Friday, 23 December 2016

श्रीब्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला

*श्रीब्रज-प्रेम-प्रशंसा-लीला*

श्रीकृष्ण- अहा, यह ब्रज बैकुंठ हू सौं उत्कृष्ट तथा मेरे निज धाम गोलोक हू सौं अति श्रेष्ठ सौंदर्यमय सोभा कूँ प्राप्त है रह्यौ है। यामें मेरी तनी ममता क्यों है याकौ हू उत्तर थोरे से सब्दन में यह है कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ अस्तु यह मेरी जन्मभूमि है।

संसार में तौ मैं पूज्यौ हूँ, किंतु या ब्रज में तौ मैं ही पुजारी बन्यौ हूँ और गोपी गोप गैयान की मैंने स्वयं ही पूजा करी है। वास्तव में या ब्रज कौ सौ बिलच्छन प्रेम कहूँ देखिबे में नहीं आयौ।

संक्षिप्त उदाहरण में मैया जसोदा दूध पिबायबे के समय म रे मुख सौं तौ दूध कौ कटोरौ लगाय देय है और ऊपर सौं थप्पर की ताड़ना दैकैं कहै है ‘अरे कन्हैया! कै तौ या सबरे दूध कूँ पी जैयो, नहीं तौ दारीके! तेरी चुटिया छोटी सी रहि जायगी। धन्य है या प्रेम कूँ! या प्रेम डोर में बँधि कै फिर मेरौ मन छूटिबे कूँ नहीं करै है।’
(रसिया)
कैसैहुँ छूटै नाहिं छाटायौ रसिया बँध्यौ प्रेम की डोर,
ऐसी प्रेममई ब्रजछटा घटा लखि नाचि उठै मन मोर।
मन मो स्वच्छंद फँस्यौ गोपिन के फंद,
कोई कहै ब्रज चंद, कोई आनंद कौ कंद।
नंद-जसुदा कौ लाल, कोई ग्वारिया गोपाल,
कोई जग-प्रतिपाल, कोई कंस कौ निकंद।
कंदहु ते मीठौ नाम एक कहैं प्यारौ माखनचोर ।।1।।
प्रेम- राज्य कौ सब सौं सुंदर तथा मधुर नाम मेरौ यह माखनचोर है। माया-राज्यवारेन कँ तो यह नाम ऐसौ लगै है जैसैं खीर में नौन। किंतु- ‘कर्तुं अकर्तु अन्यथा कर्तुं समर्थ ईश्वरः’- यह तौ मोकूँ और ही रूप सौं सोभा देय है। वास्तव में या ब्रज में मेरी ईस्वरता के उपासक नहीं है! किंतु यहाँ तौ ब्रजवासिन कौ स्वामी, सेवक, पुत्र, सखा- जो कछु हूँ सो मैं ही हूँ! यहाँ ईस्वर तौ मेरे पासहू नहिं फटकि सकै है। तौहू कछु एक दिना मोकूँ अपनी ईस्वरता कौ अभिमान है गयौ; क्योंकि मैंने-
(रसिया)
गिरि कूँ पुजाय, इंद्र-यज्ञ कूँ मिटाय,
लियौ ब्रज कू बचाय मैंटि व्याल-अग्नि ब्याधि।
ब्याधि मैंटि गर्व आयौ, मैंने गिरि कूँ उठायौ,
एक गोपी ने सुनायौ तेरी सब झूठी साध।।
तब मैंने कही- ‘क्यों!’ तब वा गोपी ने तुरंत उत्तर दियौ-
(रसिया)
राधे ने गिरिधर गिरि समेत लियौ धारि भौंह की ओर ।।2।।
वाने कही- ‘कन्हैया’ तैनें तो केवल गिरिराज ही उठायौ हौ, किंतु हमारी रासेस्वरी-सर्वेस्वरी राधा ने तौ तो समेत गिरिराज सात दिन, सात रात ताईं अपन एक भौंह की कोर पै ही डाट्यौ हौ, नहं तौ वाकौ बोझ तेरे बाप पै हू नहीं झिलतौ! अहा, धन्य है या प्रेम कूँ! वास्तव में मेरौ भक्त अनन्य हैकैं मेरौ भजन करै है, तौ मैं वाकूँ कछु दै दऊँ हूँ या कछु उपकार कर दऊँ हूँ। जैसें-
(रसिया)
धुव नें रिझायौ, ऊँचे पद पै बैठायौ,
प्रहलाद नें बुलायौ, दियौ बाप ते बचाय।
चाव गनिका ने धार्यौ, ताकूँ सूवा संग तार्यौ,
नाहिं सबरी ने हार्यौ, दई धाम कूँ पठाय।।
अस्तु, मैंने सबके रिन चुकाय दिये, परंतु या-
ब्रज की चुरुआ भर छाछ बनाय लियौ रिनियाँ नंद-किसोर ।।3।।
या ब्रज की चुरुवा भर कौ बदलौ मैं स्वयं विश्वंभर है कैं हूँ नहीं चुकाय
सक्यौ। तबही तौ मोकूँ इन ब्रजदेवीन की हाथ जोरि कैं बिनती करनी परी-

