Thursday, 30 August 2018

राधाकृष्णाष्टकम्

॥ राधाकृष्णाष्टकम् ॥

कृष्णप्रेममयी राधा राधाप्रेममयो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (१)
भावार्थ : श्रीराधारानी, भगवान श्रीकृष्ण में रमण करती हैं और भगवान श्रीकृष्ण, श्रीराधारानी में रमण करते हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (१)

कृष्णस्य द्रविणं राधा राधायाः द्रविणं हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (२)
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण की पूर्ण-सम्पदा श्रीराधारानी हैं और श्रीराधारानी का पूर्ण-धन श्रीकृष्ण हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (२)

कृष्णप्राणमयी राधा राधाप्राणमयो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (३)
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण के प्राण श्रीराधारानी के हृदय में बसते हैं और श्रीराधारानी के प्राण भगवान श्री कृष्ण के हृदय में बसते हैं , इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (३)

कृष्णद्रवामयी राधा राधाद्रवामयो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (४)
भावार्थ : भगवान श्रीकृष्ण के नाम से श्रीराधारानी प्रसन्न होती हैं और श्रीराधारानी के नाम से भगवान श्रीकृष्ण आनन्दित होते है, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (४)

कृष्ण गेहे स्थिता राधा राधा गेहे स्थितो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (५)
भावार्थ : श्रीराधारानी भगवान श्रीकृष्ण के शरीर में रहती हैं और भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधारानी के शरीर में रहते हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (५)

कृष्णचित्तस्थिता राधा राधाचित्स्थितो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (६)
भावार्थ : श्रीराधारानी के मन में भगवान श्रीकृष्ण विराजते हैं और भगवान श्रीकृष्ण के मन में श्रीराधारानी विराजती हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (५)

नीलाम्बरा धरा राधा पीताम्बरो धरो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (७)
भावार्थ : श्रीराधारानी नीलवर्ण के वस्त्र धारण करती हैं और भगवान श्रीकृष्णपीतवर्ण के वस्त्र धारण करते हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (७)

वृन्दावनेश्वरी राधा कृष्णो वृन्दावनेश्वरः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥ (८)
भावार्थ : श्रीराधारानी वृन्दावन की स्वामिनी हैं और भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन के स्वामी हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो। (८)

श्रीकुन्जबिहारी ! श्रीहरिदास !!
जय जय श्री राधे !

