Wednesday, 27 September 2017

कुँज लीला , तृषित

कुँज-लीला

महावृन्दावन में जो सब क्रीड़ावन विद्यमान है , उनमें से प्रत्येक में नाना प्रकार के कुँज विराजित है । अन्तरंग भावुक भक्तगणों की तृप्ति के लिये श्री राधागोविन्द की कुंजलीला इन सब कुंजो में प्रकट उत्सवित होती है । सभी कुँज स्वतः सिद्ध एवं स्वयं में विश्रान्त है । अर्थात युगल सुखार्थ सर्व विलास सिद्ध सभी कुँज है । किसी विशिष्ट कुँज लीला में अन्य कुँज के साथ सम्पर्क नही रहता , परन्तु सभी कुंजों में परस्पर सम्बन्ध रूप में भी रसभाव दिव्य लीला होती है । बाह्य दृष्टि से एक कुँज के साथ दूसरे किसी कुँज का कोई सूत्र सम्पर्क दिखता । तब भी प्रत्येक कुँज के साथ प्रत्येक कुँज का गुप्त सम्बन्ध भी है और अत्यन्त गुप्त संचरण मार्ग (एक कुँज से दूसरे कुँज भीतर -भीतर छिपे मार्ग) भी है । एक एक वन भावानुणालिनी प्रकृति का एक एक प्रतीक है । भाव अनन्त होने से केलि-काननों की वास्तविक संख्या भी अनन्त है । ऐसा ही पौराणिक स्वरूप में अनन्त योजन , अनन्त सरोवर , उद्यान आदि सँग , अनन्त परिकरियों से सेवित प्रेम युगल रस का चेष्टिक वर्णन है । विभन्न कुँजों में विभिन्न माधुर्य रस का आस्वादन सेवा श्रीयुगल को कराई जाती है । इस आस्वादन की पृथकता हेतु ही भाव पृथकता है , सेवा भावना में नित्य नवीनता ही ना हो , सम्पूर्ण पुष्टि पर भी पिपासा क्यों विकसित हो । भाव का अर्थ जड़ भाव नहीं है , यह भाव स्वभाव सिद्ध भाव है , भाव राज्य में जीव भावस्वरूप सिद्धि सँग ही स्थिर होता है , भाव स्थिरता किन्हीं निर्मल पिपासुओं की हो पाती है , भाव कृपा अनुभूत होने से ... जीव का चिंतनीय भाव और भगवत प्रदत भाव जब मूल स्वभाविक भाव ही रह जाता है तब वास्तविक भाव सिद्धि होती है । अर्थात हम अपना भाव बना लेते है ,वह स्वभाविक भाव स्फुरण ही कर सकते है अब हम अपने भाव से वह जो प्रकट कर रहे उस भाव को अनुभूत कर सकें उसमें प्रवेश कर सकें तब भाव प्राप्ति होती है , भाव पथ पर भाव प्राप्ति प्रथम सोपान है ... महाभाव सम्बन्धार्थ-- तृषित । एक और बात कुछ कुँज उपासक निज कुँज का त्याग नही कर सकते । परंतु युगल सुखार्थ सेवा है तो कुँज का बाह्य त्याग किये बिना आंतरिक सेवार्थ कुँज के कुँज से गुप्त मार्ग से भावुक भावसिद्ध भीतर से ही सभी कुंजो में प्रवेश पा सकते है । भाव स्थिति युगल सुख है तो अनन्त मार्ग अपनी धारा धमनियों से सर्वदा एक ही रहता है । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी

