-------------------श्री गुरू कृपा-----------------
.
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
( श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है,तत्व इसीलिए क्योकि गुरू किसी देह,समाज अथवा पंथ का नाम नही अतऐव सम्पूर्ण गुरू तत्व को ही मेरा प्रणाम है।)
।
परा जड: चेतन: , परा विद्यऽविद्ययै।
मति-गति मन: परै , भवादिरोग: निर्बाध्याम:।।
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(जड एवं चेतन से परे,विद्या और अविद्या से परे,मन एवं बुद्धि की गती से परे एवं भव आदि रोगो की बाधा से भी जो रहित है,ऐसे श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है)
।
सत्यं मूलं आन्नदित: , निजतानिजं दूरस्थितै।
नेम: तत्सुखम् एक: ,अन्य विधिनियम निषेध्याम:।।
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(जो वास्तविक आनंद के मूल एवं निज निजता से भी दर रहते है ,जिनका एकमात्र नियम केवल उनका(आराध्य)का सुख ही है एवं इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी विधि अथवा नियम जिनके लिए निषेध है,ऐसे श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है)
।
ताम् गूढ प्रति वक्तव्य: , दिशा निर्दिष्ट शरणागतै।
लक्ष्यप्राप्तं सेतू सर्वहित: , न-निरर्थक: कर्माभ्याम: ।।
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(जिनका प्रत्येक कथन अत्यधिक गहन होता है,इसी गहनता से जो शरण आए हुए की दिशा निर्देश करते है,जो सबके हित रुपी लक्ष्य को पूरा करने के सेतू है एवं जिनका कोई भी कार्य निर्रथक नही होता,ऐसे श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है)
।
देहि संदर्शनम् सौभाग्ययै,अंगसंगै तद् किं करै?
खलु मध्यम: च सज्जनै,समदृष्टि-सर्व कल्याणार्थाम:।।
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(जिनका केवल सुन्दर दर्शन ही सौभाग्य प्रदान करता है,तब यदि इनका अंग संग हमे प्राप्त हो जाए तो क्या ही होगा?
जिनकी दृष्टि दुष्ट,मध्यम एवं सज्जन सभी का समान रूप से कल्याण करती है,ऐसे श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है)
।
तेहि पदानुरागी अनुरागित: , प्राप्तुं यदि सुभागितै।
निश्चयं दृष्टि कृपाहित: , इतिहि "प्यारी" शुभाच्छयाम:।।
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(ऐसे गुरू चरण अनुरागियो का अनुराग भी यदि मुझे मिले तो मेरा सौभाग्य हो ओर मेरा दृढ विश्वास है की निश्चित रूप से ऐसा ही होगा,"प्यारी" की इसी शुभ इच्छा को लेकर श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है।)
।
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(ऐसे श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है)
।
श्री गुरू तत्वं प्रणाम्य्हम:।
(ऐसे श्री गुरू तत्व को मेरा प्रणाम है)
Friday, 9 August 2019
श्री गुरू कृपा ; प्यारी जू
तृषा वर्धनी - प्यारी जू
DO NOT SHARE
----------------" तृषा वर्धनी "-----------------
.
सर्व व्यापक: मम् अदृश्य लोचनै:,दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
(चारो ओर बसे हुए किंतु मेरे ही नेत्रो से ओझल हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
चक्षु देहिताम् त्वं समर्थ दृश्यतै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे ।।१।।
(जो आपको देखने मे समर्थ हो सके ऐसे नेत्र दीजिए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
.
संत्प्त: ह्रदय: अभाव दर्शनै , दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
(आपके दर्शनो के अभाव मे जली विरहाग्नि से ये हृदय जला जा रहा है अत: हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
ददाति च दृग: दर्शनार्थ: हृदयै,यथादृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।२।।
(और आपके दर्शनो के लिए मेरे इस हृदय को नेत्र प्रदान कीजिए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
.
धावति यत्र-तत्र कुत्र अस्माकमै:,दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
( आप मुझसे यहां वहां क्यू और कहां भाग रहे है हे श्री राधारमण हरि दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
सम गोपाङ्गनां नयन अवस्थितै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।३।।
(जिस प्रकार आप गोपियो के नयनो मे बस गए थे की उन्हे कुछ ओर दीखता ही नही था उसी प्रकार मेरे नयनो मे बस जाओ और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
.
न केवलं जीवित: मरणासन्न समयै, दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
(केवल जीवित रहते हुए ही नही बल्कि मेरी मृत्यु के अंतिम श्वास लेते समय भी आप हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
चिर स्थित: जन्म-मरण परै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।४।।
इस जन्म और मृत्यु से परे भी नित्य मुझमे स्थिर रह जाओ और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
.
आदि मम् च त्वं अन्त: , दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
( मेरा आरंभ और अंत आप ही तो है अत: हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
अभिन्नताऽर्हि अभिन्न प्रदर्शयतै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।५।।
(हम यदि अभिन्न है तो उस अभिन्नता को दिखाइए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
.
विलग न तद् किं अन्तरै , दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
( यदि हम दोनो जरा भी अलग नही है तब मुझे ये कैसी दूरी लगती है तो हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
देहि प्राण मन: त्वं समाहितै,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।६।।
इस शरीर प्राण एवं मन सबको आप अपने मे समा लिजिए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
.
उपरि उद्धृत: अंकित: सम्मति:,दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।
( ऊपर जो कुछ भी कहा गया है उस पर आप अपनी सहमति दे दीजिए और हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)
"प्यारी" याचनां सम्पूर्ण तव पदै:,यथा दृशा तृषा हरौ श्री राधारमण हरे।।७।।
(आपकी "प्यारी" की यह विनति आपके चरणो मे पूर्ण हो जाए और इस प्रकार हे श्री राधारमण हरि मेरी दर्शनो की इस प्यास को अब आप हर लो)