Wednesday, 31 May 2017

हे राधा कुण्ड ... केलि सुधानिधि

*हे राधा-कुण्ड ... केलि सुधा निधि*

श्रीवृन्दावन में परम आश्चर्यजनक उल्लासमय सुगन्धियुक्त जो श्रीराधाकुण्ड या श्रीराधा-केलि वर्णन है, वह माधुर्यामृत सिन्धु की मनोहर अद्भुत महाज्योतिर्मय तरंगोंयुक्त है, अनेक लोकों को उत्तरोत्तर महाचमत्कृत करने वाला है, वह श्रीराधाकुण्ड या श्रीराधा-केलि-वर्णन मेरे मुख में प्रकट होकर कब मेरी शोभा को बढ़ायेगा? ।

बहुत बडे प्रफुल्लित स्वर्णकमल में विराजमान होकर अहो! उसके केसरस दल समूह से मिलकर परस्पर एक दूसरे की अति सुन्दर स्वर्ण एवं नीलमणि कांति को प्रकाश करते हुए जब महा रसिक श्रीयुगलकिशोर अपने अंगों को बार-बार डोलायमान करते हैं, तब कैसी आश्चर्यमय शोभा होती है?

अहो! श्रीराधाकृष्ण का अनन्त मधुर के लिए समूह द्वारा जो सदा महा अद्भुत हो रहा है, एवं चमत्कारी महारस का समुद्र है तथा महान उज्ज्वल एवं महान सुगन्धिपूर्ण है, श्रीवृन्दावन में विराजमान केलि-उन्मत्त वृन्दावनेश्वरी श्रीराधाजी के प्रिय उस दिव्यकुण्ड (श्रीराधाकुण्ड) की मैं स्तुति करता हूँ।

जिसका जल स्पर्श करने से शुद्धचित्त में किसी एक अद्भुत रसमयी वृत्ति का तत्काल की उदय होता है, जो केवल विशुद्ध अनंग रस के प्रवाह से सुशोभित है एवं सुन्दर गौर-उज्ज्वल कांति युक्त है, उसमें आनन्दमय श्रीयगुगलकिशोर नित्य विहार करते हैं, अतएव परम रमणीय श्रीवृन्दावन के भूषणस्वरूप श्रीश्यामकुण्ड की मैं शरण लेत हूँ।।

जहाँ माधव पुलकित होकर मस्तक आन्दोलन करते हुए डोलामय कुण्डलों से एवं मुखचन्द्र की छटा से चारों दिशाओं को प्रकाशित करते हैं तथा अपनी वंशी से उन्मादनकारी गुणों का अलाप करते हैं एवं जो कमलनयन प्राणेश्वरी वल्लभ श्रीमोहन को एकान्त प्रिय है, श्रीगोवर्द्धन का मुकुटमणि महारत्न-श्रेष्ठ, यही श्रीराधाकुण्ड है।।

हे सखे! परम उत्कृष्ट श्रीवृन्दावन शोभा के द्वारा भी जो प्रशंसनीय है, श्रीहरि-प्रिय श्रीगोवर्द्धन गिरिराज भी उसकी आदर से वन्दना करता है, श्रीराधाकृष्ण की काम कलाओं की माधुर्य शोभा से परिपूर्ण श्रीराधाकृण्ड स्थित उस लता-मण्डप समूह को स्मरण कर ।।

असमोर्द्ध कामवर्द्धनशील श्रीराधाकुण्ड में सखीसमाज सहित महारस में अविष्ट एवं विह्वल उन गौरश्याम युगलकिशोर को स्मरण कर

जो श्रीवृन्दावन अपने अनन्त विचित्र वैभवरस से वैकुण्ठपति को भी मोहित करता है, एवं श्रीराधा-हृदय-बन्धु श्रीश्यामसुसन्दर के मधुर प्रेम द्वारा निखिल वस्तुओं को उन्मत तथा मदान्ध कर देता है और इस पृथ्वी पर विद्यानन्द-सुधा के एकमात्र समुद्र के परे परम उज्ज्वल जो यह असीम रसदायक श्रीवृन्दावन है- उसे प्राप्त करके कोई फिर अन्य वस्तुओं को देखना चाहता है क्या?