Saturday, 23 September 2017

कृपा , तृषित

कृपा

यह अप्राकृत शक्ति आह्लाद है , बोलचाल में कृपा को तत्व रूप चिंतन करते है । है यह आह्लाद । कृपा विधान की विधि से नहीं श्रीप्रेममयप्रभु के हृदय की भावना है । कृपालुता में उनकी (श्यामासुन्दर की) करुणा प्रकट हो जाती है ।
कृपा में स्पर्श करने की भावना भी उनकी आंतरिक है , कृपा कभी पथिक को पथ नहीं निर्देशित करती । वह उसके लक्ष्य फल को अमृत रूप पिला देने के लिये ही प्रकट होती है ।
बाह्य जीवन मे कृपा की अनिवार्यता नहीं है , स्व सिद्धि का विकार सदा है कि मेरे द्वारा ऐसा होना , वैसा होना । अतः बाह्य जीवन कृपा को अनुभूत ही नहीं कर सकता । करेगा तो भोग सामग्री के विस्तार को ही कृपा कह देगा । गाड़ियों पर लिखेगा यह कृपा , वह कृपा ।
यह भोग में धँसना कृपा कभी है ही नहीं । कृपा की अनुभूति होगी अप्रयत्न पर । प्रयत्न करना ही उनके द्वारा उनकी वस्तु नियंत्रित है यह भाव खो जाता है । कर्म के नाम पर भोग सिद्धि ही जगत कर रहा है । भोग जुटा कर समझता है मैं कर्म योगी हूँ । कर्म योगी उसे कहे हम जो अकेले निकल पड़े गंगा यमुना के श्रृंगार हेतु । मुँह ना देखें , न चिंतन करें कि क्या मिल पायेगा और क्या नहीं ...
आज के कर्म योगी केवल मूल में भोगी ही है और जो भोगी है वह ईश्वर और जगत में सदा भोग सिद्धि हेतु जगत का चुनाव कर रहा है ,प्रकट रूप से ही देख लीजिये । भोग छूटते है अतः आकर भी आ नहीं पाते आध्यात्मिक पथ पर कोई ।
भोग अवस्था भोग पूर्ति को कृपा कहती है , वहाँ कृपा इतनी ही अनुभूत है । परन्तु कृपा आंतरिक प्रेम समेटे है उनका । और उसकी अनुभूति के लिये भोग निवृत्ति आवश्यक है । इच्छा शुन्य स्थिति पर अप्रयत्न स्थिति पर जो भी नव विकास का पथ प्रकट होगा वह कृपा है । भीतर हृदय में प्रेमांकुरण से पूर्णतम के आलिंगन तक क्रिया शील शक्ति केवल कृपा है । वास्तव में कृपा की अनुभूति से पूर्व जीव स्वयं अपनी सुरक्षा कर लेता है , अतः वह कृपा को अनुभूत नहीँ कर पाता । कृपा की अनुभूति के लिये प्रलय से भागना नहीं अपितु प्रलय में विलास दर्शन चक्षु की आवश्यकता है । जीव को ईश्वर जब भी वरण करने के लिये प्रकट होते है जड़मति जीव भाग जाता है । क्योंकि कृपा का प्राकृत स्वरूप दुःख रूप है । आंतरिक वह रसालय में डूबने की अनुभूति है । आंतरिक अनुभूतियां जीवन के उत्तर काल मे फ़िल्म की तरह
घूम जाती है । तृषित । जीवन को जीवनमय अनुभूत करना ही कृपा है । दुःख से भागने वाले कैसे कृपा को प्राकृत भी अनुभूत करेंगे । तो कृपा की अप्राकृत सुधा लहरी जो कि प्रियतम निज हृदय से ही उठ रहा स्पंदन है । कृपा , मन रूपी भृमर को सीधे मकरन्द पान के लिये अवतरित होती है ना कि प्राकृत किसी भव कलि पान मात्र । मकरन्द पान का पथिक भृमर दृश्य मात्र भृमर होता है ... मकरन्द की सौरभ-सौंदर्य लहरी में भृमर की आंतरिकता मकरन्द हो ही जाती है । मूल में भोग है ही नहीं , भोग पथिक विपरीत जा रहा है । अप्राकृत दिव्य सुकोमल निर्मल मकरन्द को सर्वभोगेश्वर स्वयं अनुभूत कर पाते है । भोग निवृत्ति कृपा शक्ति है अपराप्रेम है । श्यामासुन्दर के भोग विलास रस में उनकी निज भोगेच्छा खो जाती है । ब्रह्म खो जाता है प्रेम में डूब कर कृपा वह माधुर्य अनुभूति है । तृषित । जयजयश्रीश्यामाश्याम जी

Thursday, 21 September 2017

देह कान्तय हय , महाप्रभु

देह कान्तय हय तिहों अकृष्ण वरण।
अकृष्ण वर्ण,  कहे पीत वरण।।

जिनकी जिह्वा पर कृष्ण ये दो वर्ण सदैव उच्चारित होते रहते है,अथवा जो सर्वदा कृष्ण के नाम,रूप,गुण तथा लीलाओं का वर्णन  करते रहते है, वे आकृष्ण वर्ण है।जिनकी अंगक्रानति अकृष्ण पीत वर्ण है,वे त्विषा अकृष्ण हैं। ये दोनों लक्षण श्री चैतन्य महाप्रभु में लक्षित होता हैं।

श्यामासुन्दर के मुख्य 64 गुण (रूप गोस्वामी)

श्यामासुन्दर के 64 गुण (रूप गोस्वामी जी)

