Friday, 9 August 2019

तृषा वर्धनी - प्यारी जू

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----------------" तृषा वर्धनी "-----------------
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सर्व व्यापक: मम् अदृश्य लोचनै:,दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
(चारो ओर बसे हुए किंतु मेरे ही नेत्रो से ओझल हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
चक्षु देहिताम् त्वं समर्थ दृश्यतै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे ।।१।।
(जो आपको देखने मे समर्थ हो सके ऐसे नेत्र दीजिए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
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संत्प्त: ह्रदय: अभाव दर्शनै , दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
(आपके दर्शनो के अभाव मे जली विरहाग्नि से ये हृदय जला जा रहा है अत: हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
ददाति च दृग: दर्शनार्थ: हृदयै,यथादृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।२।।
(और आपके दर्शनो के लिए मेरे इस हृदय को नेत्र प्रदान कीजिए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
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धावति यत्र-तत्र कुत्र अस्माकमै:,दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
( आप मुझसे यहां वहां क्यू और कहां भाग रहे है हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
सम गोपाङ्गनां नयन अवस्थितै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।३।।
(जिस प्रकार आप गोपियो के नयनो मे बस गए थे की उन्हे कुछ ओर दीखता ही नही था उसी प्रकार मेरे नयनो मे बस जाओ और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
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न केवलं जीवित: मरणासन्न समयै, दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
(केवल जीवित रहते हुए ही नही बल्कि मेरी मृत्यु के अंतिम श्वास लेते समय भी आप हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
चिर स्थित: जन्म-मरण परै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।४।।
इस जन्म और मृत्यु से परे भी नित्य मुझमे स्थिर रह जाओ और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
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आदि मम् च त्वं अन्त: , दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
( मेरा आरंभ और अंत आप ही तो है अत: हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
अभिन्नताऽर्हि अभिन्न प्रदर्शयतै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।५।।
(हम यदि अभिन्न है तो उस अभिन्नता को दिखाइए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
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विलग न तद् किं अन्तरै , दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
( यदि हम दोनो जरा भी अलग नही है तब मुझे ये कैसी दूरी लगती है तो हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
देहि प्राण मन: त्वं समाहितै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।६।।
इस शरीर प्राण एवं मन सबको आप अपने मे समा लिजिए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
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उपरि उद्धृत: अंकित: सम्मति:,दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
( ऊपर जो कुछ भी कहा गया है उस पर आप अपनी सहमति दे दीजिए और हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
"प्यारी" याचनां सम्पूर्ण तव पदै:,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।७।।
(आपकी "प्यारी" की यह विनति आपके चरणो मे पूर्ण हो जाए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)

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