*प्रेमोन्माद*
प्रेमोन्माद
प्रेम में एक प्रकार का पागलपन होता है। ऊँचे प्रेमी प्रायः पागल देखे गये हैं। इस पागलपन में एक विशेष प्रकार का शान्तिमय आनन्द आया करता है, जिसका अनुभव पागल प्रेमी को ही हो सकता है-
There is a pleasure sure in being mad,
Which none but mad men know.
निश्चय ही पागल हो जाने में एक प्रकार का आनन्द है, जिसे केवल पागल ही जानते हैं। प्रेम की दीवानगी में जो चूर हो गया, समझ लो, उसका बेड़ा पार है। प्रेम की हाट में पागल ही पैर रखता है, क्योंकि वहाँ मुफ्त ही अपना सर बेचा जाता है। पगला मीर कहता है-
सौदाई हो तो रक्खे बाजारे इश्क में पा,
सर मुफ्त बेचते हैं, यह कुछ चलन है वाँका।
कुछ भी हो, तिजारती दुनिया तो इस काम को बेवकूफी में ही शुमार करेगी। भला यह भी कोई रोजगार है? सर जैसी महँगी चीज बिना मोल बेच डालना कहाँ की समझदारी है? न हो समझदारी, उन नासमझ पागलों को अपनी इस नासमझी में ही मजा आया करता है। पागलपन से भरी मूर्खता ही उनकी सच्ची समझदारी है-
How wise they are, that are but fools in lose.
भाई, जहाँ इश्क का जूनूँ हुकूमत कर रहा हो, प्रेम का उऩ्माद जहाँ का राजा हो, वहाँ बुद्धि अनधिकार प्रवेश कैसे कर सकेगी? जरूर ही वहाँ अक्ल मदाखलत बेजा के जुर्म में फँस जायेगी-
शोर मेरे जुनूँ का जिस जा है,
दखले अक्ल उस मुकाम में क्या है। -मीर
अक्ल भी एक बला है। बुद्धि का रोग बड़ा बुरा होता है। यह रोग प्रेम की मस्ती से ही अच्छा हो सकता है-
मैं मरीजे अक्ल था, मस्ती ने अच्छा कर दिया!
पगली सहजो ने प्रेमोन्मादियों का एक बड़ा ही सुंदर और सच्चा चित्र अंकित किया है। नीचे के लक्षण जिसमें मिलते हों, समझ लो कि वह एक प्रेमी है, एक पागल है, या दुनियाँ की नजर में एक खासा बेवकूफ है-
प्रेम दिवाने जे मये, मन भे चकनाचूर।
छके रहैं, घूमत रहैं, ‘सहजो’ देखि हुजूर।।
प्रेम दिवाने जे भय, कहैं बहकते बैन।
‘सहजो’ मुख हाँसी छुटै, कबहूँ टपकैं नैन।।
प्रेम दिवाने जे भये, जातिबरन गइ छूट।
‘सहजो’ जग बौंरा कहै, लोग गये सब फुट।।
प्रेम दिवाने जे भये, ‘सहजो’ डगमग देह।
पाँव परै कितकौ कहूँ, हरि सँवारि तब लेइ।।
कबहूँ हकधक ह्वै रहैं, उठैं प्रेम हित गाय।
‘सहजो’ आँख मुँदी रहै, कबहूँ सुधि ह्वै जाय।।
मन में तो आनँद रहै, तन बौरा सब अंग।
न काहू के संग हैं, ‘सहजो’ ना कोई संग।।
ऐसे होते हैं प्रेमोन्मादी। वह पगला अपनी खुदमस्ती में उछल कूद करने वाले शैतान मन को कुचलकर चूर चूर कर देता है। मन मातंग को वह प्रेम जंजीर से जकड़कर बाँध देता है। उसकी मस्ती के आगे मनरूपी मस्त हाथी मुर्दा सा पड़ा रहता है-
मन मतंग महमंत था, फिर नागहिर गंभीर।
दोहरी तेहरी, चौहरी परि गई प्रेम जंजीर।। - कबीर
वह पागल बकती सी बातें करता है, बिल्कुल बेमतलब, बेमानी। कबी खिलखिलाकर हँस पड़ता है, तो कभी आँसुओं का तार बाँध देता है। कौन जाने, किसलिए रोता और किसलिए हँसता है? पर इतना तो हम अवश्यक जानते हैं, कि वह रहता मौज में है। उसके रोने में भी रहस्य है और हँसने में भी रहस्य है।
प्रेमोन्मत्त भक्तवर सुतीक्ष्ण की सी कोटि की प्रेम विह्वलता को गोसाई तुलसीदास जी ने जिस कौशल से चित्रित किया है, वह देखते ही बनता है। अहा!