1↑ सुरम्‍यांग: - अर्थात भगवान के अवयवों की रचना बड़ी सुन्‍दर है।
2↑ सर्वसल्‍लक्षणान्वित: - अर्थात भगवान समस्‍त शुभ लक्षणों से युक्‍त है।
3↑ रुचिर : - अर्थात भगवान अपने शरीर की कान्ति से दर्शकों के नेत्रों को आनन्‍द देने वाले है।
4↑ तेजसायुक्‍त: - अर्थात भगवान का विग्रह प्रकाश-पुंज से परिवेष्टित है।
5↑ बलीयान् - अर्थात भगवान महती प्राणाशक्ति से समन्वित है।
6↑ वयसान्वित : - अर्थात भगवान सर्वदा किशोरावस्‍थापन्‍न ही रहते है।
7↑ विविधाद्भुतभाषावित् - अर्थात भगवान अनेक अद्भुत भाषाओं का ज्ञान रखते है।
8↑ सत्‍वाक्‍य : - अर्थात भगवान कभी झूठ नहीं बोलते है।
9↑ प्रियंवद : - अर्थात भगवान अपराधी से भी मधुर वचन बोलते है।
10↑ वावदूक : - अर्थात भगवान वक्‍तृत्‍व कला में बड़े निपुण है।
11↑ सुपाण्डित्‍य : - अर्थात भगवान चौदहों विद्याओं के निधान एवं नीति विचक्षण है।
12↑ बुद्धिमान् - अर्थात भगवान मेधावी (अद्भुत धारणा शक्ति सम्‍पन्‍न) और सूक्ष्‍म बुद्धियुक्‍त है।
13↑ प्रतिभान्वित: - अर्थात भगवान प्रतिभा (चमत्‍कारपूर्ण बुद्धि) अथवा मौलिकता से युक्‍त है।
14↑ विदग्‍ध: - अर्थात भगवान चौंसठ कलाओं में प्रवीण है।
15↑ चतुर: - अर्थात भगवान एक ही काल में अनेकों का समाधान कर देते है।
16↑ दक्ष: - अर्थात भगवान दुष्‍कर कार्यों को भी थोड़े ही समय में सम्‍पन्‍न कर दिया करते है।
17↑ कृतज्ञ: - अर्थात भगवान की हुई सेवा इत्‍यादि को कभी नहीं भूलते है
18↑ सदृढव्रत: - अर्थात भगवान सत्‍यसन्‍ध एवं अपने व्रत के पक्‍के है
19↑ देशकालसुपात्रज्ञ: - अर्थात भगवान देश, काल एवं पात्र का सदा विचार रखते है
20↑ शास्‍त्रचक्षु: - अर्थात भगवान का आचरण शास्‍त्र विहित होता है ।
21↑ शुचि: - अर्थात भगवान स्‍वयं निर्दोष तथा दूसरों के पापों का नाश करने वाले है।
22↑ वशी - अर्थात भगवान जितेन्द्रिय है।
23↑ स्थिर: - अर्थात भगवान जिस काम को हाथ में लेते है, उसे पूरा करके छोडते है और जब तक वह पूरा न हो जाता, विश्राम नहीं लेते है।
24↑ दान्‍त: - अर्थात भगवान योग्‍यता प्राप्‍त होने पर असह्य कष्‍ट को भी सहन करने में पीछे नहीं हटते है।
25↑ क्षमाशील: - अर्थात भगवान अपराधियों के अपराध को सह लिया करते है।
26↑ गम्‍भीर: - अर्थात भगवान इतने गम्‍भीर है कि उनकी आकृति अथवा व्‍यवहार से उनके हृदयगत भाव को कोई नहीं जान सकता है।
27↑ धृतिमान् - अर्थात भगवान पूर्णकाम है और क्षोभ का कारण उपस्थित होने पर भी चलायमान न होकर सर्वछा प्रशान्‍तचित्‍त बने रहते है।
28↑ सम: - अर्थात भगवान का किसी के प्रति रागद्वेष नहीं है, शत्रु और मित्र में उनकी समबुद्धि है।
29↑ वदान्‍य: - अर्थात भगवान बड़े दानवीर है।
30↑ धार्मिक: - अर्थात भगवान स्‍वयं धर्मानुकूल आचरण करते है और दूसरों से भी वैसा ही आचरण करवाते है
31↑ शूर: - अर्थात भगवान युद्ध में बड़ी शूरवीरता दिखलाते है और अस्‍त्र-शस्‍त्रों के चलाने में बड़े कुशल है।
32↑ करुण: - अर्थात भगवान बड़े पर-दु:खकातर दयालु है।
33↑ मान्‍यमानकृत –अर्थात भगवान गुरु, ब्राह्मण और अपने बडों का बड़ा आदर करते है।
34↑ दक्षिण: - अर्थात भगवान बड़े सुशील एवं सौम्‍य आचरण वाले है।
35↑ विनयी - अर्थात भगवान बड़े नम्र तथा औद्धत्‍य शून्‍य है।
36↑ ह्रीमान् - अर्थात भगवान को अपने मुँह पर अपनी प्रशंसा सुनकर बड़ा संकोच होता है।
37↑ शरणागतपालक: - अर्थात भगवान शरण में आये हुए की सदा रक्षा करते है।
