Monday, 10 February 2020

पंच पदी दीक्षा

*पंचपदी  दीक्षा अर्थात् मंत्रराज की गुरु मुख से प्राप्ति।।*
*पंचदिक्षा के पांच रूप हैं*               
*ताप: पुण्ड्रं तथा नाम मंत्र यागश्च पंचम्।।*

*शंख चक्र की छाप का अधिकार ताप है।*
*ऊर्ध्वपुंड्र तिलक की आज्ञा होना ।*
*सद्गुरु द्वारा नाम परिवर्तन कर भगवदीय नाम के साथ शरण या दास लगाकर प्रदान करना।*
*सद्गुरु के द्वारा रहस्यमयी गुप्त पंचपदी मंत्रराज का उपदेश होना ।*
*और परम्परा में आचार्य द्वारा नियम प्राप्त करना ही याग है। यह सब मिलाकर वैष्णव दिक्षा ही पंचदिक्षा है।।*

Tuesday, 21 January 2020

वचनामृत सौरभ

*॥ श्री हरिदास ॥*

*वचनामृत सौरभ*

१. संसार के भयंकर त्रिविध तापानल से दग्ध प्राणियों पर कृपा करने के लिये श्री हरि स्वयं सन्त, गुरु, आचार्य रूप से प्रकट होकर भक्ति रस तत्त्व का उपदेश कर उनका कल्याण करते हैं।

२. प्रभु कृपा का मुख्य फल है--प्रेमी रसिक सदगुरु-सन्त का दर्शन, उपदेश, संग प्राप्त होना, और श्रद्धा-विश्वास सहित उनका अनुसरण करना।

३. ऐसे रसिक अनुरागी महानुभाव सन्तप्रदान अपना लें,मन्त्र दीक्षा देकर अपना स्वरूप प्रदान करें ,यह प्रभु की पूर्ण कृपा का स्वरूप हैं।

४. जिन परम भाग्यशाली पर ऐसी कृपा होती है, उसका हृदय सर्वथा चाह शून्य होकर अपने श्री हरि की लाड़-चाव-सेवा से पूर्ण हो जाता है।

५. जिनको ऐसा स्वरूप प्राप्त हुआ, उनकी बाहरी क्रिया-व्यवहार सब भगवत् धर्म-सिद्धान्त मय होते हैं, माने अपने गुरु-उपदिष्ट परम्परानुसार पाठ, पूजा,सेवा, स्वाध्याय-पठन, सत्संग, दर्शन और भजन-साधन आदि में अति उल्लास पूर्वक प्रेम होना।

६. इनमें भी अपने सेवामय निज स्वरूप को जानकर नाम जप और मानसी सेवा में तत्पर रहना सब साधन-सिद्धान्तों का सार है।

७. स्तोत्र, वाणी पाठ में अनन्त पुण्यफल एवं भक्ति, प्रेम, रस देने की सामर्थ्य है। इनका दृढ़ता से सदा सेवन करना चाहिये।

८. रसिक महानुभावों की वाणियाँ तो परात्पर परेश प्रभु श्री नित्य विहारी- जुगल के महामधुर रससार नित्य विहार रस से परिपूर्ण हैं। उनका सेवन करने में ऐसा लगता है, मानो उसी दुर्लभ रस में ही अवगाहन हो रहा है।

९. रस ग्रन्थों में इन्हीं दुर्लभ वस्तुओं का संग्रह है। सदा नित्य नियम से इनका सेवन कर अपने को कृतकृत्य करना चाहिये।

- *श्री स्वामी-रसिक-चरणरज किंकर*

*बाबा अलबेली शरण जु*

Wednesday, 15 January 2020

रागानुगा भक्ति

रागानुगा भक्ति रागात्मिका भक्ति की अनुगा है । रागात्मिका भक्ति है रागमयी ।

राग का अर्थ है इष्टवस्तु की सेवा के लिए गाढ़ तृष्णा - इतनी गाढ़ तृष्णा कि उसके बिना रहा ही न जाये , उसके लिए प्राण छटपटाये और उसके कारण इष्ट में परमाविष्टता हो जाये । आविष्टा का अर्थ है तन्मयता ।
आविष्ट अवस्था बाह्य स्थिति में नहीँ होती । मनुष्य जिस वस्तु में आविष्ट होता है , उससे उसका तादात्म्य हो जाता है और वह उसका जैसा ही व्यवहार करने लग जाता है । भुताविष्ट व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को भूल कर भुत जैसा व्यवहार करने लगता है ।
ऐसा ही इष्ट की आविष्टता में होता है , व्यक्ति अपने वर्तमान स्वरूप और बाह्य जगत को भूलकर इष्ट जैसा व्यवहार करने लगता है , उसकी अनुपस्थिति में उपस्थित जान सेवा में तन्मय रहता है ।

