विरह के भी तीन भेद है -१. भविष्य विरह, २. वर्त्तमान विरह, ३. और भूत विरह,
भावी बिरह बड़ा ही करुणोत्पादक है उससे भी दुखदायी वर्त्तमान विरह. भूत विरह तो दुख-सुख की पराकष्ठा से परे ही है.
१. भावी विरह – प्यारा कल चला जायेगा बस इस भाव के उदय होते ही जो कलेजे में एक प्रकार की ऐठन सी होने लगाती है उसी ऐठन का नाम भावी बिरह है .
भावी बिरह में राधिका जी कह रही है – मै क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, कुछ अच्छा नहीं लगता अरे ये निष्ठुर प्राण भी तो नहीं निकलते प्रियतम के लिये में किस देश मै जाऊँ, रात बीत जाने पर प्रातःकाल किसके कमल मुख की ओर निहारुँगी प्यारे तो दूर देश में जा रहे है में उनके विरह शोक में मर जाऊँगी.
२. वर्तमान विरह – जो अब तक अपने साथ रहा जिसके साथ रहकर भाती-भाती के सुख भोगे, विविध प्रकार के आनंद का अनुभव किया, वही जाने के लिये एकदम तैयार है उस समय दिल में एक प्रकार की धडकन होती है सीने में कोई मानो एक साथ सैकड़ो सुइयाँ चुभो रहा है उस ही ‘वर्तमान विरह’ कहते है .
३. भूत विरह – प्यारे चले गये अब उनसे फिर कभी भेंट होगी या नहीं, इसमें आशा-निराशा दोनों का सम्मिश्रण है. यदि मिलन की एकदम आशा ही ना रहे तो फिर जीवन का काम ही क्या? प्यारे के मिलने की आशा तो अवश्य है किन्तु पता नहीं वह कब पूरी होगी बस थोड़ी देर के लिये ही सही उनके दर्शन हो जाये बस इसी लालसा में वियोगनी अपना शरीर धारण किये रहती है . उस समय उसकी दशा विचित्र होती है .
इस विरह की दस दशाए बताये गयी है ये है – चिंता, जागरण, उद्वेग, कृशता, मलिनता, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, मोह, मृत्यु
१.चिंता - अपने प्यारे के ही विषय में सोते-जागते, उठते-बैठते, हर समय सोचते रहने का नाम चिंता है मन में दूसरे विचारों के लिये स्थान ही न रहे .
२.जागरण – न सोंने का ही नाम जागरण है. यदि विराहिणी क्षणभर के लिये निन्द्रा आ जाये तो वह स्वप्न में तो प्रियतम के दर्शन सुख का आनंद उठा ले. किन्तु उसकी आँखो में नींद कहाँ?
राधा जी एक सखी से कह रही है - प्यारी सखी . वे स्त्रियाँ धन्य है जो प्रियतम के दर्शन स्वप्न में तो कर लेती है मुझ दुःखिनी के भाग्य में तो यह सुख भी नहीं बदा है मेरी तो नीद श्री कृष्ण के साथ मथुरा चली गयी है वह मेरे पास आती ही नहीं .
३.उद्वेग – ह्रदय में जो एक प्रकार की हलचल जन्य बेकली-सी है उसी का नाम ‘उद्वेग’ है .
४.कृशता – प्यारे की याद में बिना खाए-पिए, दिन-रात, चिंता करने के कारण जो शरीर दुबला हो जाता है उसे ‘कृशता’ कहते है .
५.मलिनता – शरीर की सुधि ना होने के कारण शरीर पर मैल जमा हो जाता है, बाल चिकट जाते है, वस्त्र गंदे हो जाते है, इसे ही ‘मलिनता’ कहते है.
६.प्रलाप – शोक के आवेश में अपने-पराये को भूलकर जो पागलो की तरह भूली-भूली बाते करने लगता है उसका नाम ‘प्रलाप’ है.
७.व्याधि – शरीर में किसी कारण जो वेदना होती है उसे व्याधि कहते है राधा जी कहती है –हे सखी. उस गोपाल का विच्छेदज्वर मुझे बड़ी पीडा दे रहा है पृथ्वी पर जितने जहर है उन सवसे भी अधिक क्षोभ पहुँचाने वाला है, वज्र से भी दुःसह, हृदय में छिदे हुए शल्य से भी अधिक कष्टदायी है इसी का नाम विरह- व्याधि है .
८.उन्माद – साधारण चेष्ठाये जब बदल जाती है और विरह के आवेश में जब विरहिणी अटपटी और विचित्र चेष्ठाएँ करने लगती है तो उसे ही ‘विरहोन्माद’ कहते है. उद्धव जी मथुरा पहुँचकर कहते है हे कृष्ण राधिका जी की दशा क्या पूछते हो, उसकी दशा तो बड़ी विचित्र है, घर की भीतर घूमती रहती है बिना बात ही खिल-खिलाकर हँसने लगती है चेतनावस्था में हो या अचेतनावस्था में तुम्हारे ही सम्बन्ध के उद्गगार निकालती है .कभी धूलि में लोट जाती है, कभी थर-थर काँपने लगती है साँवरे की सनेह में सनी हुई एक सखी की कैसी विचित्र दशा हो गयी है –
“ भूली-सी, भ्रकी-सी, चौकी-सी, जकी-सी, थकी-सी गोपी, दुखी-सी, रहति कछु नाही सुधि देहकी |
मोही-सी, लुभाई-सी, कछु मोदक-सों खायो सदा बिसरी-सी, रहै नेकु खबर न गेहकी ||
रिसभरी रहै, कबौ फूली न समाति अंग, हँसि-हँसि कहै बात अधिक उमेहकी |
पूछेते खिसानी होय, उत्तर न आवै ताहि, जानी हम जानी है निसानी या सनेहकी ||
Tuesday, 14 November 2017
विरह के भी तीन भेद
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