निर्भर प्रेममगन मुनि ज्ञानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी।।
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। ‘को मैं, चलेउँ कहाँ’ नहीं बूझा।।
कबहुँक फिरि पाछे पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई।।
उस पगले प्रेमी का जात पाँत से कोई नाता नहीं रह जाता। एक झटके से ही सब तोड़ ताड़कर अलग जा खड़ा होता है। लोग उसे पागल कहते हैं, और सका साथ छोड़ देते हैं। वह मस्तराम अपनी देहत को नहीं सँभाल सकता। रखना चाहता है पैर कहीं और पड़ता है कहीं! पर कुशल है, उसका प्यारा सदा उसके साथ रहता है। वही उसे गिरने पड़ने से संभाल लेता है। कभी चुप हो जाता है, कभी प्रीति के गीत गाने लगता है और कभी फूट फूटकर रोने लगता है! न जाने, किसका ध्यान करता है। कुछ पता नहीं चलता। बेसुध ही देखने में आता है। पर कभी कभी वह बेहोश पगला होशयार की तरह काम करने लगता है। उसके हृदय सिन्धु में आनन्द की हिलोरें उठा करती हैं। वह दीवाना न तो खुद ही किसी का साथ पसंद करता है, और न उसे ही कोई अपना संगी साथी बनाना चाहता है।
प्रेम का पागल कैसा मौजी जीव होता है, वह पगला मलूक अपनी प्रेम मस्ती में, सुनो जरा, क्या गा रहा है-
प्यारे, तेरा मैं दीदार दीवाना।
घड़ी घड़ी तुझे देखा चाहूं, सुन साहिब रहमाना।।
हूँ अलमस्त, खबर नहिं तनकी, पीया प्रेम पियाला।
ठाढ़ होऊँ तो गिरि गिरि परता, तेरे रँग मतवाला।
उधर कबीर बाबा भी अपनी धुन में मस्त होकर, अनुराग राग अलाप रहे हैं। वाह!
हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहैं आजाद या जगसे, हमन दुनिया से यारी क्या?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर बदर फिरते।
हमारा यार है हममें, हमन को इन्तिजारी क्या?
एक प्रेमोन्मादिनी गोपिका की प्रेम दशा को महाकवि देव ने क्या ही सफल कौशल के साथ अंकित किया है। कुँवर कान्ह की कहानी सुनकर बेचारी को उन्माद सा हो गया है। देखें, उस निठुर कान्ह को भी अब इस पगली की नेह कहानी सुनकर उन्माद होता है या नहीं-
जबतें कुँवर कान्ह रावरी कला निधान,
कान परी वाके कहूँ सुजस कहानी सी;
तबही तें ‘देव’ देखी देवता सी हँसति सी,
खीझति सी, रीझति सी, रूसति रिसानी सी।
छोही सी, छली सो, छीनि लीनी सी, छकी सी, छीन,
जकी सी, टकी सी, लगी, थकी, थहरानी सी;
बीधी सी, बधी सी, विष बूड़ी सी, विमोहित सी,
बैठी वह बकति बिलोकति बिकानी सी।।
उस साँवलिया के दरस की दीवानी, उस बांसुरी वाले के प्रेम की पगली आज इस हालत को पहुँच गयी है। प्रेम क्या से क्या कर देता है। वह अपने घर की रानी आज, बैठी, वह बकति बिलोकति बिकानी सी!
