Tuesday, 21 January 2020

वचनामृत सौरभ

*॥ श्री हरिदास ॥*

*वचनामृत सौरभ*

१. संसार के भयंकर त्रिविध तापानल से दग्ध प्राणियों पर कृपा करने के लिये श्री हरि स्वयं सन्त, गुरु, आचार्य रूप से प्रकट होकर भक्ति रस तत्त्व का उपदेश कर उनका कल्याण करते हैं।

२. प्रभु कृपा का मुख्य फल है--प्रेमी रसिक सदगुरु-सन्त का दर्शन, उपदेश, संग प्राप्त होना, और श्रद्धा-विश्वास सहित उनका अनुसरण करना।

३. ऐसे रसिक अनुरागी महानुभाव सन्तप्रदान अपना लें,मन्त्र दीक्षा देकर अपना स्वरूप प्रदान करें ,यह प्रभु की पूर्ण कृपा का स्वरूप हैं।

४. जिन परम भाग्यशाली पर ऐसी कृपा होती है, उसका हृदय सर्वथा चाह शून्य होकर अपने श्री हरि की लाड़-चाव-सेवा से पूर्ण हो जाता है।

५. जिनको ऐसा स्वरूप प्राप्त हुआ, उनकी बाहरी क्रिया-व्यवहार सब भगवत् धर्म-सिद्धान्त मय होते हैं, माने अपने गुरु-उपदिष्ट परम्परानुसार पाठ, पूजा,सेवा, स्वाध्याय-पठन, सत्संग, दर्शन और भजन-साधन आदि में अति उल्लास पूर्वक प्रेम होना।

६. इनमें भी अपने सेवामय निज स्वरूप को जानकर नाम जप और मानसी सेवा में तत्पर रहना सब साधन-सिद्धान्तों का सार है।

७. स्तोत्र, वाणी पाठ में अनन्त पुण्यफल एवं भक्ति, प्रेम, रस देने की सामर्थ्य है। इनका दृढ़ता से सदा सेवन करना चाहिये।

८. रसिक महानुभावों की वाणियाँ तो परात्पर परेश प्रभु श्री नित्य विहारी- जुगल के महामधुर रससार नित्य विहार रस से परिपूर्ण हैं। उनका सेवन करने में ऐसा लगता है, मानो उसी दुर्लभ रस में ही अवगाहन हो रहा है।

९. रस ग्रन्थों में इन्हीं दुर्लभ वस्तुओं का संग्रह है। सदा नित्य नियम से इनका सेवन कर अपने को कृतकृत्य करना चाहिये।

- *श्री स्वामी-रसिक-चरणरज किंकर*

*बाबा अलबेली शरण जु*

Wednesday, 15 January 2020

रागानुगा भक्ति

रागानुगा भक्ति रागात्मिका भक्ति की अनुगा है । रागात्मिका भक्ति है रागमयी ।

राग का अर्थ है इष्टवस्तु की सेवा के लिए गाढ़ तृष्णा - इतनी गाढ़ तृष्णा कि उसके बिना रहा ही न जाये , उसके लिए प्राण छटपटाये और उसके कारण इष्ट में परमाविष्टता हो जाये । आविष्टा का अर्थ है तन्मयता ।
आविष्ट अवस्था बाह्य स्थिति में नहीँ होती । मनुष्य जिस वस्तु में आविष्ट होता है , उससे उसका तादात्म्य हो जाता है और वह उसका जैसा ही व्यवहार करने लग जाता है । भुताविष्ट व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को भूल कर भुत जैसा व्यवहार करने लगता है ।
ऐसा ही इष्ट की आविष्टता में होता है , व्यक्ति अपने वर्तमान स्वरूप और बाह्य जगत को भूलकर इष्ट जैसा व्यवहार करने लगता है , उसकी अनुपस्थिति में उपस्थित जान सेवा में तन्मय रहता है ।