Sunday, 19 August 2018

विहार , तृषित

*विहार*
श्रीयुगल-विहार ...युगल के सुख की गाढ़ता रूप सघनता रहती यहाँ । सभी भाव और स्थितियाँ नित्य है । श्रीयुगल हिय निभृत रस में नित्य रह्वे । श्रीयुगल में परस्पर हियात्मक मिलन नित्य निभृत रस है । श्री सखियों के सुखार्थ निकुंज लीलाओं में श्रीयुगल निज भाव श्रृंगार झरण सखियों सँग अनन्त गुणित मधुरातीत मधुर भी नित्य रह्वे । सभी भाव श्रीयुगल रस रूपी इस कुँज की अनन्त-अनन्त भावनाओं के समूह में नित भरी रह्वे । यहां सखी-सखी हिय में भरी रससेवा रूपी भावनाएं अनन्त कुँज है (सुखविलास सेवा)। भाव एक कोमल फूल रूप है , कुँज में अनन्त फूलों के समूह है  (अर्थात् अनन्त भावों सँग उत्सवित सेवा है) और श्रीवृन्दावन अनन्त कुँजों का समूह है ।
युगल हृदय की मधुरता को अनुभव कर जब सेवा की मधुरता इतनी सघन होंवें की उसे अन्य से व्यक्त ना किया जा सकें तब निकुंज रस है ।
यहीं मधुरतम सेवाएँ जब और सघन-सहज-कोमल उज्ज्वल होंवें और उनका आस्वादन केवल श्रीयुगल में ही स्थिर रह्वे तब वह निभृत रस है । प्रेम का अत्यन्तम एकांकी सेवा भाव निभृत सुख है । यहाँ प्रेमास्पद का सुख ही विलसित होता है , प्रेमी को अपनी भी अनुभूति वहाँ रहती नहीं । श्रीयुगल नित्य ही अतिप्रगाढ़ मधुरता में भरें है । जहाँ वह अनन्त सखियों सन्मुख भी नित्य निभृत मधुरता में है । निभृत रस श्रीयुगल का नित्य विश्राम है और वह उनके नयनों में नित्य भरा ही रहता है । वैसे ही अत्यन्तम निभृत मधुरतम निभृत-सुख में भी उनके प्रेम-विहार सुख का ही परमाणु सम्पूर्ण कुँज-निकुंज सार समूह श्रीवृन्दावन का प्राण बिन्दु है , श्रीरसविलासी प्राणयुगल का निभृत उल्लास ही उनमें भरा है और उसकी सुगन्ध-मधुरता को भाँपकर - सहज ही अनन्त सेविकाएँ उनके हृदय की अनन्त भावनाओं को प्रेमरस की सेवा देती है (श्रीयुगल से यहीं रस चहुँ ओर प्रवाहित होता श्रीविहार में)। तृषित । बाह्य सब स्थितियों से छूटकर जब प्रीति पथ पर स्वयं की सत्ता भी नहीं रहती तब कुँज-निकुंज रस-वृन्द प्रकट होते है श्रीकिशोरी कृपा से । जितना विहार यहाँ अदृश्य है उतना ही वह वहाँ नित्यवृन्दावन में नित्य ही प्रकट रहता है । एक सुख है सम्पूर्ण श्रीवृन्दावन में श्रीयुगल का उत्तरोत्तर सघन उल्लास और नित्य युगलोत्सव की नव लालसा । जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।

Saturday, 18 August 2018

प्रेमोन्माद - वियोगी हरि

*प्रेमोन्माद*

प्रेमोन्माद

प्रेम में एक प्रकार का पागलपन होता है। ऊँचे प्रेमी प्रायः पागल देखे गये हैं। इस पागलपन में एक विशेष प्रकार का शान्तिमय आनन्द आया करता है, जिसका अनुभव पागल प्रेमी को ही हो सकता है-

There is a pleasure sure in being mad,
Which none but mad men know.

निश्चय ही पागल हो जाने में एक प्रकार का आनन्द है, जिसे केवल पागल ही जानते हैं। प्रेम की दीवानगी में जो चूर हो गया, समझ लो, उसका बेड़ा पार है। प्रेम की हाट में पागल ही पैर रखता है, क्योंकि वहाँ मुफ्त ही अपना सर बेचा जाता है। पगला मीर कहता है-

सौदाई हो तो रक्खे बाजारे इश्क में पा,
सर मुफ्त बेचते हैं, यह कुछ चलन है वाँका।

कुछ भी हो, तिजारती दुनिया तो इस काम को बेवकूफी में ही शुमार करेगी। भला यह भी कोई रोजगार है? सर जैसी महँगी चीज बिना मोल बेच डालना कहाँ की समझदारी है? न हो समझदारी, उन नासमझ पागलों को अपनी इस नासमझी में ही मजा आया करता है। पागलपन से भरी मूर्खता ही उनकी सच्ची समझदारी है-

How wise they are, that are but fools in lose.
भाई, जहाँ इश्क का जूनूँ हुकूमत कर रहा हो, प्रेम का उऩ्माद जहाँ का राजा हो, वहाँ बुद्धि अनधिकार प्रवेश कैसे कर सकेगी? जरूर ही वहाँ अक्ल मदाखलत बेजा के जुर्म में फँस जायेगी-
शोर मेरे जुनूँ का जिस जा है,
दखले अक्ल उस मुकाम में क्या है। -मीर

