Tuesday, 13 December 2016

अशरण - शरण शरण तव आय

अशरण - शरण शरण तव आयो |
भटकत रह्यों अनादि काल ते, ज्यों अनाथ जग अग जग जायो |
तजि तव चरणकमल कहुँ नेकहुँ, एकहुँ पल कहँ कल नहिं पायो |
गयो हारि जब दीन जानि मोहिं, रसिक जनन यह मरम बतायो |
भुक्ति मुक्ति सुख भार डारि अब, बनि मधुकर चरनन लिपटायो |
जब ‘कृपालु’ ह्वै गयो तिहारो, काल कर्म गुन सब खिसियायो ||
भावार्थ - हे अशरण शरण श्यामसुन्दर ! अब मैं तुम्हारी शरण में आ गया हूँ | अनादिकाल से आज तक अनाथ की भाँति चराचरात्मक इस संसार में बार – बार पैदा होकर सदा भटकता रहा | तुम्हारे परमानंदमय युगल चरणों का परित्याग करके, कहीं एक क्षण को भी थोड़ा भी चैन नहीं पाया | जब सब प्रकार से हार गया तब महापुरुषों ने मुझे दीन समझकर ‘आपकी शरण में ही चैन है’ यह रहस्य बताया | संसार के सुख एवं मुक्ति के सुख का भी सर्वथा परित्याग करके अब मैं आपके चरण कमलों में भौंरा बनकर लिपट गया हूँ | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं जब से तुम्हारी शरण में आकर तुम्हारा बन गया हूँ, तब से काल, कर्म एवं तीनों गुण सब खिसियाकर हाथ मींज रहे हैं अर्थात् काल, कर्म, गुण इन सबका कुछ भी वश नहीं चलता |

( प्रेम रस मदिरा दैन्य – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
#जयश्रीसीताराम

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