38↑ सुखी - अर्थात भगवान कभी लेशमात्र दु:ख का अनुभव नहीं करते थे और उन्‍हें सब प्रकार के भोग प्राप्‍त है।
39↑ भक्‍तसुहृत् - अर्थात भगवान भक्‍तों के अकारण प्रेमी है और थोडी सेवा से ही सन्‍तुष्‍ट हो जाते है।
40↑ प्रेमवश्‍य: - अर्थात भगवान केवल प्रेम से प्रेमी के वश में हो जाते है ।
41↑ सर्वशुभंकर: - अर्थात भगवान सर्व हितकारी है।
42↑ प्रतापी - अर्थात भगवान की शूरता, पराक्रम तथा दुर्जेयता को सुनकर शत्रु कम्‍पायमान होते है।
43↑ कीर्तिमान् - अर्थात भ्रवान्‍ के उत्‍तम सद्गुणों से उनका निर्मल यश दसों दिशाओं में फैल गया है।
44↑ रक्‍तलोक: - अर्थात भगवान सदा सत्‍पुरुषों का पक्षपात करते है और उनकी सहायता करते है।
45↑ साधुसमाश्रय: - अर्थात भगवान सदा सत्‍पुरुषों का पक्षपात करते है और उनकी सहायता करते है।
46↑ नारीगणमनोहारी –अर्थात सुन्‍दरियां उनके अलौकिक रूप-लावण्‍य को देखकर उन पर मुग्‍ध हो जाया करती है।
47↑ सर्वाराध्‍य: - अर्थात भगवान का सब लोग मान एवं पूजा करते है।
48↑ समृद्धिमान् - अर्थात भगवान सब प्रकार की समृद्धियों से सम्‍पन्‍न है।
49↑ वरीयान् - अर्थात भगवान सुर-मुनि सबसे श्रेष्‍ठ है और इनके द्वार पर ब्रह्मादि देवताओं तथा महर्षियों की भीड लगी रहती है।
50↑ ईश्‍वर: - अर्थात भगवान की इच्‍छा में कोई बाधा नहीं डाल सकता है और उनकी आज्ञा को ही टाल सकता है
51↑ सदास्‍वरूपसम्‍प्राप्‍त: - अर्थात भगवान माया के वश में नहीं है। सदा अपने स्‍वरूप में स्थित है।
52↑ सर्वज्ञ: - अर्थात भगवान घट-घट कीबात जानते है और उनका ज्ञान देश, काल से अबाधित है, कोई वस्‍तु ऐसी नहीं है, जिसका उन्‍हें ज्ञान न हो।
53↑ नित्‍यनूतन: - अर्थात यद्यपि उनके प्रेमीजन उनके माधुर्य रस का सदा आस्‍वादन करते है फिर भी उन्‍हें उसमें नत्‍य नया स्‍वाद मिलता है।
54↑ सच्चिदानन्‍दसान्‍द्रांग: - अर्थात उनका विग्रह सच्चिदानन्‍दमय ही है, साधारण मनुष्‍यों की भाँति पंचभूतों का बना हुआ नहीं है।
55↑ सर्वसिद्धिनिषेवित: - अर्थात सारी सिद्धियां उनके वश में है ।
56↑ अविचिन्‍त्‍यमहाशक्ति: - अर्थात भगवान अचिन्‍त्‍य महाशक्तियों से युक्‍त है। अपने अपने संकल्‍प मात्र से ही स्‍वर्गादि दिव्‍य लोकों की रचना कर सकते है, ब्रह्मा एवं शिव आदि देवताओं को भी मोहित कर सकते है और भक्‍तों के प्रारब्‍ध का भी नाश कर सकते है।
57↑ कोटिब्रह्माण्‍डविग्रह: - अर्थात उनका विग्रह असंख्‍य ब्रह्माण्‍ड-व्‍यापी है।
58↑ अवतारावलीबीजम् - अर्थात सारे अवतारों को धारण करने वाले अवतारी वे ही है।
59↑ हतारिगतिदायक: - अर्थात जो शत्रु उनके हाथ से मारे जाते है , वे मोक्ष को प्राप्‍त होते है
60↑ आत्‍मारामगणाकर्षी –अर्थात उनकी ओर आत्‍माराम-पुरुषों का भी मन हठात्‍ आकृष्‍ट हो जाता है।
61↑ सर्वाद्भुतचमत्‍कारलीलाकल्‍लोलवारिधि: - अर्थात उन्‍होंने अपने जीवन-काल में अनेक अद्भुत एवं चमत्‍कारपूर्ण लीलाएं कीं।
62↑ अतुल्‍यमधुरप्रेममण्डितप्रियमण्‍डल: - अर्थात भगवान के प्रेमीजन उनके असाधरण माधुर्ययुक्‍त प्रेम से सर्वदा परिपूर्ण रहते है।
63↑ त्रिजगन्‍मानसाकर्षी मुरलीकलकूजितै: - अर्थात उनकी मुरली के मधुर स्‍वर से तीनों लोकों के निवासियों का मन आकर्षित हो जाता है।
64↑ असमानोध्‍वरूपश्रीविस्‍मापितचराचर: -अर्थात भगवान के असाधारण रूप लावण्‍य को देखकर चराचर जगत विस्‍मयाविष्‍ट हो जाता है।
↑ समुद्रा इव पंचाशद् दुर्विगाहा हरेरमी। जीवेष्‍वेते वसन्‍तोअपि विन्‍दुविन्‍दुतया क्‍वचित्‍।। परिपूर्णतया भान्ति तत्रैव पुरुषोत्‍तमे।