*जयजय श्रीश्यामाश्याम*

Monday, 29 May 2017

अहो मेरी स्वामिनी

*अहो मेरी स्वामिनी*

अहो! इस श्रीवृन्दावन का कोई स्थल कोटि-2 चन्दन-वनों को पराजित करने वाला है एवं किसी-किसी स्थल ने कोटि-कोटि कस्तूरी की राशियों को भी जीत लिया है तथा कोई स्थान कर्पूर के प्रवाह से उत्तम सौरभमय हो रहा है, कहीं कुकुम की पंक का लेप हो है, जो महा आनन्दकारी है। कहीं-कहीं तो अगरु को लज्जित करने वाली महा अद्भुत अपूर्व सुगन्ध छा रही है।।

श्रीवृन्दावन में दिन रात अनेक प्रकार के पुष्पों की सुगन्धि इधर-उधर छा रही है। कहीं अनेक प्रकार के मकरन्द प्रवाहित हो रहे है एवं अनेक प्रकार के सुन्दर स्वादयुक्त भोज्य पदार्थ उपस्थित हैं। कहीं मधुर रसपूर्ण अनेक फलों से लदे हुए वृक्ष शोभायमान है ओैर कोइ स्थान श्रीराधामाधवस के क्रीड़ा करते समय टूटे हुए मुक्ताहारादि तथा माला- मेखलादि से परिशोभित हो रहे हैं।।

श्रीराधाकुण्ड के निकुट अन्तरंग सुन्दर रत्नमण्डप में सखिवृन्द के साथ श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीश्यामसुन्दर के सहित गान-कौतुक कर रही हैं-ऐसी छवि मेरे चित्त में स्फुरित हो।।

श्रीराधाजी सब सखियों के साथ मिल कर नागरमणि (श्रीश्यामसुन्दर) के शरीर पर अपने दोनों कर-कमलों से जब अनेक जल सिंचन करने लगीं, तब श्रीश्यामसुन्दर अपने मुख-चन्द्र को झुकाकर ‘‘और नहीं, और नहीं, मैं हार मानता हूँ’’ ऐसा कहने लगे। श्रीश्यामसुन्दर केये अमृतमय वचन सुनकर श्रीराधाजी जल फैंकना बन्द कर क्या अद्भुत हँसी।।

थोड़े और अति मनोहर निकुंजों से परिवेष्टित, छोटे तथा विस्तीर्ण सुन्दर वृक्षों के फूलों से सुसज्जित एवं कल्पवृक्षों से मण्डित इस श्रीवृन्दावन में पुष्प-भूषणों से भषित होकर रसमूर्ति श्रीयुगलकिशोर विचित्र-विचित्र विहार करते हैं।।

परस्पर नैनों के कटाक्षों की चमत्कारिता में मृदु मधुर मुसक्यान के सहित अनेक छल पूर्वक एक दूसरे के पुलकित विग्रह को स्पर्श करने के लिए तथा दूसरे की कथामृत-रस-भरी नदी के प्रवाह द्वारा उमड़ी हुई श्रीराधाकृष्ण की परस्पर महारति जय युक्त हो।।

अत्यन्त महाश्चर्य मधुर स्फूर्ति प्राप्त लीला-रूप-सौन्दर्य-सुरत-वैदग्धलहरीयुक्त श्रीराधा ब्रज से श्रीवृन्दावन आती हैं- एवं श्रीराधाकृण्ड स्थलि की शत-शत गुण-शोभा एवं चमत्कारिता आदि का प्रकाश करती है, श्रीश्यामसुन्दर के सहित वह मेरे हृदय मे स्फुरित हों।।

