जो हमें बहुत प्रिय हो, जब हमारे सामने प्रस्तुत हो जाए तो कभी कभी उसे ग्रहण करने में मन घबराता है न ? नारी का ही नहीं, मानव मन का नैसर्गिक स्वभाव है यह।
"सुख के क्षण में घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी" - इस सूक्ष्म अनुभूति को कितनी कोमलता के साथ शब्दों में पिरोया गया है -
💝💝💝💝💝💝💝💝💝💝💝💝💝💝
यह जो मैं कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में
बिलकुल जड़ और निस्पन्द हो जाती हूँ
इस का मर्म तुम समझते क्यों नहीं मेरे साँवरे!
तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्यमयी लीला की एकान्त.. संगिनी मैं
इन क्षणों में अकस्मात
तुम से पृथक नहीं हो जाती हूँ मेरे प्राण,
तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज
सिर्फ जिस्म की नहीं होती
मन की भी होती है

एक मधुर भय
एक अनजाना संशय,
एक आग्रह भरा गोपन,
एक निर्व्याख्या वेदना, उदासी,
जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी अभिभूत कर लेती है।

भय, संशय, गोपन, उदासी
ये सभी ढीठ, चंचल, सरचढ़ी सहेलियों की तरह मुझे घेर लेती हैं, और मैं कितना चाह कर भी तुम्हारे पास ठीक उसी समय नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर कर तुम बुलाते हो!

उस दिन तुम उस बौर लदे आम की झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशी से टेरते रहे

ढलते सूरज की उदास काँपती किरणें तुम्हारे माथे मे मोरपंखों से बेबस विदा माँगने लगीं -

मैं नहीं आयी

गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से मुँह उठाये देखती रहीं और फिर धीरे-धीरे नन्दगाँव की पगडण्डी पर बिना तुम्हारे अपने-आप मुड़ गयीं -

मैं नहीं आयी

यमुना के घाट पर
मछुओं ने अपनी नावें बाँध दीं
और कन्धों पर पतवारें रख चले गये -

मैं नहीं आयी

तुम ने वंशी होठों से हटा ली थी और उदास, मौन, तुम आम्र-वृक्ष की जड़ों से टिक कर बैठ गये थे और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे

मैं नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी

तुम अन्त में उठे
एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुम ने तोड़ा
और धीरे-धीरे चल दिये

अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे

पर जानते हो तुम्हारे अनजान में ही तुम्हारी उँगलियाँ क्या कर रही थीं!

वे उस आम्र मंजरी को चूर-चूर कर श्यामल वनघासों में बिछी उस माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखेर रही थीं .....

यह तुमने क्या किया प्रिय!

क्या अपने अनजाने में ही उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी उजली पवित्र माँग भर रहे थे साँवरे..?

पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर
इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त हो कर माथे पर पल्ला डाल कर झुक कर तुम्हारी चरणधूलि ले कर तुम्हें प्रणाम करने -

नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी!

पर मेरे प्राण यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही बावली लड़की हूँ न जो - कदम्ब के नीचे बैठ कर जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँव को महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हो

तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हूँ
अपनी दोनों बाँहों में अपने धुटने कस मुँह फेर कर निश्चल बैठ जाती हूँ

पर शाम को जब घर आती हूँ तो निभॄत एकान्त में दीपक के मन्द आलोक में
अपनी उन्हीं चरणों को
अपलक निहारती हूँ
बावली-सी उनहें बार-बार प्यार करती हूँ
जल्दी-जल्दी में अधबनी महावर की रेखाओं को
चारों ओर देख कर धीमे-से
चूम लेती हूँ।

रात गहरा आयी है
और तुम चले गये हो

और मैं कितनी देर तक बाँह से उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ
जिस पर टिक कर तुम मेरी प्रतीक्षा करते हो

और मैं लौट रही हूँ,

हताश, और निष्फल

और ये आम के बौर के कण-कण
मेरे पाँव मे बुरी तरह साल रहे हैं।
पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे..?
कि देर ही में सही
पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी

और माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखरे
ये मंजरी-कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो
इसीलिए न कि इतना लम्बा रास्ता कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है

और काँटों और काँकरियों से
मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गये हैं!

यह कैसे बताऊँ तुम्हें
कि चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी
जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं

तुम्हारी मर्म-पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती

तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती

तो मेरे साँवरे -

लाज मन की भी होती है

एक अज्ञात भय,
अपरिचित संशय,
आग्रह भरा गोपन,
और सुख के क्षण
में भी घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी -

फिर भी उसे चीर कर
देर में ही आऊँगी प्राण,
तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी
चन्दन-बाहों में भर कर बेसुध नहीं कर दोगे.....???

(...प्रिया प्रियतम सरकार की जय !)
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Tuesday, 1 August 2017

कितने गुणा अधिक प्रिय है श्यामा जु को श्यामसुन्दर, रूप पाद

श्रीमती राधिका को कृष्ण कितने गुणा अधिक प्रिय है (बैदिक गणना के अनुसार

श्रील रूप गोस्वामी जी वर्णन करते है पराध्द  संख्या को पराध्द संख्या से गुणा करने उतने गुणा अपने प्राणों से अधिक प्रिय है

बैदिक गणना के अनुसार

1 को एक
10 को दस
100 को सौ
1000 हज़ार
10000 सहस्त्र
100000 लक्ष (लाख)
1000000 नियुक्त (दस लाख)
10000000 कोटि (एक करोड़)
100000000 अबुर्द (दस करोड़)
1000000000 वृन्द(एक अरब)
10000000000 खर्व (दस अरब)
100000000000 निखर्व (एक खरव)
1000000000000 संख(10 खरव)
10000000000000 पद्म
100000000000000 सागर
1000000000000000 अन्त्य
10000000000000000 मध्य
100000000000000000 पराध्द कहते है

अर्थात
100000000000000000×
100000000000000000
जो आएगा उसके भी कई गुणा अधिक प्रिय है श्यामसुंदर ।

शेयर न करने को कहा जी यह