उपर्युक्‍त चौंसठ गुणों में से पहले पचास गुण अंशरूप से मनुष्‍यों मे भी रह सकते हैं यद्यपि पूर्णरूप से उनका विकास पुरुषोत्‍तम भगवान श्रीकृष्‍ण में ही हुआ है। पद्मपुराणा में शिवजी ने पार्वती जी से इन्‍हीं गुणों का वर्णन किया है और श्रीमद्भागवत के प्रथम स्‍कन्‍ध में पृथ्वी ने धर्म को भगवान के ये ही गुण बतलाये हैं। इनके अतिरिक्‍त 51 से लेकर 55 तक के गुण श्रीशिव आदि देवताओं में भी अंशरूप से पाये जाते हैं और 56 से 60 तक गुण भगवान श्रीलक्ष्‍मीश्‍वर आदि में भी होते हैं। शेष चार गुण तो असाधारण रूप से केवल भगवान श्रीकृष्‍ण में ही है।

अयं नेता सुरम्‍यांग: सर्वसल्‍लक्षणान्वित: ।।
रुचिरस्‍तेजसायुक्‍तो बलीयान्वयसान्वित: ।
विविधाद्भुतभाषावित् सत्‍यवाक्‍य:प्रियंवदे:।।
बावदूक: सुपाण्डित्‍यो बुद्धिमान् प्रतिभान्वित:।
विदग्‍धश्‍चतुरो दक्ष: कृतज्ञ:सुदृढव्रत: ।।
देशकालसुपात्रज्ञ:शास्‍त्रचक्षु:शुचिर्वशी ।
स्थिरोदान्‍त: क्षमाशीलो गभीरोधृतिमान् सम: ।।
वदान्‍यो धार्मिक: शूर: करुणो मान्‍यमानकृत्।
दक्षिणो विनयी ह्रीमान् शरणागतपालक:।।
सुखी भक्‍तसुहृत् प्रेमवश्‍य: सर्वशुभंकर:[ ।
प्रतापी कीर्तिमान्रक्‍तलोक: साधुसमाश्रय: ।।
नारीगणमनोहारी सर्वाराध्‍य: समृद्धिमान् ।
वरीयानीश्‍वरश्‍चेति गुणास्‍तस्‍याअनुकीर्तिता: ।।
सदास्‍वरूपसम्‍प्राप्‍त: सर्वज्ञो नित्‍यनूतन: ।
सच्चिदानन्‍दसान्‍द्रांग: सर्वसिद्धिनिषेवित:।।
अविचिन्‍त्‍यमहाशक्ति: कोटिब्रह्माण्‍डविग्रह: ।
अवतारावलीबीजं ह‍तारिगतिदायक:।
आत्‍मारामगणाकर्षीत्‍यमी कृष्‍णे किलाद्भुता: ।।
सर्वाद्भुतचमत्‍कारलीलाकल्‍लोलवारिधि:।
अतुल्‍यमधुरप्रेममण्डितप्रियमण्‍डल: ।।
त्रिजगन्‍मानसोकर्षी मुरलीकलकूजितै: ।
असमानोर्ध्‍वरूपश्रीविस्‍मापितचराचर:।।

श्रीकृष्ण-प्रेम चालीसा (नारायण स्वामी)

श्रीकृष्णप्रेम चालीसा
(श्रीनारायण स्वामी)

प्रेम-सार वाणी

श्रीकृष्णप्रेम चालीसा !

रे मन, क्‍यों भटकत पिरे भज श्रीनंदकुमार ।
नारायण अजहूँ समुझ ! भयो न कछू बिगार ।।

लखी न छबि जिन श्‍याम की किया न पलभर ध्‍यान ।
नारायण ते जगत में प्रगटे निपट पषान ।।

जो रसकन उर नित बसै निगमागम के सार ।
नारायण तिन चरण की बार बार बलिहार ।।

नारायण अति कठिन है हरि मिलिबे की बाट।
या मारग जो पग धरे प्रथम सीस दै काट ।।

नारायण प्रीतम निकट सोई पहुँचनहार ।
गैंद बनावे सीस की खलै बीच बजार ।।

चौसर बिछी सनेह की लगे सीस के दाव ।
नारायण आशिक बिना को खेलै चितचाव ।।

नारायण घाटी कठिन जहाँ नेह को धाम ।
विकल पूरछा सिसकबो, ये मग के बिसराम ।।

नारायण या डगर मं कोउ चलत हैं वीर ।
पग-पग में बरछी लगे श्‍वास-श्‍वास में तीर ।।

नारायण मन में वी लोक लाज कुल कान ।
आशिक होना श्‍याम पर हंसी खेल ना जान ।।

नेह डगर में पग धरे फेर बिचारे लाज ।
नारायण नेही नहीं बातन को सिरताज ।।

नारायण जाके हिये उपजत प्रेम प्रधान ।
प्रथमहि वाकी हरत है लोक लाज कुल कान ।।

नारायण या प्रेम को नद उमगत जा ठौर ।
नल में सब मरजाद के तट काटत है दौर ।।

बरणाश्रम उरझे कोऊ विधि निषेध व्रत नेम ।
नारायण बिरले लखैं जिन मिल उपजै प्रेम।।

लगन-लगन सबकी कहैं लगन कहाबै सोय ।
नारायण जा लगन में तन-मन डारै खोय ।।

नारायण जग जोग जप सबसों प्रेम प्रवीन ।
प्रेम हरी को करत है प्रेमी के आधीन ।।

नारायण जग प्रेम रस मुखसों कह्यो न जाय ।
ज्‍यों गूंगा गुड़ खाय है सैनन स्‍वाद लखाय ।।