।। जयजय श्यामाश्याम जी ।।

अष्टादश सिद्धान्त के पद

अष्टादश सिद्धांत के पद
अनन्य रसिक शिरोमणि स्वामी श्रीहरिदासजी कृत🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁🍁
अष्टादश सिद्धान्त के पदज्यौंही-ज्यौंही तुम राखत हौ, त्यौंही-त्यौंही रहियत हौं, हो हरि।और तौ अचरचे पाँय धरौं सो तौ कहौ, कौन के पैंड़ भरि?जद्यपि कियौ चाहौ, अपनौ मनभायौ, सो तौ क्यों करि सकौं, जो तुम राखौ पकरि।कहिं श्रीहरिदास पिंजरा के जानवर ज्यौं, तरफ़राय रह्यौ उड़िबे कौं कितौऊ करि॥1॥
🎄🎄🎄🎄 [राग विभास]🎄🎄🎄🎄🎄🎄🎄
काहू कौ बस नाहिं, तुम्हारी कृपा तें सब होय बिहारी-बिहारिनि।और मिथ्या प्रपंच, काहे कौं भाषियै, सु तौ है हारिनि॥जाहि तुमसौं हित, तासौं तुम हित करौ, सब सुख कारनि।श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी, प्रानन के आधारनि॥2॥
🐋🐋🐋🐋[राग विभास]🐋🐋🐋🐋🐋
कबहूँ-कबहूँ मन इत-उत जात, यातैंब कौन अधिक सुख।बहुत भाँतिन घत आनि राख्यौ, नाहिं तौ पावतौ दुख॥कोटि काम लावन्य बिहारी, ताके मुहांचुहीं सब सुख लियैं रहत रुख।श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी कौ दिन देखत रहौं विचित्र मुख॥3॥
🐓🐓🐓🐓🐓🐓[राग विभास]🐓🐓🐓🐓🐓
हरि भज हरि भज, छाँड़ि न मान नर-तन कौ।
मत बंछै मत बंछै रे, तिल-तिल धन कौ॥
अनमाँग्यौं आगै आवैगौ, ज्यौं पल लागै पल कौं।
कहिं श्रीहरिदास मीचुज्यौंआवैंत्यौंधन हैआपुन कौं॥4॥ 🐠🐠🐠🐠🐠[राग विभास]🐠🐠🐠🐠🐠🐠
ए हरि, मो-सौ न बिगारन कौ, तो-सौ न सँवारन कौ, मोहिं-तोहिं परी होड़।कौन धौं जीतै, कौन धौं हारै, पर बदी न छोड़॥तुम्हारी माया बाजी विचित्र पसारी, मोहे सुर मुनि, का के भूले कोड़।कहिं श्रीहरिदास हम जीते, हारे तुम, तऊ न तोड़॥5॥
🌹🌹🌹🌹🌹[राग बिलावल]🌹🌹🌹🌹🌹
बंदे, अखत्यार भला।
चित न डुलाव, आव समाधि-भीतर, न होहु अगला॥
न फ़िर दर-दर पिदर-दर, न होहु अँधलाकहिंश्रीहरिदास करता किया सो हुआ, सुमेर अचल चला॥6॥
🌳🌳🌳🌳🌳[राग आसावरी]🌳🌳🌳🌳🌳
हित तौ कीजै कमलनैन सौं, जा हित के आगैं और हित लागै फ़ीकौ।कै हित कीजै साधु-संगति सौं, ज्यौं कलमष जाय सब जी कौ॥हरि कौ हित ऐसौ, जैसौ रंग मजीठ, संसार हित रंग कसूँभ दिन दुती कौ।कहिं श्रीहरिदास हित कीजै श्रीबिहारीजू सौं, और निबाहु जानि जी कौ॥7॥
🍁🍁🍁🍁🍁[राग आसावरी]🍁🍁🍁🍁🍁
तिनका ज्यौं बयार के बस।
ज्यौं चाहै त्यौं उड़ाय लै डारै, अपने रस॥
ब्रह्मलोक, सिवलोक और लोक अस।
कहिं श्रीहरिदास बिचारि देखौ, बिना बिहारी नाहिं जस॥8॥
🌴🌴🌴🌴🌴 [ राग आसावरी]🌴🌴🌴🌴🌴