राग की तृष्णा साधारण या प्राकृत तृष्णा से पूरी तरह भिन्न है । साधारण तृष्णा अपने सुख के लिए होती है । राग की तृष्णा भगवान के सुख और उनकी सेवा के लिए । वह ही प्रेममय तृष्णा होती है ।

साधारण तृष्णा विषय वस्तु के प्राप्त होने से मिट जाती है । जल की प्यास जल पीने पर शांत होती है , पर इष्ट की सेवा की तृष्णा इष्ट या उनकी सेवा पाकर शांत नहीँ होती उसकी और वृद्धि होती है ।

रागात्मिका भक्ति है परम् स्वतन्त्रा और अन्य निरपेक्षा । स्वरूप शक्ति होते हुए भी यह शक्तिमान श्री कृष्ण की भी अपेक्षा नहीँ रखती । श्री कृष्ण स्वयं इसकी अपेक्षा रखते है , वें स्वयं ही इसके अधीन है । प्रभाव में यह श्री कृष्ण से भी अधिक गरीयसी है - "भक्तिवशः पुरुषः" । भक्ति रेव भूयसी ।

रागात्मिका भक्ति के आश्रय है नन्द, यशोदा , राधा, ललितादि जो श्री कृष्ण की स्वरूप शक्ति के मुर्त विग्रह, अनादि सिद्ध , अन्य निरपेक्ष ब्रजपरिकर के रूप में श्री कृष्ण के साथ उनके लीला स्थान ब्रजधाम में नित्य विराजमान है और जिनका ब्रजधाम से सजातीय सम्बन्ध है । वैसे ब्रज में नित्यसिद्ध और साधन सिद्ध जीव भी रहते है , पर वें रागात्मिका भक्ति के मुख्य आश्रय नहीँ है , क्योंकि वे न तो स्वरूप शक्ति के प्रकाश है , न अन्य निरपेक्ष हैं । वें जीव शक्ति के प्रकाश हैं और ब्रज में रहकर श्री कृष्ण की सेवा करने के साधन की और स्वरूप शक्ति की कृपा की अपेक्षा रखते हैं ।
रागानुगा -
रागनुगा भक्ति रागात्मिका की अनुगता है । इसका अर्थ कि रागानुगा भक्ति के आश्रयोँ के आनुगत्य में उनकी सहायता के रूप में की जाती है ।

जो जिस रागनुगा भक्ति के आश्रय है , वह उसी भाव की रागानुगा भक्ति के आश्रय के आनुगत्य में सेवा करता है ।

जीव का अधिकार रागानुगा भक्ति में ही है , रागात्मिका में नहीँ , क्योंकि वें वे स्वरूप से श्रीकृष्ण के नित्यदास हैं और दास की सेवा आनुगत्यमयी होती है ।

श्री कृष्ण की ओर से देखा जाए तो भी जीवों का रागात्मिका सेवा में कोई स्थान नहीँ है , क्योंकि श्रीकृष्ण हैं पूर्ण निरपेक्ष । वें स्वरूप शक्ति (श्रीराधा) के अतिरिक्त और किसी की अपेक्षा नहीँ रखते । स्वरूप शक्ति की कृपा से ही जीव कृष्णसेवा का अधिकार प्राप्त करता है ।

रूप गोस्वामी जी ने कहा है जिन साधकों में श्रीकृष्ण सेवा का लोभ होता है, वे ही रागानुगा साधन भक्ति के अधिकारी है । लोभ उत्प्नन होता है केवल-केवल कृपा से या भक्त कृपा से । जिस भाग्यवान व्यक्ति पर कृष्ण या उनके भक्त कृपा करते हैं उसमें ब्रज परिकरोँ की रागात्मिका सेवा की कथा सुनते सुनते उस प्रकार की कृष्णसेवा का लोभ हो जाता है ।

लोभ कर्तव्य-अकर्तव्य , शास्त्र के विधि और निषेध , योग्यता और अयोग्यता का विचार नहीँ करता । वह युक्ति या शास्त्र की नहीँ स्वपथ भक्त की और मूल अपने ही अन्तस् की सुनता है । -- जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

Monday, 23 September 2019

भ्रमर गीत

भ्रमर गीत

ये भ्रमर गीत बड़ा ही मार्मिक है। जब उद्धव जी महाराज भगवान श्री कृष्ण का सन्देश लेकर ब्रज आये हैं तब गोपियों ने एक भ्रमर(भौंरा) के बहाने कृष्ण को उलाहना दिया है ।

मधुप कितवबन्धो मा स्पृशङ्घ्रिं सपत्न्याः 
कुचविलुलितमाला कुङ्कुमश्मश्रुभिर्नः । 
वहतु मधुपतिस्तन् मानिनीनां प्रसादं 
यदुसदसि विडम्ब्यं यस्य दूतस्त्वमीदृक् ॥ १२ ॥