अक्ल भी एक बला है। बुद्धि का रोग बड़ा बुरा होता है। यह रोग प्रेम की मस्ती से ही अच्छा हो सकता है-

मैं मरीजे अक्ल था, मस्ती ने अच्छा कर दिया!
पगली सहजो ने प्रेमोन्मादियों का एक बड़ा ही सुंदर और सच्चा चित्र अंकित किया है। नीचे के लक्षण जिसमें मिलते हों, समझ लो कि वह एक प्रेमी है, एक पागल है, या दुनियाँ की नजर में एक खासा बेवकूफ है-

प्रेम दिवाने जे मये, मन भे चकनाचूर।
छके रहैं, घूमत रहैं, ‘सहजो’ देखि हुजूर।।
प्रेम दिवाने जे भय, कहैं बहकते बैन।
‘सहजो’ मुख हाँसी छुटै, कबहूँ टपकैं नैन।।
प्रेम दिवाने जे भये, जातिबरन गइ छूट।
‘सहजो’ जग बौंरा कहै, लोग गये सब फुट।।
प्रेम दिवाने जे भये, ‘सहजो’ डगमग देह।
पाँव परै कितकौ कहूँ, हरि सँवारि तब लेइ।।
कबहूँ हकधक ह्वै रहैं, उठैं प्रेम हित गाय।
‘सहजो’ आँख मुँदी रहै, कबहूँ सुधि ह्वै जाय।।
मन में तो आनँद रहै, तन बौरा सब अंग।
न काहू के संग हैं, ‘सहजो’ ना कोई संग।।
ऐसे होते हैं प्रेमोन्मादी। वह पगला अपनी खुदमस्ती में उछल कूद करने वाले शैतान मन को कुचलकर चूर चूर कर देता है। मन मातंग को वह प्रेम जंजीर से जकड़कर बाँध देता है। उसकी मस्ती के आगे मनरूपी मस्त हाथी मुर्दा सा पड़ा रहता है-

मन मतंग महमंत था, फिर नागहिर गंभीर।
दोहरी तेहरी, चौहरी परि गई प्रेम जंजीर।। - कबीर

वह पागल बकती सी बातें करता है, बिल्कुल बेमतलब, बेमानी। कबी खिलखिलाकर हँस पड़ता है, तो कभी आँसुओं का तार बाँध देता है। कौन जाने, किसलिए रोता और किसलिए हँसता है? पर इतना तो हम अवश्यक जानते हैं, कि वह रहता मौज में है। उसके रोने में भी रहस्य है और हँसने में भी रहस्य है।

प्रेमोन्मत्त भक्तवर सुतीक्ष्ण की सी कोटि की प्रेम विह्वलता को गोसाई तुलसीदास जी ने जिस कौशल से चित्रित किया है, वह देखते ही बनता है। अहा!

निर्भर प्रेममगन मुनि ज्ञानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी।।
दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। ‘को मैं, चलेउँ कहाँ’ नहीं बूझा।।
कबहुँक फिरि पाछे पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई।।

उस पगले प्रेमी का जात पाँत से कोई नाता नहीं रह जाता। एक झटके से ही सब तोड़ ताड़कर अलग जा खड़ा होता है। लोग उसे पागल कहते हैं, और सका साथ छोड़ देते हैं। वह मस्तराम अपनी देहत को नहीं सँभाल सकता। रखना चाहता है पैर कहीं और पड़ता है कहीं! पर कुशल है, उसका प्यारा सदा उसके साथ रहता है। वही उसे गिरने पड़ने से संभाल लेता है। कभी चुप हो जाता है, कभी प्रीति के गीत गाने लगता है और कभी फूट फूटकर रोने लगता है! न जाने, किसका ध्यान करता है। कुछ पता नहीं चलता। बेसुध ही देखने में आता है। पर कभी कभी वह बेहोश पगला होशयार की तरह काम करने लगता है। उसके हृदय सिन्धु में आनन्द की हिलोरें उठा करती हैं। वह दीवाना न तो खुद ही किसी का साथ पसंद करता है, और न उसे ही कोई अपना संगी साथी बनाना चाहता है।
प्रेम का पागल कैसा मौजी जीव होता है, वह पगला मलूक अपनी प्रेम मस्ती में, सुनो जरा, क्या गा रहा है-