संसार समुद्र, मनुष्य-मीन-नक्र-मगर, और जीव बहु बंदसि।मन बयार प्रेरे, स्नेह फ़ंद फ़ंदसि॥लोभ पिंजर, लोभी मरजिया, पदारथ चार खंद खंदसि।कहिं श्रीहरिदास तेई जीव पार भए, जे गहि रहे चरन आनंद-नंदसि॥9॥
🌿🌿🌿🌿🌿[राग आसावरी]🌿🌿🌿🌿🌿
हरि के नाम कौ आलस कत करत है रे, काल फ़िरत सर साँधे।बेर-कुबेर कछु नहिं जानत, चढ़्यौ रहत है कांधैं॥हीरा बहुत जवाहर संचे, कहा भयौ हस्ती दर बाँधैं।कहिं श्रीहरिदास महल में बनिता बनि ठाढ़ी भई, एकौ न चलत, जब आवत अंत की आँधैं॥10॥
🌷🌷🌷🌷🌷[राग आसावरी]🌷🌷🌷🌷🌷
देखौ इन लोगन की लावनि।
बूझत नाँहिं हरि चरन-कमल कौं, मिथ्या जनम गँवावनि॥जब जमदूत आइ घेरत, तब करत आप मन-भावनि।कहिं श्रीहरिदास तबहिं चिरजीवौ, जब कुंजबिहारी चितावनि॥11॥
🍀☘🍀🍀🍀[राग आसावरी]🍀☘🍀🍀🍀🍀
मन लगाय प्रीति कीजै, कर करवा सौं ब्रज-बीथिन दीजै सोहनी।वृन्दावन सौं, बन-उपवन सौं, गुंज-माल हाथ पोहनी॥गो गो-सुतन सौं, मृगी मृग-सुतन सौं, और तन नैंकु न जोहनी।श्रीहरिदास के स्वामी स्यामा-कुंजबिहारी सौं चित, ज्यौं सिर पर दोहनी॥12॥
🌹🌹🌹🌹🌹[राग आसावरी]🌹🌹🌹🌹🌹
हरि कौ ऐसौई सब खेल।मृग तृष्ना जग व्यापि रह्यौ है, कहूं बिजौरौ न बेल।धन-मद, जोवन-मद, राज-मद, ज्यौं पंछिन में डेल।कहिं श्रीहरिदास यहै जिय जानौ, तीरथ कौसौ मेल॥13॥
🌼🌼🌼🌼🌼 [राग कल्यान]🌼🌼🌼🌼🌼
झूँठी बात सांची करि-दिखावत हौ हरि नागर।
निस-दिन बुनत-उधेरत जात, प्रपंच कौ सागर॥
ठाठ बनाइ धरयौ मिहरी कौ, है पुरुष तैं आगर।सुनि श्रीहरिदास यहै जिय जानौ, सपने कौ सौ जागर॥14॥
🐿🐿🐿🐿🐿[राग कल्यान]🐿🐿🐿🐿🐿🐿
जगत प्रीति करि देखी, नाहिंनें गटी कौ कोऊ।
छत्रपति रंक लौं देखे, प्रकृति-विरोध बन्यौ नहीं कोऊ॥
दिन जो गये बहुत जनमनि के, ऐसैं जाउ जिन कोऊ।
कहिं श्रीहरिदास मीत भले पाये बिहारी, ऐसे पावौ सब कोऊ॥15॥
🐾🐾🐾🐾🐾 [राग कल्यान]🐾🐾🐾🐾🐾
लोग तौ भूलैं भलैं भूलैं, तुम जिनि भूलौ मालाधारी।
अपुनौ पति छँड़ि औरन सौं रति, ज्यों दारनि में दारी॥
स्याम कहत ते जीव मोते बिमुख भये, सोऊ कौन जिन दूसरी करि डारी।कहिं श्रीहरिदास जज्ञ-देवता-पितरन कों श्रद्धा भारी॥16॥
🔥🔥🔥🔥🔥🔥[राग कल्यान]🔥🔥🔥🔥🔥
जौलौं जीवै तौलौं हरि भज रे मन और बात सब बादि।
द्यौस चार के हला-भला में कहा लेइगौ लादि?
माया-मद, गुन-मद, जोवन-मद भूल्यौ नगर विवादि।
कहिं श्रीहरिदास लोभ चरपट भयौ, काहे की लगै फ़िरादि॥17॥
🌙🌞🌙🌞🌙🌞[राग कल्यान]🌞🌙🌞🌙🌞
प्रेम-समुद्र रूप-रस गहरे, कैसैं लागैं घाट।
बेकारयौं दै जान कहाव जान परे की
कहां परि बात ।काहूं को लर सूधोन परत मारता गाल गली गल हाट कहां श्री हरिदास बलिहारी तकत ओट पाट!!१८!🌷