प्रेम खले सबसों कठिन खेलत कोउ सुजान ।
नारायण बिन प्रेम के कहाँ प्रेम पहचान ।।

प्रेम पियाला जिन पिया झूमत तिन के नैन ।
नारायण वा रुप मद छके रहें दिन-रैन ।।

नेम धरम धीरज समझ सोच विचार अनेक ।
नारायण प्रेमी निकट इनमें रहै न एक ।

रुप छके झूमत रहें तनकों तनक न ग्‍यान ।
नारायण दृग जल भरे यही प्रेम पहचान ।।

मन में लागी चटपटी क‍ब निरखूं घनश्‍याम ।
नारायण भूल्‍या सभी खान, पान, बिसराम ।।

सुनत न काहूकी कही कहै न अपनी बात ।
नारायण वा रुप में मगन रहे दिन-रात ।।

देह-गेह की सुधि नहीं टूट गई जग-प्रीत ।
नारायण गावत पिरै प्रेम भरे रस-गीत ।।

धरत कहूँ पग परत कहुं सुरत नहीं इक ठौर ।।
नारायण प्रीतम बिना दीखत नहीं कछु और ।

भयो बाबरो प्रेम में डोलत गलियन माहिं ।
नारायण हरि-लगन में यह कछु अचरज नाहिं ।।

लतन तरे ठाढ़ो कबहुं गहिूं यमुना तीर ।
नारायण नैनन बसी मूरति श्‍याम शरीर ।।

प्रेमसहित गदगद गिरा करत न मुखसों बात ।
नारायण इक श्‍याम बिन और न कछू सुहात ।।

कहो चहै कछु कहत कछु नैनन नीर सुरंग ।
नारायण बौरो भयों लग्‍यों प्रेम को रंग ।।

कबहुं हंसै रोवे कबहुं नाचत कर गुणगान ।
नारायण तन सुधि नहीं लग्‍यों प्रेम को बान ।।

जाके मन यह छबि बसी सोवतहूँ बतरात ।
नारायण कुण्‍डल निकट अद्युत अलक सुहात ।।

ब्रह्मादिक के भोग-सुख विष सम लागत ताहि ।
नारायण ब्रजचंद की लगन लगी है जाहि ।।

जाके मन में बस रही मोहन की मुसुकान ।
नारायण ताके हिये और न लागत ग्‍यान ।।

जो घायल हरि दृगन के परे प्रेम के खेत।
नारायण सुन श्‍यामगुन एक संग रो देत ।।

नारायण जाको हियो बिंध्‍या श्‍याम दृग-बान ।
जग भावे है जीवतो ह्वै गयो मृतक समान ।।

सुख-संपति धन धामकी ताहि न मन में आस ।
नारायण जाके हिये निसिदिन प्रेम प्रकास ।।

नारायण जिनके हृदय प्रीति लगी घनश्‍याम ।
जाति-पांति कुल सों गयो, रहे न काहू काम ।।

नारायण तब जानिये लगन लगी या काल ।
जित तित ही दृष्टि पड़ै दीखत मोहनलाल ।।

नारायण ब्रजचंद के रुप पयोनिधि माहिं ।
डूबत बहु पै एक जन उछरत कबहूँ नाहि ।।

नारायण जाके दृगन सुन्‍दर स्याम समाय ।
फूल, पात, फल, डार में ताको वहीं दिखाय ।।

पराभक्ति वाको कहें जित तित स्याम दिखात ।
नारायण सो ग्‍यान है पूरन ब्रह्मा लखात ।।
#प्रस्तुति- #तृषित

प्रथम विलास माहात्म्य

⏩प्रथम विलास माहात्म्य::-⏪

पुष्टिमार्ग में आज से ललिताजी के सेवा मास का आरंभ होता है जिसमें आज से नव-विलास के उत्सव का आरंभ होता है और इन नौ दिनों में प्रतिदिन नूतन भाव अंकुरित होते हैं.
इस भाव से ठाकुर जी को
के छापा के वस्त्र ठाकुरजी को धराये जाते हैं.
आज श्रीजी सहित सभी पुष्टिमार्गीय घरमें🏡 में दस मिटटी के कूंडों🍯 (पात्रों) में गेहूं के जवारे बोये जाते हैं.
माटी के इन कूंडों (पात्रों) में गेहूं और जव बोये जाते हैं. जिसे अंकुर-रोपण कहा जाता है.
सात्विक, राजस, तामस आदि नौ प्रकार के गुणों के भाव से और एक निर्गुण भाव से, ऐसे दस पात्रों में ज्वारा अंकुरित किये जाते हैं. ये अंकुरित ज्वारा दशहरा के दिन प्रभु के श्रीमस्तक पर कलंगी के रूप में धराये जाते हैं.   
           🎹🎺🍁👣🎹🎺
⏩विलास प्रथम :: पद ::💐🌺
प्रथम विलास कियो श्यामाजु
                 कीनो विपिन विहारजू ।।
उनके बिथकी शोभा बरनो
             कहत न आवे पारजू ।। 1।।
वाके युथकी गणना नाहीं
                     निर्गुण भक्त कहावे ।।
ताकी संख्या कहत न आवे
               शेषहू पार न पावे ।। 2 ।।
घोषघोष प्रति गलिन गलिन प्रति
                     रंग रंग अंबर छाये ।।
कियो शृंगार नखशिख अंग युवती
          ज्यो करनी गण राजे ।। 3 ।।
बहु पूजा ले चली वृंदावन
                     पान फूल पकवान ।।
ताके युथ मुख्य चंद्रावली
                चंद्रकलासी बाने ।। 4 ।।
पोहौंची जाय निकुंज भवनमें
                          दरसी वृदादेवी ।।
ताके पद वंदन करी माग्यो
            श्यामसुंदर वर एवी ।। 5 ।।
तिहिंछिन प्रभुजी आप पधारे
                  कोटिक मनमथ मोहे ।।
अंगअंग प्रति रुपरुप प्रति
          उपमा रवि शशि कोहे ।। 6 ।।
द्वैजुग जाम श्याम श्यामा संग
                केलि बिबिध रंग कीने ।।
उठत तरंग रंगरस उछलित
          दास रसिक रस पीने ।। 7 ।।
         🎷🎺🎼🎹🎷🎺🎼🎹