गोपी ने कहा—रे मधुप! तू कपटी का सखा है; इसलिये तू भी कपटी है। तू हमारे पैरों को मत छू। झूठे प्रणाम करके हमसे अनुनय-विनय मत कर। हम देख रही हैं कि श्रीकृष्ण की जो वनमाला हमारी सौतों के वक्षःस्थल के स्पर्श से मसली हुई है, उसका पीला-पीला कुंकुम तेरी मूछों पर भी लगा हुआ है। तू स्वयं भी तो किसी कुसुम से प्रेम नहीं करता, यहाँ—से-वहाँ उड़ा करता है। जैसे तेरे स्वामी, वैसा ही तू! मधुपति श्रीकृष्ण मथुरा की मानिनी नायिकाओं को मनाया करें, उनका वह कुंकुमरूप कृपा-प्रसाद, जो यदुवंशियों की सभा में उपहास करने योग्य है, अपने ही पास रखे। उसे तेरे द्वारा यहाँ भेजने की क्या आवश्यकता है ?

 

सकृदधरसुधां स्वां मोहिनीं पाययित्वा
सुमनस इव सद्यस्तत्यजेऽस्मान् भवादृक् । 
परिचरति कथं तत्पादपद्मं नु पद्मा 
ह्यपि बत हृतचेता ह्युत्तमःश्लोकजल्पैः ॥ १३ ॥

जैसा तू काला है, वैसे ही वे भी हैं। तू भी पुष्पों का रस लेकर उड़ जाता है, वैसे ही वे भी निकले। उन्होंने हमें केवल एक बार—हाँ, ऐसा ही लगता है—केवल एक बार अपनी तनिक-सी मोहिनी और परम मादक अधरसुधा पिलायी थी और फिर हम भोली-भाली गोपियों को छोड़कर वे यहाँ से चले गये। पता नहीं; सुकुमारी लक्ष्मी उनके चरणकमलों की सेवा कैसे करती रहती हैं! अवश्य ही वे छैल-छबीले श्रीकृष्ण की चिकनी-चुपड़ी बातों में आ गयी होंगी। चितचोर ने उनका भी चित्त चुरा लिया होगा ।

 

किमिह बहु षडङ्घ्रे गायसि त्वं यदूनाम् 
अधिपतिमगृहाणां अग्रतो नः पुराणम् । 
विजयसखसखीनां गीयतां तत्प्रसङ्गः 
क्षपितकुचरुजस्ते कल्पयन्तीष्टमिष्टाः ॥ १४ ॥

अरे भ्रमर! हम वनवासिनी हैं। हमारे तो घर-द्वार भी नहीं है। तू हम लोगों के सामने यदुवंशशिरोमणि श्रीकृष्ण का बहुत-सा गुणगान क्यों कर रहा है ? यह सब भला हम लोगों को मनाने के लिये ही तो ? परन्तु नहीं-नहीं, वे हमारे लिये कोई नये नहीं हैं। हमारे लिये जाने-पहिचाने, बिलकुल पुराने हैं। तेरी चापलूसी हमारे पास नहीं चलेगी। तू जा, यहाँ से चला जा और जिनके साथ सदा विजय रहती है, उन श्रीकृष्ण की मधुरपुरवासिनी सखियों के सामने जाकर उनका गुणगान कर। वे नयी हैं, उनकी लीलाएँ कम जानती हैं और इस समय वे उनकी प्यारी हैं; उनके ह्रदय की पीड़ा उन्होंने मिटा दी है। वे तेरी प्रार्थना स्वीकार करेंगी, तेरी चापलूसी से प्रसन्न होकर तुझे मुँहमाँगा वस्तु देंगी ।

 

दिवि भुवि च रसायां काः स्त्रियस्तद्दुरापाः 
कपटरुचिरहासभ्रूविजृम्भस्य याः स्युः । 
चरणरज उपास्ते यस्य भूतिर्वयं का 
अपि च कृपणपक्षे ह्युत्तमश्लोकशब्दः ॥ १५ ॥

भौंरे! वे हमारे लिये छटपटा रहे हैं, ऐसा तू क्यों कहता है ? उनकी कपटभरी मनोहर मुसकान और भौंहों के इशारे से जो वश में न हो जायँ, उनके पास दौड़ी न आवें—ऐसी कौन-सी स्त्रियाँ हैं ? अरे अनजान! स्वर्ग में, पातल में और पृथ्वी में ऐसी एक भी स्त्री नहीं है। औरों की तो बात ही क्या, स्वयं लक्ष्मीजी भी उनके चरणरज की सेवा किया करती हैं।