Monday, 15 May 2017

वेणु माधुर्यता , कृपालु जी महाराज

राधे राधे..

'ब्रजभाव माधुर्य'
खंड : 'मधुर कृष्ण'

कृष्ण की वेणु (वंशी) माधुर्यता

श्रीकृष्ण की वंशी के सम्बन्ध में अनेक विचित्र बातें हैं. श्रीकृष्ण की यह वंशी समस्त जगत को आकृष्ट कर उन्हें स्तब्ध कर देती है. मुनि, महामुनि, तपस्वियों के ध्यान को भंग करने वाली यह वंशी ऐसी है जो गोपियों के चित्त को चुरा ले गई. महाकवि सूरदास जी की रचनाओं में गोपियों और वंशी के मध्य एक विचित्र सम्बन्ध चित्रित किया गया है कि गोपियाँ इस वंशी को अपनी सौत मानती हैं, क्योंकि वन के बाँस से बनी यह वंशी सदा कृष्ण के अधरों (होंठों) से लगी रहती है. प्यारी गोपियाँ यह दुःख मानती हैं कि वंशी के मोह में कृष्ण तो उन्हें भूल ही गए हैं.. एक रसिक ने लिखा है..

सुनति हौ कहा, भजि, जाहु घरै, बिंध जाओगी नैन के बानन में ।
यह बंसी 'निवाज' भरी विष सौं बगरावति है विष प्रानन में ।
अबहीं सुधि भुलिहौ भोरी भटू, भँवरौ जब मीठी-सी तानन में ।
कुलकानि जो आपनि राखि चहौ, दै रहौ अँगुरी दोउ कानन में ।।

एक महाभागा गोपी ब्रज में घूम घूमकर कहती है कि अरी सखियों ! अपने अपने घरों को चली जाओ और अपने कानों में अँगुली डाल लो, यह बंशी तो बज बजकर सारे ब्रज में जैसे विष फैला रही है जो हमारे प्राणों को हरने लगा है.

कृष्ण की वंशी 3 प्रकार की है - वेणु, मुरली तथा वंशी. वेणु बहुत छोटी होती है. यह 6 इंच से अधिक लंबी नहीं होती है और इसमें 6 छेद होते हैं. मुरली लगभग 18 इंच लंबी होती है, इसके सिरे पर एक छेद रहता है और पूरी मुरली में 4 छेद होते हैं. वंशी 15 इंच लंबी होती है और इसमें कुल 9 छेद होते हैं. कृष्ण समय समय पर आवश्यकतानुसार इन 3 प्रकार की वंशियों को बजाते हैं. कृष्ण के पास इससे भी लंबी वंशी थी जो 'महानंदा' या 'सम्मोहिनी' कहलाती है, मणिजड़ित वंशी को 'सम्मोहिनी' कहते हैं. इससे भी बड़ी वंशी 'आकर्षिणी' कहलाती है जो कि स्वर्ण निर्मित होती है. इससे और बड़ी वंशी 'आनंदिनी' कहलाती है जो कि ग्वाल सखाओं को अतिशय सुख देने वाली है.

जगद्गुरु कृपालु महाप्रभु विरचित 'प्रेम रस मदिरा' की 'मुरली माधुरी' में एक जीवात्मा कहती है कि जिस मुरली को सुनकर जड़ में चेतनता आ जाती है और चेतन में जड़ता आ जाती है, समस्त जगत में एक मैं ही ऐसी निश्चल पर्वत के समान बची हूँ जिस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा -

'जंगम जीव, भये जड़ सिगरे, जड़ जंगम सुनि तान ।
एक 'कृपालुहिं' बच्यो जगत महँ, निश्चल शैल समान ।।'
(प्रेम रस मदिरा, मुरली माधुरी, पद 7)*

श्री कृपालु महाप्रभु विरचित 'राधा गोविन्द गीत' में एक जीवात्मा प्रियतम कृष्ण से यह प्रार्थना करती हैं कि 'एक बार तो यह मुरली की ध्वनि सुना दो, भले ही चुपके से सुना दो, सौगंध खाती हूँ कि मैं किसी से नहीं कहूँगी.. वे लिखते हैं -

'मुरली की तान निज गोविन्द राधे,
किसी ते कहूँगी नहिं चुपके सुना दे..'
(राधा गोविन्द गीत, दोहा 143)*

श्रीकृष्ण में जो 4 माधुरी अधिक है उसमें से एक यह 'वेणु माधुरी' है. रसिकजनों के चित्त को चुराने वाली यह वंशी कृष्ण की अतिप्रिया है.

