*हे राधा-कुण्ड ... केलि सुधा निधि*
श्रीवृन्दावन में परम आश्चर्यजनक उल्लासमय सुगन्धियुक्त जो श्रीराधाकुण्ड या श्रीराधा-केलि वर्णन है, वह माधुर्यामृत सिन्धु की मनोहर अद्भुत महाज्योतिर्मय तरंगोंयुक्त है, अनेक लोकों को उत्तरोत्तर महाचमत्कृत करने वाला है, वह श्रीराधाकुण्ड या श्रीराधा-केलि-वर्णन मेरे मुख में प्रकट होकर कब मेरी शोभा को बढ़ायेगा? ।
बहुत बडे प्रफुल्लित स्वर्णकमल में विराजमान होकर अहो! उसके केसरस दल समूह से मिलकर परस्पर एक दूसरे की अति सुन्दर स्वर्ण एवं नीलमणि कांति को प्रकाश करते हुए जब महा रसिक श्रीयुगलकिशोर अपने अंगों को बार-बार डोलायमान करते हैं, तब कैसी आश्चर्यमय शोभा होती है?
अहो! श्रीराधाकृष्ण का अनन्त मधुर के लिए समूह द्वारा जो सदा महा अद्भुत हो रहा है, एवं चमत्कारी महारस का समुद्र है तथा महान उज्ज्वल एवं महान सुगन्धिपूर्ण है, श्रीवृन्दावन में विराजमान केलि-उन्मत्त वृन्दावनेश्वरी श्रीराधाजी के प्रिय उस दिव्यकुण्ड (श्रीराधाकुण्ड) की मैं स्तुति करता हूँ।
जिसका जल स्पर्श करने से शुद्धचित्त में किसी एक अद्भुत रसमयी वृत्ति का तत्काल की उदय होता है, जो केवल विशुद्ध अनंग रस के प्रवाह से सुशोभित है एवं सुन्दर गौर-उज्ज्वल कांति युक्त है, उसमें आनन्दमय श्रीयगुगलकिशोर नित्य विहार करते हैं, अतएव परम रमणीय श्रीवृन्दावन के भूषणस्वरूप श्रीश्यामकुण्ड की मैं शरण लेत हूँ।।
जहाँ माधव पुलकित होकर मस्तक आन्दोलन करते हुए डोलामय कुण्डलों से एवं मुखचन्द्र की छटा से चारों दिशाओं को प्रकाशित करते हैं तथा अपनी वंशी से उन्मादनकारी गुणों का अलाप करते हैं एवं जो कमलनयन प्राणेश्वरी वल्लभ श्रीमोहन को एकान्त प्रिय है, श्रीगोवर्द्धन का मुकुटमणि महारत्न-श्रेष्ठ, यही श्रीराधाकुण्ड है।।
हे सखे! परम उत्कृष्ट श्रीवृन्दावन शोभा के द्वारा भी जो प्रशंसनीय है, श्रीहरि-प्रिय श्रीगोवर्द्धन गिरिराज भी उसकी आदर से वन्दना करता है, श्रीराधाकृष्ण की काम कलाओं की माधुर्य शोभा से परिपूर्ण श्रीराधाकृण्ड स्थित उस लता-मण्डप समूह को स्मरण कर ।।
असमोर्द्ध कामवर्द्धनशील श्रीराधाकुण्ड में सखीसमाज सहित महारस में अविष्ट एवं विह्वल उन गौरश्याम युगलकिशोर को स्मरण कर
जो श्रीवृन्दावन अपने अनन्त विचित्र वैभवरस से वैकुण्ठपति को भी मोहित करता है, एवं श्रीराधा-हृदय-बन्धु श्रीश्यामसुसन्दर के मधुर प्रेम द्वारा निखिल वस्तुओं को उन्मत तथा मदान्ध कर देता है और इस पृथ्वी पर विद्यानन्द-सुधा के एकमात्र समुद्र के परे परम उज्ज्वल जो यह असीम रसदायक श्रीवृन्दावन है- उसे प्राप्त करके कोई फिर अन्य वस्तुओं को देखना चाहता है क्या?
*जयजय श्रीश्यामाश्याम*