फिर हम श्रीकृष्ण के लिये किस गिनती में हैं ? परन्तु तू उनके पास जाकर कहना कि ‘तुम्हारा नाम तो ‘उत्तमश्लोक’ है, अच्छे-अच्छे लोग तुम्हारी कीर्ति का गान करते हैं; परन्तु इसकी सार्थकता तो इसी में है कि तुम दीनों पर दया करो। नहीं तो कृष्ण! तुम्हारा ‘उत्तमश्लोक’ नाम झूठा पड़ जाता है ।

 

विसृज शिरसि पादं वेद्म्यहं चातुकारैः 
अनुनयविदुषस्तेऽभ्येत्य दौत्यैर्मुकुन्दात् । 
स्वकृत इह विषृष्टापत्यपत्यन्यलोका 
व्यसृजदकृतचेताः किं नु सन्धेयमस्मिन् ॥ १६ ॥

अरे मधुकर! देख, तू मेरे पैर पर सिर मत टेक। मैं जानती हूँ कि तू अनुनय-विनय करने में, क्षमा-याचना करने में बड़ा निपुण है। मालूम होता है तू श्रीकृष्ण से ही यही सीखकर आया है कि रूठे हुए को मनाने के लिये दूत को—सन्देश—वाहक को कितनी चाटुकारिता करनी चाहिये। परन्तु तू समझ ले कि यहाँ तेरी दाल नहीं गलने की। देख, हमने श्रीकृष्ण के लिये ही अपने आत्मीय दूसरे लोगों को छोड़ दिया। परन्तु उनमें तनिक भी कृतज्ञता नहीं। वे ऐसे निर्मोही निकले कि हमें छोड़कर चलते बने! अब तू ही बता, ऐसे अकृतज्ञ के साथ हम क्या सन्धि करें ? क्या तू अब भी कहता है कि उन पर विश्वास करना चाहिये ?

 

 

मृगयुरिव कपीन्द्रं विव्यधे लुब्धधर्मा 
स्त्रियमकृत विरूपां स्त्रीजितः कामयानाम् । 
बलिमपि बलिमत्त्वावेष्टयद् ध्वाङ्क्षवद् यः 
तदलमसितसख्यैर्दुस्त्यजस्तत्कथार्थः ॥ १७ ॥

ऐ रे मधुप! जब वे राम बने थे, तब उन्होंने कपिराज बालि को व्याध के समान छिपकर बड़ी निर्दयता से मारा था। बेचारी सूपर्णखा कामवश उनके पास आयी थी, परन्तु उन्होंने अपनी स्त्री के वश होकर उस बेचारी के नाक-कान काट लिये और इस प्रकार उसे कुरूप कर दिया। ब्राम्हण के घर वामन के रूप में जन्म लेकर उन्होंने क्या किया ? बलि ने तो उनकी पूजा की, उनकी मुँहमाँगी वस्तु दी और उन्होंने उसकी पूजा ग्रहण करके भी उसे वरुणापाश में बाँधकर पातल में डाल दिया। ठीक वैसे ही, जैसे कौआ बलि खाकर भी बलि देने वाले को अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर घेर लेता है और परेशान करता है। अच्छा, तो अब जाने दे; हमें श्रीकृष्ण से क्या, किसी भी काली वस्तु के साथ मित्रता से कोई प्रयोजन नहीं है। परन्तु यदि तू यह कहे कि ‘जब ऐसा है तब तुम लोग उनकी चर्चा क्यों करती हो ?’ तो भ्रमर! हम सच कहती हैं, एक बार जिसे उसका चस्का लग जाता है, वह उसे छोड़ नहीं सकता। ऐसी दशा में हम चाहने पर भी उनकी चर्चा छोड़ नहीं सकतीं ।

 

 

यदनुचरितलीलाकर्णपीयूषविप्रुट् 
सकृददनविधूतद्वन्द्वधर्मा विनष्टाः । 
सपदि गृहकुटुम्बं दीनमुत्सृज्य दीना 
बहव इह विहङ्गा भिक्षुचर्यां चरन्ति त त ॥ १८ ॥

श्रीकृष्ण की लीलारूप कर्णामृत के एक कण का भी जो रसास्वादन कर लेता है, उसके राग-द्वेष, सुख-दुःख आदि द्वन्द छूट जाते हैं। यहाँ तक कि बहुत-से लोग तो अपनी दुःखमय—दुःख से सनी हुई घर-गृहस्थी छोड़कर अकिंचन हो जाते हैं, अपने पास कुछ भी संग्रह-परिग्रह नहीं रखते और पक्षियों की तरह चुन-चुनकर—भीख माँगकर अपना पेट भरते हैं, दीन-दुनिया से जाते रहते हैं। फिर भी श्रीकृष्ण की लीला कथा छोड़ नहीं पाते। वास्तव में उसका रस, उसका चस्का ऐसा ही है। यदि दशा हमारी हो रही है ।

