[8/3, 13:44] युगल तृषित: *‘जहाँ नायक-नायिका बरनन कियो है, नायक अपनौ सुख चाहै नाइका अपनौ रस चाहै, सो यह प्रेम न होइ, साधारण सुख भोग है। जब ताई अपनौ-अपनौ सुख चाहिये तब ताई प्रेम कहाँ पाईये। दोइ सुख, दोइ मन, दोइ रुचि, जब ताई प्रेम कहाँ पाईये है। दोइ सुख, दोइ मन, दोइ रुचि जब ताईं एक न होंइ तब ताई प्रेम कहाँ? ‘सर्वोपरि साधन यह है जो रसिक भक्त हैं तिनकी चरन रज बंदै। तिन सौं मिलि किशोरी-किशोर जू के रस की बातैं कहै, सुनै निशि दिन अरु पल-पल उनकी रूप माधुरी विचारत रहैं। यह अभ्यास छाँडे़ नहीं, आलस न करै। तौ रसिक भक्तनि कौ संग ऐसौ है आवश्यक प्रेम कौं अकुंर उपजै। जो कुसंग पशु तैं बचैं, जब ताईं अंकुर रहै। तब ता भजनई जल सौं सींच्यौ करै बारंबार। अरु सतसंग की बार दृढ़ कै करै तो प्रेम की बेलि हिय में बढ़ै। फूलै जड़ नीके गहै तौ चिन्ता कछु नाहीं यह ही यतन है।’*
[8/3, 13:55] युगल तृषित: *‘जब प्रेम सहित नवधा करै तब लीला, गुन, रूप श्रवन मात्र ही, गान तैं, सुमिरन तैं, चितवन मैं अश्रु, पुलक, रोमांच गदगद, कंप स्वेद, जाड्य, मूर्छा तब प्रेम कहावै। हृदय में अलौंकिक परमानंद सुख उपजै, ताकै आगे सर्व सुख तुच्छ लगैं। धन, राज्य, जस, पुत्र-कलत्र सुख ये तौ नस्वर ही हैं, मुक्ति सुख अविनासी हैं तेऊ तुच्छ लगैं, परमानंद के आगैं। तातै सर्वोपर यही सुख है।’*
[8/3, 14:29] युगल तृषित: ‘तहां रूप गरबीली प्यारी जू में कोई प्रेम की गरुई अवस्था आइ गई है तासौं भृकुटी चढ़ि रही है। ताहि सखी देखि मान सौ जानि मनाइ रही है और अंगुरी उठाइ दिखाइ रही है कै तिहारौ प्यारौ तिहारे सिंगार के हेत प्रेम सौं फूल बीन रह्यौ है, तुम ऐसे प्यारे सौं मान करि रही हौ ।………… अब भीतर श्रीहित अली जू, श्री सेवक अली और नागरीदासी जू, श्री नरवाहनी, ध्रूवदासी जू सहित बतरस मई मोद बढाइ रही है।
[8/3, 14:29] युगल तृषित: ‘चपंकबरनी कौ फूल कौ सिंगार, पीत सारी, लाल लहंगा, सोने के फूलनि की बूटी, श्याम कंचुकी सौं जमुना की पहल-कारी पर सोभा देखत हैं। जमुना में पुल बन्यौ है। तामें रंग-रंग के कटहरा बने है। ताके बीच जराऊ बंगला बन्यौ है। जमुना तैं कमल आदि लता फैलि कै सब छायौ है। फूल- फलि सब झूमि आइ झालरि भई है, ताकी जोति सब जल में, महल में, पहलकारी में फैली है। तामें निज सखी प्रिया पीय दोऊ अकेले ठाडे़ हैं।’
[8/3, 14:29] युगल तृषित: वह जु कोई परम अद्भुत अमोल मणिनु को हार ताहि, नीलाम्बर की ओट में सूं हाथ निकारि जब वरमाला पहिराई ता समै सगरी बरात की दृष्टि वाही और ही। सबनि जानी कै प्रथम तौ नीलाम्बर रूपी नव धन तै चन्द्रमान के कोटान-कोट समूहन के समूह उदै भये, न जानिये कोटानकोट समूहन के समूह बिजुरीन के, निश्चै न परी।’
‘रूप के सहदाने बजन लगे, छबि की नौबत झरन लगी, कटाक्षन की न्यौछाबर हौंन लगी, बिहार की सैना चतुरंगिनी सजि कै ठाड़ी होत हित के नगर में बधाई बजत भई।’
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