*सर्वाधिकार सुरक्षित : राधा गोविन्द समिति, नई दिल्ली

लेखन प्रस्तुति :
# सुश्री गोपिकेश्वरी देवी जी
# श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति

Sunday, 14 May 2017

मधुरं मधुरं मधुरं , कृष्णकर्णामृतं

*मधुरं मधुरं मधुरं ...*

मधुरं मधुरं वपुरस्य विभो-
र्मधुरं मधुरं वदनं मधुरम् ।
मधुगन्धि मृदुस्मितमेतदहो
मधुरं मधुरं मधुरं मधुरम् ।।

इन विभु अर्थात् अति व्यापक माधुर्यमय श्रीकृष्ण की देह मधुर मधुर अर्थात् अति सुमधुर है। फिर समस्त माधुरय के निलय श्रीमुख की ओर देखकर अति आश्चर्य से सिर हिलाकर बोले- यह वदन मधुर मधुर अतितर सुमधुर है। फिर उस वदन पर विश्वविमोहक हास्यमाधुरी देखकर सीत्कार कर उठे और उस हास्य की ओर संकेत कर अंगुली हिलाकर बोले- यह मृदुहास्य भी मधुर मधुर मधुर अतितम सुमधुर है। कैसी हँसी? जिनका मधुगन्धयुक्त मुखकमल है, उस मुखकमल का मकरन्द- स्वरूप सर्वमादक है यह हँसी। विशेष रूप से उन्मादक है व्रजसुन्दरियों के लिए। पूर्वराग की अवस्था में व्रजदेवयों की उक्ति प्रस्तुत करते हैं  ।
सामने स्फुरित विभु श्रीकृष्ण के अनन्त स्वरूपों में सहज रमणीय यह वपु अति मधुर है। राधारानी के साथ विलासी रूप अति रमणीय है।
“राधासंगे यदा भाति तदा मदनमोहनः ।
अन्यथा विश्वमोहोऽपि स्वयं मदनमोहितः ।।”
‘श्रीकृष्ण जब राधारानी के साथ होते हैं, तभी मदनमोहन हैं; किन्तु श्रीराधा के साथ न होने पर विश्वमोहन होते हुए भी वे मदन द्वारा हुए रहते हैं।’ उनका वपु या अग्ङ मधुर है। इसी प्रकार पहले अग्ङ मधुरता का वर्णन कर अवयवों की माधुरी का वर्णन किया है। उनका वदन महाकान्ति विशेष के उदय होने से मधुरादपि मधुर है। दृष्टि वाग- विलास आदि से अति मधुर है। ‘अहो’ शब्द आश्चर्य के लिये प्रयोग किया है। उनकी यह मृदु हँसी महामधुर से भी अति मधुर है, उससे भी मधुर है, मानो माधुरी का एक प्रवाह है। उसका हेतु है ‘मधुगन्धिमृदुस्मितम्’ जिसमें अपूर्व मधुगन्ध या सौरभधारा है, ऐसा मन्हास्य।
श्रील चैतन्यदास कहते हैं- राधारानी के साथ विलासी श्रीकृष्ण का माधुर्य अवलोकन कर श्रीलीलाशुक ने इस श्लोक में उसका वर्णन किया है। ये विभु हैं, जो रास आदि लीलाओं में सभी प्रकार का समाधान करते हैं। उनकी देह मधुर मधुर परम आस्वाघ होते हुए भी वे श्रीराधा के साथ विलासी हैं, तभी अतितर मधुर है। फिर श्रीमती की अधरसुधा की गन्ध से युक्त मृदु हास्य मधुर मधुर मधुर मधुर- अतितम मधुर है। श्रीपाद प्रबोधानन्द सरस्वती ने भी लिखा है- राधारानी के साथ विचित्र केलिमहोत्सव में उल्लासित, श्रीमती की मान आदि लीलाओं में उनके चरणतले प्रणत श्रीकृष्ण ही रसघन मोहन मूर्ति हैं- मैं उन्हीं श्रीहरि की वन्दना करता हूँ। । जयजय श्री श्यामाश्याम ।