 

 

वयमृतमिव जिह्मव्याहृतं श्रद्दधानाः 
कुलिकरुतमिवाज्ञाः कृष्णवध्वो हरिण्यः । 
ददृशुरसकृदेतत् तन्नखस्पर्शतीव्र 
स्मररुज उपमन्त्रिन् भण्यतामन्यवार्ता ॥ १९ ॥

जैसे कृष्णसार मृग की पत्नी भोली-भाली हरिनियाँ व्याध के सुमधुर गान का विश्वास कर लेती हैं और उसके जाल में फँसकर मारी जाती हैं, वैसे ही हम भोली-भाली गोपियाँ भी उस छलिया कृष्ण की कपटभरी मीठी-मीठी बातों में आकर उन्हें सत्य के समान मान बैठीं और उनके नखस्पर्श का बार-बार अनुभव करती रहीं। इसलिये श्रीकृष्ण के दूत भौंरें! अब इस विषय में तू और कुछ मत कह। तुझे कहना ही हो तो कोई दूसरी बात कह ।

 

प्रियसख पुनरागाः प्रेयसा प्रेषितः किं 
वरय किमनुरुन्धे माननीयोऽसि मेऽङ्ग । 
नयसि कथमिहास्मान् दुस्त्यजद्वन्द्वपार्श्वं 
सततमुरसि सौम्य श्रीर्वधूः साकमास्ते ॥ २० ॥

हमारे प्रियतम के प्यारे सखा! जान पड़ता है तुम एक बार उधर जाकर फिर लौट आये हो। अवश्य ही हमारे प्रियतम ने मनाने के लिये तुम्हें भेजा होगा। प्रिय भ्रमर! तूम सब प्रकार से हमारे माननीय हो। कहो, तुम्हारी क्या इच्छा है ? हमसे जो चाहो सो माँग लो। अच्छा, तुम सच बताओ, क्या हमें वहाँ ले चलना चाहते हो ? अजी, उनके पास जाकर लौटना बड़ा कठिन है। हम तो उनके पास जा चुकी हैं। परन्तु तुम हमें वहाँ ले जाकर करोगे क्या ? प्यारे भ्रमर! उनके साथ—उनके वक्षःस्थल पर तो उनकी प्यारी पत्नी सदा रहती हैं न ? तब वहाँ हमारा निर्वाह कैसे होगा ।

 

अपि बत मधुपुर्यामार्यपुत्रोऽधुनाऽऽस्ते
स्मरति स पितृगेहान्सौम्य बन्धूंश्च गोपान् । 
क्वचिदपि स कथा नः किङ्करीणां गृणीते 
भुजमगुरुसुगन्धं मूर्ध्न्यधास्यत्कदा नु ॥ २१ ॥

अच्छा, हमारे प्रियतम के प्यारे दूत मधुकर! हमें यह बतलाओ कि आर्यपुत्र भगवान श्रीकृष्ण गुरुकुल से लौटकर मधुपुरी में अब सुख से तो हैं न ? क्या वे कभी नन्दबाबा, यशोदारानी, यहाँ के घर, सगे-सम्बन्धी और ग्वालबालों की भी याद करते हैं ? और क्या हम दासियों की भी कोई बात कभी चलाते हैं ? प्यारे भ्रमर! हमें यह भी बतलाओ कि कभी वे अपनी अगर के समय दिव्य सुगन्ध से युक्त भुजा हमारे सिरों पर रखेंगे ? क्या हमारे जीवन में कभी ऐसा शुभ अवसर भी आयेगा ?

Friday, 9 August 2019

श्री गुरू कृपा ; प्यारी जू

-------------------श्री गुरू कृपा-----------------
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श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
( श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है,तत्व इसीलिए क्योकि गुरू किसी देह,समाज अथवा पंथ का नाम नही अतऐव सम्पूर्ण गुरू तत्व को ही मेरा प्रणाम है।)

परा जड: चेतन: , परा विद्यऽविद्ययै।
मति-गति मन: परै , भवादिरोग: निर्बाध्याम:।।
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(जड एवं चेतन से परे,विद्या और अविद्या से परे,मन एवं बुद्धि की गती से परे एवं भव आदि रोगो की बाधा से भी जो रहित है,ऐसे श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है)

सत्यं मूलं आन्नदित: , निजतानिजं दूरस्थितै।
नेम: तत्सुखम् एक: ,अन्य विधिनियम निषेध्याम:।।
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(जो वास्तविक आनंद के मूल एवं निज निजता से भी दर रहते है ,जिनका एकमात्र नियम केवल उनका(आराध्य)का सुख ही है एवं इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी विधि अथवा नियम जिनके लिए निषेध है,ऐसे श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है)