प्यारे, तेरा मैं दीदार दीवाना।
घड़ी घड़ी तुझे देखा चाहूं, सुन साहिब रहमाना।।
हूँ अलमस्त, खबर नहिं तनकी, पीया प्रेम पियाला।
ठाढ़ होऊँ तो गिरि गिरि परता, तेरे रँग मतवाला।

उधर कबीर बाबा भी अपनी धुन में मस्त होकर, अनुराग राग अलाप रहे हैं। वाह!

हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या?
रहैं आजाद या जगसे, हमन दुनिया से यारी क्या?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर बदर फिरते।
हमारा यार है हममें, हमन को इन्तिजारी क्या?

एक प्रेमोन्मादिनी गोपिका की प्रेम दशा को महाकवि देव ने क्या ही सफल कौशल के साथ अंकित किया है। कुँवर कान्ह की कहानी सुनकर बेचारी को उन्माद सा हो गया है। देखें, उस निठुर कान्ह को भी अब इस पगली की नेह कहानी सुनकर उन्माद होता है या नहीं-
जबतें कुँवर कान्ह रावरी कला निधान,
कान परी वाके कहूँ सुजस कहानी सी;
तबही तें ‘देव’ देखी देवता सी हँसति सी,
खीझति सी, रीझति सी, रूसति रिसानी सी।
छोही सी, छली सो, छीनि लीनी सी, छकी सी, छीन,
जकी सी, टकी सी, लगी, थकी, थहरानी सी;
बीधी सी, बधी सी, विष बूड़ी सी, विमोहित सी,
बैठी वह बकति बिलोकति बिकानी सी।।

उस साँवलिया के दरस की दीवानी, उस बांसुरी वाले के प्रेम की पगली आज इस हालत को पहुँच गयी है। प्रेम क्या से क्या कर देता है। वह अपने घर की रानी आज, बैठी, वह बकति बिलोकति बिकानी सी!
सहजो की सहोदरा दया ने भी प्रेम प्रीति के दीवाने पर कुछ साखियाँ कही हैं। कहती हैं-

‘दया’ प्रेम उन्मत्त जे तनकी तनि सुधि नाहिं।
झुकै रहैं हरि रस छके, थके नेम ब्रत नाहिं।।
प्रेम मगन गे साधुजन, तिन गति कही न जात।
रोय रोय गावत हँसत, ‘दया’ अटपटी बात।।
प्रेम मगन गद्गद बचन, पुलक रोम सब अंग।
पुलकि रह्यौ मनरूप में, ‘दया’ न ह्वै चित भंग।।

उस्ताद जौक का एक प्रसिद्ध शेर है। उसमें एक पागल कहता है कि मैं प्रेमोन्माद के महोदधि की लहर का वह केश पाश हूँ सारा संसार ही मेरे पेंचोखम में घिरा हुआ है। मेरी भावनाएँ जिन्होंने इस दुनिया को परेशान कर रक्खा है, चक्कर में डाल रखा है, उलझी हुई अलकावली के समान है। शेर यह है-

वह हूँ मैं गेसुए मौजे मुहीते आज़मे वहशत,
कि है घरे हुए रूये जिमीं को पेंचोखम मेरा।

कैसा ऊँचा रहस्यवाद है! कौन उलझने जायेगा प्रेम के दीवाने की इस उलझन में। पागल का यह पेंचोखम गूँगे का सा ख्वाब है, जिसका बयान नहीं हो सकता-