Saturday, 13 May 2017

आज हरि बैठे सिंगार सँवारन

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*आज हरि बैठे सिंगार सँवारन ।*
*ललिते प्रिया सब अंग सिंगारी   पद छोरे हरि कारन ।१।*

*रूप माधुरी नखसिख बिखरी    लागे लाल निहारन ।*

*स्वामिनी कौ ठाकुर जाचक आतुर   पद रज पलक बुहारन ।२।*

*पायल बिछुवा सखी लाल दिये  तुवहि करावौ धारन ।*

*कृष्णचन्द्र राधा चरणदासि सुख    दीनों पाँय पखारन ।३।*

*जय हो नवल प्रिय जू लाल जू*

*प्रेम से कहिए जय जय श्री राधे*

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Tuesday, 9 May 2017

श्री राधा रानी चरणारविन्द

🌷👣 श्री राधा रानी के चरणारविन्द 👣🌷

🌷👣 राधा रानी जी का दायाँ चरण 👣🌷

राधारानी जी के दायाँचरण “आठ मंगल चिन्हों” से अलंकृत है—
‘शंख’, ‘गिरी’, ‘रथ’, ‘मीन’, ‘शक्ति-अस्त्र’, ‘गदा’, ‘यज्ञकुण्ड’, ‘रत्न-कुंडल’।

पादांगुष्ठ के मूल पर एक ‘शंख’ है. दूसरी एवं माध्यम अँगुली के नीचे एक ‘गिरी’ है. गिरी के नीचे मध्य में एडी की ओर एक ‘रथ’ है और एड़ी पर एक ‘मीन’ है, रथ के समीप पावं के भीतरी किनारे पर एक ‘शक्ति अस्त्र’ है. रथ के दूसरी ओर पावं के बाहरी किनारे के निकट एक‘गदा’ है. कनिष्ठा के नीचे एक ‘यज्ञकुण्ड’ है.और उसके नीचे एक ‘रत्न कुंडल’ है।

१. शंख - शंख विजय का प्रतीक है यह बताता है कि राधा-गोविंद के चरणकमलो की शरण ग्रहण करने वाले व्यक्ति सदैव दुख से बचे रहते है और अभय दान प्राप्त करते है।

२. गिरी  - यह बताता है यधपि गिरी-गोवर्धन की गिरिवर के रूप में व्रज में सर्वत्र पूजा होती है, तथापि गिरी-गोवर्धन विशेषकर राधिका की  चरण सेवा करते है।

३. रथ - यह चिन्ह बताता है, कि मन रूपी रथ को राधा के चरणकमलों में लगा कर सुगमता पूर्वक नियंत्रित किया जा सकता है।

४. मीन – जिस प्रकार मछली जल के बिना नहीं रह सकती, उसी प्रकार भक्तगण क्षण भर भी राधा-श्यामसुन्दर के चरणाम्बुजों के बिना नहीं रह सकते।

५. शक्ति  - यह एक भाले का घोतक है, जो व्यक्ति राधा जी कि शरण ग्रहण करता है उनके लिए श्री राधा के चरण प्रकट होकर सांसारिक जीवन के सभी अप्रिय बंधनों को काट डालते हैं।

६.गदा - यह चिन्ह सूचित करता है कि राधा के चरण पापमय काम रूपी हाथी को प्रताड़ित कर सकते है।

७. होम कुण्ड -  यह घोषित करता है कि राधा के चरणों का ध्यान करने वाले व्यक्ति के पाप इस प्रकार भस्म हो जाते है मानो वे यज्ञ वेदी में विघमान हो।

८. कुंडल - श्री कृष्ण के कर्ण सदा राधा जी के मंजुल नूपुरो कि ध्वनि और उनकी  वीणा के मादक रागों का श्रवण करते है।