Wednesday, 20 September 2017

श्रीकृष्ण शोभा-वर्णन (तुलसीदासजी)

*कृष्ण-शोभा-वर्णन*
*(तुलसीदास जी)*

राग बिलावल
(21)
देखु सखी हरि बदन इंदु पर।
चिक्कन कुटिल अलक-अवली-छबि
कहि न जाइ सोभा अनूप बर ।। 1 ।।
बाल भुअंगिनि निकर मनहुँ मिलि
रहीं घेरि रस जानि सुधाकर।
तजि न सकहिं, नहिं करहिं पान, कहु,
कारन कौन बिचारि डरहिं डर ।। 2 ।।
अरून बनज लोचन कपोल सुभ,
स्त्रुति मंडित कुंडल अति सुंदर।
मनहुँ सिंधु निज सुतहि मनावन
पठए जुगुल बसीठ बारिचर ।। 3 ।।
नंदनँदन मुख की सुंदरता
कहि न सकत स्त्रुति सेष उमाबर।
तुलसिदास त्रैलोक्यबिमोहन
रूप कपट नर त्रिबिध सूल हर ।। 4 ।।
(प्रियतम श्रीकृष्ण के मुखचन्द्र को देखकर एक सखी कहती है) सखी! (प्रियतम) श्यामसुन्दर के मुखचन्द्र पर चिकनी और घुँघराली अलकावली की छवि तो देख। उसकी ऐसी अनुपम और श्रेष्ठ शोभा है कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता ।। 1 ।। ऐसा लगता है कि मानो बाल नागिनियों के दल ने चन्द्रमा को अमृतरूप जानकर घेर लिया है। पर वे न तो उसे छोड़ ही सकती हैं और न पान ही करती हैं। सोचकर बताओ तो इसका क्या कारण है, वे किस डर से डरी हुई हैं ।। 2 ।। श्यामसुन्दर के लाल कमल के सदृश नेत्र हैं, मनोहर कपोल हैं, कान अत्यन्त सुन्दर कुण्डलों से सुशोभित हैं। ऐसा लगता है मानो समुद्र ने अपने पुत्र (चन्द्रमा) को मनाने के लिये (मकराकृति दो कुण्डलों के रूप में) दो जलचरों (मगरों) को दूत बनाकर भेजा है।। 3।। नन्दनन्दन के श्रीमुख की सुन्दरता का वर्णन वेद, शेष जी और पार्वती पति शंकर जी भी नहीं कर सकते। तुलसीदास जी कहते हैं कि लीला से मनुष्य बने हुए एवं तीनों लोको को विमोहित करने वाले श्रीकृष्ण का यह रूप तीनों (दैहिक, दैविक, भौतिक) तापों को हर लेता है।। 4 ।।

शोभा-वर्णन
राग बिलावल
(22)
आजु उनीदे आए मुरारी।
आलसवंत सुभग लोचन सखि!
छिन मूदत छिन देत उघारी ।। 1 ।।
मनहुँ इंदु पर खंजरीट द्वै
कछुक अरुन बिधि रचे सँवारी।
कुटिल अलक जनु मार फंद कर,
गहे सजग है रह्यो सँभारी ।। 2 ।।
मनहुँ उड़न चाहत अति चंचल
पलक पंख छिन देत पसारी।
नासिक कीर, बचन पिक, सुनि करि,
संगति मनु गुनि रहत बिचारी ।। 3।।
रुचिर कपोल, चारु कुंडल बर,
भ्रुकुटि सरासन की अनुहारी।
परम चपल तेहि त्रास मनहुँ खग
प्रगटत दुरत न मानत हारी ।। 4 ।।
जदुपति मुख छबि कलप कोटि लगि
कहि न जाइ जाकें मुख चारी।
तुलसिदास जेहि निरखि ग्वालिनी
भजीं तात पति तनय बिसारी ।। 5 ।।