ताम् गूढ प्रति वक्तव्य: , दिशा निर्दिष्ट शरणागतै।
लक्ष्यप्राप्तं सेतू सर्वहित: , न-निरर्थक: कर्माभ्याम: ।।
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(जिनका प्रत्येक कथन अत्यधिक गहन होता है,इसी गहनता से जो शरण आए हुए की दिशा निर्देश करते है,जो सबके हित रुपी लक्ष्य को पूरा करने के सेतू है एवं जिनका कोई भी कार्य निर्रथक नही होता,ऐसे श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है)

देहि संदर्शनम् सौभाग्ययै,अंगसंगै तद् किं करै?
खलु मध्यम: च सज्जनै,समदृष्टि-सर्व कल्याणार्थाम:।।
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(जिनका केवल सुन्दर दर्शन ही सौभाग्य प्रदान करता है,तब यदि इनका अंग संग हमे प्राप्त हो जाए तो क्या ही होगा?
जिनकी दृष्टि दुष्ट,मध्यम एवं सज्जन सभी का समान रूप से कल्याण करती है,ऐसे श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है)

तेहि पदानुरागी अनुरागित: , प्राप्तुं यदि सुभागितै।
निश्चयं दृष्टि कृपाहित: , इतिहि "प्यारी" शुभाच्छयाम:।।
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(ऐसे गुरू चरण अनुरागियो का अनुराग भी यदि मुझे मिले तो मेरा सौभाग्य हो ओर मेरा दृढ विश्वास है की निश्चित रूप से ऐसा ही होगा,"प्यारी" की इसी शुभ इच्छा को लेकर श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है।)

श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(ऐसे श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है)

श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(ऐसे श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है)

तृषा वर्धनी - प्यारी जू

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----------------" तृषा वर्धनी "-----------------
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सर्व व्यापक: मम् अदृश्य लोचनै:,दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
(चारो ओर बसे हुए किंतु मेरे ही नेत्रो से ओझल हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
चक्षु देहिताम् त्वं समर्थ दृश्यतै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे ।।१।।
(जो आपको देखने मे समर्थ हो सके ऐसे नेत्र दीजिए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
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संत्प्त: ह्रदय: अभाव दर्शनै , दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
(आपके दर्शनो के अभाव मे जली विरहाग्नि से ये हृदय जला जा रहा है अत: हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
ददाति च दृग: दर्शनार्थ: हृदयै,यथादृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।२।।
(और आपके दर्शनो के लिए मेरे इस हृदय को नेत्र प्रदान कीजिए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
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धावति यत्र-तत्र कुत्र अस्माकमै:,दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
( आप मुझसे यहां वहां क्यू और कहां भाग रहे है हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
सम गोपाङ्गनां नयन अवस्थितै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।३।।
(जिस प्रकार आप गोपियो के नयनो मे बस गए थे की उन्हे कुछ ओर दीखता ही नही था उसी प्रकार मेरे नयनो मे बस जाओ और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
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न केवलं जीवित: मरणासन्न समयै, दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
(केवल जीवित रहते हुए ही नही बल्कि मेरी मृत्यु के अंतिम श्वास लेते समय भी आप हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
चिर स्थित: जन्म-मरण परै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।४।।
इस जन्म और मृत्यु से परे भी नित्य मुझमे स्थिर रह जाओ और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
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आदि मम् च त्वं अन्त: , दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
( मेरा आरंभ और अंत आप ही तो है अत: हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
अभिन्नताऽर्हि अभिन्न प्रदर्शयतै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।५।।
(हम यदि अभिन्न है तो उस अभिन्नता को दिखाइए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
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विलग न तद् किं अन्तरै , दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
( यदि हम दोनो जरा भी अलग नही है तब मुझे ये कैसी दूरी लगती है तो हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
देहि प्राण मन: त्वं समाहितै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।६।।
इस शरीर प्राण एवं मन सबको आप अपने मे समा लिजिए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
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उपरि उद्धृत: अंकित: सम्मति:,दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
( ऊपर जो कुछ भी कहा गया है उस पर आप अपनी सहमति दे दीजिए और हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
"प्यारी" याचनां सम्पूर्ण तव पदै:,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।७।।
(आपकी "प्यारी" की यह विनति आपके चरणो मे पूर्ण हो जाए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)

Monday, 10 June 2019

हित-युगल

*हित-युगल*

उज्‍जवल- रस की उपासना के लिये युगल का होना आवश्‍यक है। भरत ने प्रमदा युक्त पुरुष को ही श्रृंगार कहा है- ‘पुरुष:प्रमदा-युक्त: श्रृंगार इति संज्ञित: श्रृगांर रस की उपासना अपने देश में प्राचीन काल से चली आ रही है। पुराणों में तथा अन्‍यत्र दृष्टि में इसकी प्राचीनता सिद्ध हो चुकी है।