राग की तृष्णा साधारण या प्राकृत तृष्णा से पूरी तरह भिन्न है । साधारण तृष्णा अपने सुख के लिए होती है । राग की तृष्णा भगवान के सुख और उनकी सेवा के लिए । वह ही प्रेममय तृष्णा होती है ।

साधारण तृष्णा विषय वस्तु के प्राप्त होने से मिट जाती है । जल की प्यास जल पीने पर शांत होती है , पर इष्ट की सेवा की तृष्णा इष्ट या उनकी सेवा पाकर शांत नहीँ होती उसकी और वृद्धि होती है ।

रागात्मिका भक्ति है परम् स्वतन्त्रा और अन्य निरपेक्षा । स्वरूप शक्ति होते हुए भी यह शक्तिमान श्री कृष्ण की भी अपेक्षा नहीँ रखती । श्री कृष्ण स्वयं इसकी अपेक्षा रखते है , वें स्वयं ही इसके अधीन है । प्रभाव में यह श्री कृष्ण से भी अधिक गरीयसी है - "भक्तिवशः पुरुषः" । भक्ति रेव भूयसी ।

रागात्मिका भक्ति के आश्रय है नन्द, यशोदा , राधा, ललितादि जो श्री कृष्ण की स्वरूप शक्ति के मुर्त विग्रह, अनादि सिद्ध , अन्य निरपेक्ष ब्रजपरिकर के रूप में श्री कृष्ण के साथ उनके लीला स्थान ब्रजधाम में नित्य विराजमान है और जिनका ब्रजधाम से सजातीय सम्बन्ध है । वैसे ब्रज में नित्यसिद्ध और साधन सिद्ध जीव भी रहते है , पर वें रागात्मिका भक्ति के मुख्य आश्रय नहीँ है , क्योंकि वे न तो स्वरूप शक्ति के प्रकाश है , न अन्य निरपेक्ष हैं । वें जीव शक्ति के प्रकाश हैं और ब्रज में रहकर श्री कृष्ण की सेवा करने के साधन की और स्वरूप शक्ति की कृपा की अपेक्षा रखते हैं ।
रागानुगा -
रागनुगा भक्ति रागात्मिका की अनुगता है । इसका अर्थ कि रागानुगा भक्ति के आश्रयोँ के आनुगत्य में उनकी सहायता के रूप में की जाती है ।

जो जिस रागनुगा भक्ति के आश्रय है , वह उसी भाव की रागानुगा भक्ति के आश्रय के आनुगत्य में सेवा करता है ।

जीव का अधिकार रागानुगा भक्ति में ही है , रागात्मिका में नहीँ , क्योंकि वें वे स्वरूप से श्रीकृष्ण के नित्यदास हैं और दास की सेवा आनुगत्यमयी होती है ।

श्री कृष्ण की ओर से देखा जाए तो भी जीवों का रागात्मिका सेवा में कोई स्थान नहीँ है , क्योंकि श्रीकृष्ण हैं पूर्ण निरपेक्ष । वें स्वरूप शक्ति (श्रीराधा) के अतिरिक्त और किसी की अपेक्षा नहीँ रखते । स्वरूप शक्ति की कृपा से ही जीव कृष्णसेवा का अधिकार प्राप्त करता है ।

रूप गोस्वामी जी ने कहा है जिन साधकों में श्रीकृष्ण सेवा का लोभ होता है, वे ही रागानुगा साधन भक्ति के अधिकारी है । लोभ उत्प्नन होता है केवल-केवल कृपा से या भक्त कृपा से । जिस भाग्यवान व्यक्ति पर कृष्ण या उनके भक्त कृपा करते हैं उसमें ब्रज परिकरोँ की रागात्मिका सेवा की कथा सुनते सुनते उस प्रकार की कृष्णसेवा का लोभ हो जाता है ।

लोभ कर्तव्य-अकर्तव्य , शास्त्र के विधि और निषेध , योग्यता और अयोग्यता का विचार नहीँ करता । वह युक्ति या शास्त्र की नहीँ स्वपथ भक्त की और मूल अपने ही अन्तस् की सुनता है । -- जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।