गूँगे का सा है ख्वाब बयाँ हो नहीं सकता।
जो प्रेम में दीवाने हैं, बेहोश हैं, वे ही तो असल में होशियार हैं। ऐसे सोते हुए दिलवाले ही तो जाग रहे हैं-

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जगर्ति संयमी। - गीता
मौलाना रूम ने क्या अच्छा कहा है कि ऐसे बेहोश दिलों पर तो भाई! जान तक निसार करने को जी चाहता है। पर यह दीवानगी, यह बेहोशी मिलती कैसे है? सुनो, अगर एक बार भी उस प्यारे राम की झलक पा जाओ, तो मैं दावे के साथ कहता हूँ कि तुम इतने मस्त या पागल हो जाओगे कि अपने दुनियाबी दिल और जिस्म में आग लगा दोगे। यह दावा किसी ऐसे वैसे आदमी का नहीं है, सूफी प्रेम के सूर्य मौलाना जलाल उद्दीन रूमी का है।
स्वामी रामतीर्थ के प्रेमोन्माद से तो आपलोग थोड़े बहुत परिचित होंगे ही। वह भी एक गजब का मस्त था, सच्चा प्रेमी था, पूरा पागल था। वह राम बादशाह सुनिये, क्या गा रहा है। वाह! आनन्द ही आनन्द है! क्या खूब मेरे प्यारे राम!

डटकर खड़ा हूँ, खौफ से खाली जाहान में।
तसकीने दिल भरी है मेरे दिल में जान में।।
गाह बगह दुनियाँ की छत पर हूँ तमाशा देखता।
गह बगह देता लगा हूँ बहिशियों की सी सदा।।
बादशाह दुनियाँ के हैं मुहरे मेरी शतरंज के।
दिल्लगी की चाल है, सब रंग सुलहो जंग के।।
रक्शे आदी से मेरे जब कपि उठती है जमीं।
देखकर मैं खिलखिलाता, कहकहाता हूँ वहीं।।

यही अवस्था तो है गीता की ‘ब्राह्मी स्थिति’। प्रेमोन्मत्त ही इस स्थिति का एकमात्र अधिकारी है। पगली दयाबाई ने बिल्कुल सच कहा है-

प्रेम मगन से साधूजन, बिन गति कही न जात।
रोय रोय गावत हँसत, ‘दया’ अटपटी बात।।
---- *वियोगी हरि*