सोलहवीं शती में उत्‍पन्न होने वाले आचार्यों और महात्‍माओं ने इसको बहुत पल्लिवत किया और उसी समय इस उपासना की परिपाटियाँ बनीं। सभी रस-उपासकों के उपास्‍य राधाकृष्‍णात्‍मक युगल हैं, किन्‍तु राधाकृष्‍ण के स्‍वरूप और परस्‍पर संबध को लेकर इन लोगों में काफी मतभेद है। यह मतभेद मूलत: प्रत्‍येक आचार्य की भिन्न प्रेम-रस संबधिनी दृष्टि के ऊपर आधारित है।

राधावल्‍लभीय प्रेम-सिद्धान्‍त में युगल की स्थिति का संक्षिप्‍त परिचय पीछे दिया जा चुका है। वे प्रेम के दो खिलौने हैं जो प्रेम का ही खेल खेल रहे हैं- ‘प्रेम के खिलौना दोऊ खेलत हैं प्रेम खेल’। परात्‍पर ‘हित’ और प्रेम और सौन्‍दर्य दो रूपों में नित्‍य व्‍यक्त रहकर अनाद्यनंत प्रेम-क्रीडा में प्रवृत्त है। प्रेम और रूप ही हित के सहज युगल हैं। इन दोनों में भोक्ता-भोग्‍य का संबंध है, प्रेम भोक्ता है और रूप भोग्‍य। प्रेम की मूर्ति श्‍याम सुन्‍दर हैं और सौन्‍दर्य की श्री राधा। जिस प्रकार प्रेम और सौन्‍दर्य अपनी उज्‍वलतम परिणति में एक-दूसरे से पृथक् नहीं किये जा सकते, उसी प्रकार राधा-श्‍याम सुंदर को परस्‍पर एक क्षण का वियोग भी असह्य है।

प्रेम सदैव प्रेम-तृषा से पूर्ण होता है। प्रेम को प्रेम की प्‍यास सदैव लगी होती है। श्‍याम-श्‍यामा में प्रेम की स्थिति समान है, अत: इनकी प्रेम-तृषा भी समान है। ‘यह दोनों परस्‍पर अंशों पर भुजा रखे हुए एक-दूसरे के मुख- चन्‍द्र को देखते रहते हैं और इनके नेत्र वृषित चकोरों की भाँति मत्त बनकर रस-पान करते रहते हैं।’

अंसनि पर भुज दिये विलोकत इंदु-वदन विवि ओर।
करत पान रस मत्त परस्‍पर लोचन तृषित चकोर।।

इसका अर्थ यह हुआ कि यह दोनों ही चन्‍द्र हैं और दोनों तृषित चकोर हैं। दोनों ओर चन्‍द्र ही चकोर बन कर चन्‍द्र का रसपान कर रहा है। जल ही प्‍यास बनकर जल को पी रहा है। प्‍यासे पानी की प्‍यास को बुझाने का कोई उपाय नहीं रह जाता। पानी को यदि प्‍यास लग आवे तो निकट-स्थित कुए से भी क्‍या लाभ ? ‘पानी लागै प्‍यास जो कहा करैं ढिंग कूप ?’ प्रेम की तृषा रूप-जल से सिंचित होकर शान्‍त होती है, किन्‍तु यदि रूप-दर्शन से वह बढ़ने लगे, तो उसकी निवृत्ति का कोई साधन नहीं रहता। राधा-श्‍याम-सुन्‍दर की प्रेमतृषा परस्‍पर रूप-दर्शन से अनंत और नित्‍य वर्धमान बनी हुई है।
इस समान और अंनत प्रेम-तृषा का प्रभाव युगल के स्‍वरूप संबंध और क्रीडा पर अद्भुत पड़ा है। इसी के कारण उनके तन- मन घुल-मिलकर एक बने हैं और इसी के विवश बनकर वे प्रेम का एक रस उपभोग करने में समर्थ बने हैं। उनकी रसिकता का आधार भी यह तृषा ही है। रस-तृषित ही रसिक कहलाता है। रस-तृषा जितनी तीव्र होती है, रसिकता भी उतनी ही परिष्‍कृत और गंभीर होती है। श्‍याम-श्‍यामा-श्‍यामा, इसीलिए, रसिक शिरोम‍णि हैं कि वे एक-दूसरे के प्रेम-रूप का आस्‍वाद अनंत तृषा लेकर करते हैं। युगल के ऊपर उनकी अनंत प्रेम-तृषा के प्रभाव का वर्णन करते हुए श्री ध्रुवदास कहते हैं, ‘यह दोनों एक मन और एक हृदय हैं और इनको एक ही बात सुहाती है। इनकी एक ही वय है, एक से भूषण-पट हैं और इनके अंगों में एक-सी छबीली छटा सुशोभित है। यह दोनों रूप के रंग में ही भीग रहे हैं और दोनों ने अपने नेत्रों को परस्‍पर चकोर बना रखा है। यह दानों एक-दूसरे के संग को इस प्रकार चाहते हैं जैसे मीन जल के संग को चाहता है। इनको देखकर सखी गण परस्‍पर यह कहती रहती हैं कि रसिक-शिरोमणि युगल के बिना और कौन प्रेम-व्रत का एक रस निर्वाह कर सकता है।