🌷👣 राधा रानी जी का बायाँ चरण 👣🌷

राधा रानी जी का बायाँ चरण “ग्यारह शुभ चिन्हों” से सज्जित है.
"जौ, चक्र, छत्र, कंकण, ऊर्ध्वरेखा, कमल, ध्वज,  सुमन, पुष्पलता, अर्धचंद्र, अंकुश।"

पादांगुष्ठ के मूल पर “एक जौ” का दाना है उसके नीचे एक “चक्र” है, उसके नीचे एक “छत्र” है, और उसके नीचे एक “कंकण” है. एक “ऊर्ध्वरेखा” पावं के मध्य में प्रारंभ होती है, मध्यमा के नीचे एक “कमल” है, और उसके नीचे एक “ध्वज” है. ध्वज के नीचे एक “सुमन”है, और उसके नीचे “पुष्पलता” है, एड़ी पर एक चारु“अर्धचंद्र” है। कनिष्ठा के नीचे एक “अंकुश” अंकित है।

1. जौ का दाना - जौ का दाना व्यक्त करता है कि भक्तजन राधा कृष्ण के पदारविन्दो कि सेवा कर समस्त भोगो ऐश्वर्य प्राप्त करते हैं। एक बार उनका पदाश्रय प्राप्त कर लेने पर भक्त की अनेकानेक जन्म मरण कि यात्रा घट कर, जौ के दानो के समान बहुत छोटी हो जाती है।

2. चक्र - यह चिन्ह सूचित करता है कि राधा कृष्ण के चरण कमलों का ध्यान काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, और मात्सर्य, रूपी छै शत्रुओ का  नाश करता है। ये तेजस तत्व का प्रतीक है जिसके द्वारा राधा गोविंद भक्तों के अंतःकरण से पाप तिमिर को छिन्न-भिन्न कर देते हैं।

3. छत्र – छत्र यह सिद्ध करता है कि उनके चरणों कि शरण ग्रहण करने वाले भक्त भौतिक कष्टों कि अविराम वर्षा से बचे रहते हैं।

4. कंकण  - राधा के चरण सर्वदा कृष्ण के हाथो में रहते है (जब वे मान करती है तो कृष्ण चरण दबाते है) जिस प्रकार कंकण सदा हाथ में रहता है।

5. उर्ध्व रेखा – जो भक्त इस प्रकार राधा श्याम के पद कमलों से लिपटे रहते है, मानो वे उनकी जीवन रेखा हो वे दिव्य धाम को जाएँगे।

6. कमल - सरस सरसिज राधा गोविंद के चरणविंदो का ध्यान करने वाले मधुकर सद्रश भक्तो के मन में प्रेम हेतु लोभ उत्पन्न करता है।

7. ध्वज – ध्वज उन भक्तो कि भय से बचाता और सुरक्षा करता है जो उनके चरण सरसिज का ध्यान करते है विजय का प्रतीक है।

8. पुष्प - पुष्प दिखाता है कि राधा जी के चरणों कि दिव्य कीर्ति सर्वत्र एक सुमन सौरभ कि भांति फैलती है।

9. पुष्पलता  - यह चिन्ह बताता है कि किस प्रकार भक्तो की इच्छा लता तब तक बढती रहती है, जब तक वह श्रीमती राधा के चरणों की शरण ग्रहण नहीं कर लेती।

10. अर्धचंद्र – यह बताता है कि जिस प्रकार शिव जी जैसे देवताओं ने राधा गोविंद के चरणारविन्दों के तलवों से अपने शीश को शोभित किया है, इसी प्रकार जो भक्त इस प्रकार राधा और कृष्ण के पदाम्बुजो द्वारा अपने शीश को सुसज्जित करते हैं वे शिव जी के समान महान भक्त बन जाते हैं।

11. अंकुश - अंकुश इस बात का घोतक है कि राधा गोविद के चरणों का ध्यान भक्तो के मन रूपी गज को वश में करता है उसे सही मार्ग दिखाता है। इस प्रकार राधारानी के चरण सरसिज के “उन्नीस मंगल चिन्हों” का नित्य स्मरण किया जाता है।

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  🎪जय श्रीराधा रानी की🎪
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