Friday, 3 August 2018

गद्य रस

[8/3, 13:44] युगल तृषित: *‘जहाँ नायक-नायिका बरनन कियो है, नायक अपनौ सुख चाहै नाइका अपनौ रस चाहै, सो यह प्रेम न होइ, साधारण सुख भोग है। जब ताई अपनौ-अपनौ सुख चाहिये तब ताई प्रेम कहाँ पाईये। दोइ सुख, दोइ मन, दोइ रुचि, जब ताई प्रेम कहाँ पाईये है। दोइ सुख, दोइ मन, दोइ रुचि जब ताईं एक न होंइ तब ताई प्रेम कहाँ? ‘सर्वोपरि साधन यह है जो रसिक भक्त हैं तिनकी चरन रज बंदै। तिन सौं मिलि किशोरी-किशोर जू के रस की बातैं कहै, सुनै निशि दिन अरु पल-पल उनकी रूप माधुरी विचारत रहैं। यह अभ्‍यास छाँडे़ नहीं, आलस न करै। तौ रसिक भक्तनि कौ संग ऐसौ है आवश्‍यक प्रेम कौं अकुंर उपजै। जो कुसंग पशु तैं बचैं, जब ताईं अंकुर रहै। तब ता भजनई जल सौं सींच्यौ करै बारंबार। अरु सतसंग की बार दृढ़ कै करै तो प्रेम की बेलि हिय में बढ़ै। फूलै जड़ नीके गहै तौ चिन्ता कछु नाहीं यह ही यतन है।’*
[8/3, 13:55] युगल तृषित: *‘जब प्रेम सहित नवधा करै तब लीला, गुन, रूप श्रवन मात्र ही, गान तैं, सुमिरन तैं, चितवन मैं अश्रु, पुलक, रोमांच गदगद, कंप स्वेद, जाड्य, मूर्छा तब प्रेम कहावै। हृदय में अलौंकिक परमानंद सुख उपजै, ताकै आगे सर्व सुख तुच्छ लगैं। धन, राज्य, जस, पुत्र-कलत्र सुख ये तौ नस्वर ही हैं, मुक्ति सुख अविनासी हैं तेऊ तुच्छ लगैं, परमानंद के आगैं। तातै सर्वोपर यही सुख है।’*
[8/3, 14:29] युगल तृषित: ‘तहां रूप गरबीली प्यारी जू में कोई प्रेम की गरुई अवस्था आइ गई है तासौं भृकुटी चढ़ि रही है। ताहि सखी देखि मान सौ जानि मनाइ रही है और अंगुरी उठाइ दिखाइ रही है कै तिहारौ प्यारौ तिहारे सिंगार के हेत प्रेम सौं फूल बीन रह्यौ है, तुम ऐसे प्यारे सौं मान करि रही हौ ।………… अब भीतर श्रीहित अली जू, श्री सेवक अली और नागरीदासी जू, श्री नरवाहनी, ध्रूवदासी जू सहित बतरस मई मोद बढाइ रही है।
[8/3, 14:29] युगल तृषित: ‘चपंकबरनी कौ फूल कौ सिंगार, पीत सारी, लाल लहंगा, सोने के फूलनि की बूटी, श्‍याम कंचुकी सौं जमुना की पहल-कारी पर सोभा देखत हैं। जमुना में पुल बन्यौ है। तामें रंग-रंग के कटहरा बने है। ताके बीच जराऊ बंगला बन्यौ है। जमुना तैं कमल आदि लता फैलि कै सब छायौ है। फूल- फलि सब झूमि आइ झालरि भई है, ताकी जोति सब जल में, महल में, पहलकारी में फैली है। तामें निज सखी प्रिया पीय दोऊ अकेले ठाडे़ हैं।’
[8/3, 14:29] युगल तृषित: वह जु कोई परम अद्भुत अमोल मणिनु को हार ताहि, नीलाम्बर की ओट में सूं हाथ निकारि जब वरमाला पहिराई ता समै सगरी बरात की दृष्टि वाही और ही। सबनि जानी कै प्रथम तौ नीलाम्बर रूपी नव धन तै चन्द्रमान के कोटान-कोट समूहन के समूह उदै भये, न जानिये कोटानकोट समूहन के समूह बिजुरीन के, निश्‍चै न परी।’

‘रूप के सहदाने बजन लगे, छबि की नौबत झरन लगी, कटाक्षन की न्यौछाबर हौंन लगी, बिहार की सैना चतुरंगिनी स‍जि कै ठाड़ी होत हित के नगर में बधाई बजत भई।’

Thursday, 2 August 2018

श्रीहरिदास का अर्थ

श्रीहरिदास का अर्थ :- "श्री" अर्थात परम शोभायमान  ...दिव्य गुणों से अलंकृत .... "ह" अर्थात हरा -श्रीराधा ....."र" अर्थात राधारमण माधव.... "इ" का मात्रा (ह  और र क बीच में होने से ) नित्यबिहार/नित्य  केलि-विलास  ...  "दास" अर्थात सखियाँ और वृंदावन (क्योंकि सखी ही यमुना पुलिन/वृक्ष /कोकिल /पुष्प /सुगन्धित समीर /कुञ्ज आदि बनि हुई है -श्यामा-श्याम के सुख के  लिए ) । इस प्रकार श्रीहरिदास नाम में संपूर्ण निभृत-निकुंज समाया हुआ है ।