*॥ श्री हरिदास ॥*
*वचनामृत सौरभ*
१. संसार के भयंकर त्रिविध तापानल से दग्ध प्राणियों पर कृपा करने के लिये श्री हरि स्वयं सन्त, गुरु, आचार्य रूप से प्रकट होकर भक्ति रस तत्त्व का उपदेश कर उनका कल्याण करते हैं।
२. प्रभु कृपा का मुख्य फल है--प्रेमी रसिक सदगुरु-सन्त का दर्शन, उपदेश, संग प्राप्त होना, और श्रद्धा-विश्वास सहित उनका अनुसरण करना।
३. ऐसे रसिक अनुरागी महानुभाव सन्तप्रदान अपना लें,मन्त्र दीक्षा देकर अपना स्वरूप प्रदान करें ,यह प्रभु की पूर्ण कृपा का स्वरूप हैं।
४. जिन परम भाग्यशाली पर ऐसी कृपा होती है, उसका हृदय सर्वथा चाह शून्य होकर अपने श्री हरि की लाड़-चाव-सेवा से पूर्ण हो जाता है।
५. जिनको ऐसा स्वरूप प्राप्त हुआ, उनकी बाहरी क्रिया-व्यवहार सब भगवत् धर्म-सिद्धान्त मय होते हैं, माने अपने गुरु-उपदिष्ट परम्परानुसार पाठ, पूजा,सेवा, स्वाध्याय-पठन, सत्संग, दर्शन और भजन-साधन आदि में अति उल्लास पूर्वक प्रेम होना।
६. इनमें भी अपने सेवामय निज स्वरूप को जानकर नाम जप और मानसी सेवा में तत्पर रहना सब साधन-सिद्धान्तों का सार है।
७. स्तोत्र, वाणी पाठ में अनन्त पुण्यफल एवं भक्ति, प्रेम, रस देने की सामर्थ्य है। इनका दृढ़ता से सदा सेवन करना चाहिये।
८. रसिक महानुभावों की वाणियाँ तो परात्पर परेश प्रभु श्री नित्य विहारी- जुगल के महामधुर रससार नित्य विहार रस से परिपूर्ण हैं। उनका सेवन करने में ऐसा लगता है, मानो उसी दुर्लभ रस में ही अवगाहन हो रहा है।
९. रस ग्रन्थों में इन्हीं दुर्लभ वस्तुओं का संग्रह है। सदा नित्य नियम से इनका सेवन कर अपने को कृतकृत्य करना चाहिये।
- *श्री स्वामी-रसिक-चरणरज किंकर*
*बाबा अलबेली शरण जु*
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