सहजो की सहोदरा दया ने भी प्रेम प्रीति के दीवाने पर कुछ साखियाँ कही हैं। कहती हैं-
‘दया’ प्रेम उन्मत्त जे तनकी तनि सुधि नाहिं।
झुकै रहैं हरि रस छके, थके नेम ब्रत नाहिं।।
प्रेम मगन गे साधुजन, तिन गति कही न जात।
रोय रोय गावत हँसत, ‘दया’ अटपटी बात।।
प्रेम मगन गद्गद बचन, पुलक रोम सब अंग।
पुलकि रह्यौ मनरूप में, ‘दया’ न ह्वै चित भंग।।
उस्ताद जौक का एक प्रसिद्ध शेर है। उसमें एक पागल कहता है कि मैं प्रेमोन्माद के महोदधि की लहर का वह केश पाश हूँ सारा संसार ही मेरे पेंचोखम में घिरा हुआ है। मेरी भावनाएँ जिन्होंने इस दुनिया को परेशान कर रक्खा है, चक्कर में डाल रखा है, उलझी हुई अलकावली के समान है। शेर यह है-
वह हूँ मैं गेसुए मौजे मुहीते आज़मे वहशत,
कि है घरे हुए रूये जिमीं को पेंचोखम मेरा।
कैसा ऊँचा रहस्यवाद है! कौन उलझने जायेगा प्रेम के दीवाने की इस उलझन में। पागल का यह पेंचोखम गूँगे का सा ख्वाब है, जिसका बयान नहीं हो सकता-
गूँगे का सा है ख्वाब बयाँ हो नहीं सकता।
जो प्रेम में दीवाने हैं, बेहोश हैं, वे ही तो असल में होशियार हैं। ऐसे सोते हुए दिलवाले ही तो जाग रहे हैं-
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जगर्ति संयमी। - गीता
मौलाना रूम ने क्या अच्छा कहा है कि ऐसे बेहोश दिलों पर तो भाई! जान तक निसार करने को जी चाहता है। पर यह दीवानगी, यह बेहोशी मिलती कैसे है? सुनो, अगर एक बार भी उस प्यारे राम की झलक पा जाओ, तो मैं दावे के साथ कहता हूँ कि तुम इतने मस्त या पागल हो जाओगे कि अपने दुनियाबी दिल और जिस्म में आग लगा दोगे। यह दावा किसी ऐसे वैसे आदमी का नहीं है, सूफी प्रेम के सूर्य मौलाना जलाल उद्दीन रूमी का है।
स्वामी रामतीर्थ के प्रेमोन्माद से तो आपलोग थोड़े बहुत परिचित होंगे ही। वह भी एक गजब का मस्त था, सच्चा प्रेमी था, पूरा पागल था। वह राम बादशाह सुनिये, क्या गा रहा है। वाह! आनन्द ही आनन्द है! क्या खूब मेरे प्यारे राम!
डटकर खड़ा हूँ, खौफ से खाली जाहान में।
तसकीने दिल भरी है मेरे दिल में जान में।।
गाह बगह दुनियाँ की छत पर हूँ तमाशा देखता।
गह बगह देता लगा हूँ बहिशियों की सी सदा।।
बादशाह दुनियाँ के हैं मुहरे मेरी शतरंज के।
दिल्लगी की चाल है, सब रंग सुलहो जंग के।।
रक्शे आदी से मेरे जब कपि उठती है जमीं।
देखकर मैं खिलखिलाता, कहकहाता हूँ वहीं।।
यही अवस्था तो है गीता की ‘ब्राह्मी स्थिति’। प्रेमोन्मत्त ही इस स्थिति का एकमात्र अधिकारी है। पगली दयाबाई ने बिल्कुल सच कहा है-
प्रेम मगन से साधूजन, बिन गति कही न जात।
रोय रोय गावत हँसत, ‘दया’ अटपटी बात।।
---- *वियोगी हरि*