(दूसरी सखी बोली-) सखि! आज श्यामसुन्दर यहाँ नींद के बीच से ही उठकर आ गये हैं, तभी तो वे अपने अलसाते हुए सुन्दर नेखों को क्षण-क्षण में बंद कर रहे और खोल रहे हैं ।। 1।। (ऐसा लगता है) मानो चन्द्रमण्डल पर ब्रह्मा जी ने कुछ ललाई लिये हुए दो खंजनों को सजाकर बना (बैठा) दिया है। (गालों तक नाचती हुई) घुँघराली अलकें तो मानो कामदेव के फंदे हैं, जिन्हें सावधानी से हाथ में लेकर वह सँभाले हुए है (और जिनके द्वारा उन खंजनों को वह फँसाना चाहता है। इसी डर से) वे खंजन मानो उड़ना चाहते हैं, अत्यन्त चंचल होकर क्षण-क्षण में पलकरूपी पंखो को फैला देते हैं, पर नासिका रूपी शुक (को देखकर) तथा वचन रूपी कोयल की (मधुर) वाणी को सुनकर, उन (सब) का साथ देखकर (अपने को अकेला न समझकर) (उड़ते नहीं) रह जाते हैं ।। 2-3 ।। मनोहर कपोल हैं, (कानों में) सुन्दर श्रेष्ठ कुण्डल हैं, धनुष के समान टेढ़ी भौंहें है। परम चपल (नेत्ररूपी खंजन) पक्षी मानो उसी के (भौंहरूपी धनुष के) भय से कभी प्रकट हो जाते हैं कभी छिप जाते हैं परंतु हार नही मान रहे हैं ।। 4 ।। तुलसीदास जी कहते हैं कि यदुपति श्रीकृष्ण की मोहिनी मुख–छवि का वर्णन चार मुखवाले बहा्जी भी (करना चाहे तो) करोड़ों कल्पों में भी नहीं कर सकते, जिस (छवि) को देखकर गोपियों ने अपने पिता, पति तथा पुत्रों तक को भुला दिया और (इनके समीप) भाग आयीं ।। 5 ।।

शोभा वर्णन
(राग बिलावल)
23
गोपाल गोकुल बल्लवी प्रिय गोप गोसुत बल्लभं।
चरनारबिंदमहं भजे भजनी सुर मुनि दुर्लभं ।। 1 ।।
घनश्याम काम अनेक छबि, लोकभिराम मनोहरं।
किंजल्क बसन, किसोर मूरति भूरि गुन करुनाकरं ।। 2 ।।
सिर केकि पच्छ बिलोल कुंडल, अरून बनरूह लोचनं।
गुंजावतंस बिचित्र सब अँग धातु, भव भय मोचनं ।। 3 ।।
कच कुटिल, सुंदर तिलक भ्रू, राका मयंक समाननं।
अपहरन तुलसीदास त्रास बिहार बृंदाकाननं ।। 4 ।।
(गोपांगनाओं की इस मिलन लीला के प्रेम का दिग्दर्शन कराकर अब श्रीतुलसीदास जी विरहलीला के प्रेम का स्वरूप बतलाना चाहते हैं। श्यामसुन्दर मथुरा पधार गये हैं। एक सखी प्रियतक श्रीकृष्ण की रूप माधुरी को मानो अपने सामने देखती हुई कहती है कि बस मैं तो उन सुर-मुनि-दुर्लभ श्रीकृष्ण-चरण-कमल का ही सेवन करूँगी) श्रीकृष्ण गौओं के रक्षक हैं, हम गोकुल की ग्वालिनियों के प्रियतम हैं, गोपों तथा गो–सुतों (बछड़ो) के प्राणप्रिय हैं, भजन करने योग्य तो (एकमात्र) उनके चरणारविन्द ही हैं, यद्यपि वे (भक्ति से शून्य देव-मुनियों के लिये भी दुर्लभ हैं, मैं तो बस, उन चरण–कमलों का ही भजन करती हूँ। (मेरे सर्वस्व तो वे ही हैं) ।। 1।। (अहा!) उन नव-नीरद श्यामसुन्द की अनेक कामदेवों के समान शोभा है, वे त्रिभुवन-मोहन हैं, सबके मनों को हरण करने वाले हैं, कमल के केसर–सदृश पीत पट धारण किये हुए हैं, किशोर मूर्ति हैं, अनन्त गुणों से युक्त हैं, करूणा की खान है। ।। 2 ।। उनके सिर पर मयूरपिच्छ शोभित है, कानों में कुण्डल नाच रहे हैं, अरूण कमल के सदृश नेत्र हैं, गुंजाओं की माला है, समस्त अडों को धातुओं से चित्रित कर रखा है, वे संसार-भय से मुक्त करने वाले हैं ।। 3 ।। उनकी घुँघराली टेढ़ी केशराशि है, सुन्दर तिलक है, मनोहर भौंहें हैं, पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मुख है। तुलसीदास जी कहते हैं, वे वृन्दावन विहारी श्यामसुन्दर ही हमारी त्रास हरण करने में समर्थ हैं ।। 4 ।।