नित्यनिकुंजेश्वर व नित्यनिकुंजेश्वरी के नित्य विहार रमण में स्वयं श्री युगल ही तत्सुख हेतु एक अद्भुत भाव लीला का सफ्फुर्ण अपने ही विभिन्न स्वरूपों से करवाते हैं।पूर्णकाम पूर्णस्वचित्त पूर्णरसराज युगल एकरूपता को त्याग जब दो देहधारी रूप धर प्रकटते हैं तो उनके पूर्वराग हेतु उनके अंतस की कई उर्मियाँ श्रीनिकुंजस्थल की पावन धरा पर अवतरित होतीं हैं।
काम्यवन में मयूर मयूरी वेशधारी नट नटनागर श्यामा श्यामसुंदर जु विहर रहे हैं।पूर्वराग हेतु ललिता सखी जु कदम्ब तले वीणा वाद्य पर सुमधुर राग छेड़ देतीं हैं।जिसे सुन कीर कपोत मयूर विहंग सब आ इस अद्भुत वन में सुसज्जित होते हैं और प्रियतम श्यामसुंदर जु के दास दासी सेविका रूप निकुंज की रूपरेखा का वर्णन करते हैं।एक कमल के ऊपर ये मोरकुटी का उद्गम श्यामा श्यामसुंदर जु के मयूर रूप विहार के फलस्वरूप ही होता है।
ललिता सखी जु का अनहद् नाद अनगिनत भ्रमरों को पुष्पों से पराग लाकर निकुंज को सजाने हेतु आमंत्रित करता है।ये भ्रमर श्यामा श्यामसुंदर जु को मयूर मयूरी रूप धरे देख अत्यधिक प्रसन्नचित्त होते हैं ।
यहाँ श्रीनिकुंज की धरा की विलक्षणता स्वरूप यह कहना अनिवार्य होगा कि सम्पूर्ण निकुंज यहाँ के बेल पत्र कीर पक्षी रज अणु परमाणु श्यामा श्यामसुंदर जु से अभिन्न ही हैं और उनके ही भावों से परिपूर्ण हुए भावराज्य में विचरते ये श्यामा जु की सेवा हेतु सेव्यभावभावित हुए श्यामसुंदर जु ही हैं।अपनी प्रिया जु रसराजरानी को हर रूप से सेवारत होते हैं।जहाँ सखियाँ श्यामा जु की कायव्यूहरूप हैं ऐसे ही इस निकुंज की धराधाम पर विराजित हर जड़ सजीव रूप श्यामसुंदर भावस्वरूप ही हैं।
आज एक भ्रमरी ललिता सखी जु का राग सुन यहाँ आती है और मयूर मयूरी बने श्यामा श्यामसुंदर जु को विहरते देख उसके नयनों से एक अश्रुकण हिम कण रूप में गिरता है।यह हिमकण गिरते गिरते निकुंज पवन का स्पर्श पाकर भाव बन एक पत्र को छूते हुए जल रूप होता है और ललिता जु की वीणा की तारों पर गिर उनकी अंगुली का संस्पर्श इसे विकार संताप रहित कर रज अणु में तब्दील करता है।यह रज अणु धरा पर अन्यान्य रज अणुओं से मिल अपनी शीतलता से रसमय हो एक पराग कण में विकसित हो जाता है और इसकी ऊष्णता श्रीनिकुंज की धराधाम पर थिरक उठती है जिसमें से श्यामा श्यामसुंदर जु भावरूप सफ्फूरित होते हैं और आरम्भ होती है एक अद्भुत प्रेममयी गहन नृत्य लीला जिसका दर्शन मात्र ही प्रत्येक कण अणु का जीवनप्राण है।
इस रस रूप पराग कण पर कई भ्रमरियाँ विमोहित हुईं इसे अपने तन से लिपटा कर मधुर रूप में श्यामा श्यामसुंदर जु पर न्यौच्छावर हो जाना चाहतीं हैं।सरसता और सरलता से एक भ्रमरी इस सरस सरल पराग कण को अपने में समेट कर एक कर लेती है।प्रियाप्रियतम जु के प्रेममयी नृत्य से धरा पर होने वाली अनेकानेक पदकमल थापों से इन भ्रमरी व पराग कण में कितनी ही तरह से भिन्न भिन्न लीला सफ्फूरन होते हैं और ये बार बार कई बार पुष्प पर अपने को प्रेमलिप्त करते यंत्रचालित से सेवारत रहते हैं।
यहाँ श्यामा श्यामसुंदर जु के मयूर मयूरी नृत्य में अद्भुत सुंदर क्रीड़ाऐं होते होते गहराने लगतीं हैं और वहीं वह भ्रमरी व पराग कण भी रसगाढ़ता हेतु पूर्णरूपेण एक दूसरे में लिप्त होते हैं।आत्ममंथन व रस हेतु दो को एक होना आवश्यक है ही अन्यथा पूर्णता का अभाव रहता ही है।अंततः रसमयी भ्रमरी रसपराग कण में प्रगाढ़तावश हो समा जाती है और फिर होता है उद्घोष रसप्रेम की गहन परिसीमाओं से परे का तत्सुख रूप अभिन्न तांडव।
प्रियाप्रियतम जु का प्रेम रस रूप गहन नृत्य अपनी सब हदें तोड़ एकरूप हो एक दूसरे में समाने को आतुर और यहाँ यह भ्रमरी परागरस के प्रीतिरस से प्रगाढ़ता का गहन अनुशीलन कर इसे कमल पुष्प पर तत्सुख हेतु छोड़ स्वयं का देहाध्यास भूल न्यौच्छावर हो जाती है।
कमल के मध्य में श्यामा श्यामसुंदर जु की पद कमल थाप से मधुरसपूर्ण पराग उड़ उनके श्रीअंगों पर सुसज्जित होते हैं जो श्यामा श्यामसुंदर जु को मदहोश कर उन्हें गहन आकर्षण देते हैं।दो देह एक प्राण होने के लिए भ्रमरी परागकण कमल प्रियाप्रियतम जु का नृत्य और ललिता सखी जु का अनहद् नाद सब पूर्वराग ही तो हैं।
प्रगाढ़ता वश अब सब अपना अपना सेवारत कृत्य कर एक होने को।मधु रूपी गहन परागकण जो श्यामा जु के श्रीअंगों पर जा सजे हैं श्यामसुंदर जु मधुसूदन रूप इन मधुकणों को पीकर अपनी तृषा को बढ़ाने हेतु क्योंकि ये प्रेम तृषा अनवरत बढ़ती ही है श्यामा जु के अथाह रस समन्दर से अभिन्नता की स्थिति में आ चुके हैं और दोनों मधुमद पिपासु परस्पर मदहोश हुए से विश्राम पाते हैं एक नवपराग के संचार हेतु।विलीन होकर एक नव अनुराग के नवीन सफ्फूरन के लिए।।
जय जय श्यामाश्याम
जय जय वृंदावन प्रीतिरसधाम
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