हितध्रुव रसिक सिरोमणि युगल बिनु,
आली, को निबाहै एक रस प्रेम-पान कौं।

वृन्‍दावन-रस के रसिकों ने इसीलिए इनको सदैव साथ ही चित्रित किया है। साथ रहने से प्रेम और रूप एक दूसरे में प्रतिविम्बित हो उठते हैं और रूपमय प्रेम तथा प्रेम मय रूप की सृष्टि हो जाती है। श्‍याम सुन्‍दर रूपमय प्रेम हैं, और श्री राधा प्रेम मय रूप हैं। प्रेम में रूप ओतप्रोत है, और रूप में प्रेम। श्री राधा और श्‍याम सुन्‍दर इस प्रकार प्रेमालिंगन में आबद्ध हैं कि उनमें श्‍याम और गौर का विवेक नहीं किया जा सकता, ‘रति रस-रंग साने ऐसे अंग लपटाने, परत न सुधि कछु को है श्‍याम गौर री’। इनको देखकर सखीगण यह विचार करती रहती हैं कि कौन सा प्रेम और कौन सा रूप एक स्‍थान में एकत्रित हुआ है, ‘हितध्रुव हेरि-हेरि करत विचार सखी, कौन प्रेम, कौन रूप जुरयौ इक ठौर री,।

नित्‍य-वर्धमान, समान प्रेम-तृषा ने यद्यपि युगल को एक दूसरे में ओत-प्रोत बना दिया है किन्‍तु प्रेम-क्रीडा के लिए दोनों का स्‍वतन्‍त्र व्‍यक्तित्‍व होना आवश्‍यक है। राधा-श्‍यामसुन्‍दर एक-प्राण, एक-मन, एक-शील और एक-स्‍वभाव होते हुए भी अपने स्‍वरूपों में सर्वथा स्‍वतन्‍त्र हैं। युगल की परस्‍पर विलक्षणता को स्‍पष्ट करते हुए श्री हित प्रभु कहते हैं- ‘इनमें से एक छवि तो सुवर्ण के चंपक जैसी है और दूसरा नील मेघ के समान श्‍यामल है। एक काम के द्वारा चंचल बन रहा है और दूसरे ने बाह्य प्रतिकूलता धारण कर रखी है। एक मान की अनेक भंगियों से मंडित है और दूसरा रसपूर्ण चाटुता कर रहा है। निकुंज की सीमा में क्रीडा करते हुए इस महामोहन युगल को मैं देख पाऊँगा?'
एकं कांचनचंपकच्‍छवि परं नीलाम्‍बुदश्यामलं,
कंदर्पोत्तरलं तथैकमपरं नैवानुकूलं बहि:।
किंचैकं बहुमानभंगि रसवच्‍चाटूनि कुर्वत्‍परं,
वीक्षे क्रीडनिकुंजसीम्नि तदहो द्वन्‍द्वं महामोहनम्।

एक ही प्रेम के दो ‘खिलौने’ होते हुए भी युगल के प्रेम-स्‍वरूपों में भिन्नता है। श्‍याम सुन्‍दर प्रेमी हैं और स्‍वभावत: उनका प्रेम आवेश युक्त है। उनकी प्रीति वेगवती जल धारा की भाँति अपने किनारों को तोड़ती हुई अपने लक्ष्‍य की ओर धावित होती रहती है। श्रीराधा प्रेमपात्र हैं, अत: उनका प्रेम उस गंभीर सागर की भाँति है जो अपनी लहरों को अपने अंदर समा लेता है। उनके प्रेम में वाणी को प्रवेश नहीं होता। यह गंभीर सागर यदि अपनी मर्यादा छोड़कर उमड़ पड़े तो इसको रोकने की क्षमता किस में है?

यद्यपि प्‍यारे पीय कौं रहत है प्रेम अवेस।
कुंवरि प्रेम गंभीर तहाँ नाहिन वचन प्रवेश।।
प्रिया-प्रेम सागर अमल लहरिनु लेत समाय।
उमड़ै जो मर्जाद तजि कापै रौक्‍यौ जाय।।