(श्लोक)
न पारयेऽहं निवद्यसंयुजां स्वसाधुकृत्यं बिबुघायुषापि वः।
या मा भजन् दुर्जरगेहश्रृंखलाः संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुना।।
हे ब्रजदेवियौ, यदि मेरी देवतान की सी आयु होय, तौहू मैं तुम्हारी या चुरुवा भर छाछ कौ बदलौ नहीं चुकाय सकूँ हूँ! याही सौं मैं तुम्हारौ जन्म-जन्मान्तर रिनियाँ रहूँगौ, क्योंकि मैं तौ-
भाव सौं बँधाऊँ, प्रेम प्रीत में बिकाऊँ,
नहिं धन सों अघाऊँ भक्ति चाहूँ मैं अनन।
अन्य भाव सौं न नेह, तजि भूपति कौ गेह,
साक-पात सौं सनेह, फल-पत्र-पुष्प-कन।।
अनुदिन रज-सेवी स्याम तुच्छ ता आगैं लाख-करोर।।4।।

Thursday, 22 December 2016

युगल नामावली नित्य पाठ

अथ श्री युगल नामावली
~~~~~~~~~~~~~

जामिनी जाम जबै रहै , सोवत ते तबे जाग ।
जुगल नाम माधुर्य के , उठि भाखे बडिभाग ।। 1।।

स्यामा कुंजबिहारिणी , कुञ्ज बिहारी स्याम ।
पति मन हरनी माननी , सुंदर मोहन काम ।। 2।।

रास विलासिनी राधिका , नागर नृत्य निधान ।
प्रिया सहचरि स्वामिनी ,प्रीतम सहचरि प्रान।।3।।

ललित लड़ैती रसिकिनी ,रसिक लाड़िले लाल।
गौरांगी हरिवल्लभा , जलधर कांति रसाल ।। 4।।

चारु चन्द्रिका मौलिनी , धारिनी नील निचोल ।
सीस सिखण्डी मुकटधर ,धरपटपीत अमोल ।। 5 ।।

तन्वी तरुणी चूडमनि , कोमल तरुन अवतंस।
मनि बल्यावलि धारिनी , भुजधर प्यासी अंस ।। 6।।

चन्द्रमुखी चंचल चखी ,तृभंगि रमनीय ।
पिकभाषिनि सुधाधरी ,कृष्णचन्द्र कमनीय ।। 7।।

नासा बेसर धारिनी ,प्यारी जलज बुलाक ।
सुकुमारी सुसिमत् मुखी ,मूक मधुर मृदु वाक।। 8।।

नागरी नाहु विमोहनी ,नटवर कला प्रवीन।
श्रीफलतुल्यपयोधरी , वक्षस्थल कल पीन ।। 9।।

पृथु नितमि्बनी कृसकटी ,धारिनि रसना जाल ।
पग मनि नुपुर भूषिता , गामिनी गमन मराल ।। 10।।

भूषित मध्यम किंकिनी , मोहन कछनी धार ।
रंजित पद मंजीर मनी ,गामी गजगति चार ।। 11 ।।

जमुना जल क्रीड़ावती , पुलिन गामिनी नित्त ।
वृन्दरन्य विहार रत, हरन कामिनी चित्त ।। 12 ।।

नवल किसोरी कोमला , अलकलड़ी अलबेलि ।
छबिनिधि रसनिधि रूपनिधि ,सोभनिधि रसकेलि ।। 13 ।।

राधा मुख पंकज भँवर ,कामी कुंवर किसोर।
गर्वी गर्वित नैन हरि ,रमनी घन मन मोर ||14 ।।

वीना नाद विमोहिनी, मोहन मुरली नाद ।
अद्भुत नित्त नवजोवना , पूर्न मदन उन्माद ।।15।।

पति विपरीत रतिदायनी ,पति नित करनी निहाल ।
वल्लभ सोक निवारिनी , वल्लभ उर वरमाल ।। 16 ।।

अलि मंडल मंडन सदा ,सुरति सिंधु कल केलि।
स्यामल अंग तमाल तरु ,सोहनि कंचन बेलि ।। 17 ।।

निज चर्बित ताम्बुल रस ,प्रीतम आनन्द दैन ।
चरननि जावक रंजनी , प्रीतम मन हरि लैन ।। 18।।

मकराकृत कुण्डल धरन ,वन मालाधर ग्रीव ।
रंगी मदन विसालमय , मन्मथ आनन्द सींव ।। 19।।

निधुवनमनि श्रीहरिदास हित ,श्रीवृन्दावनचन्द ।
बिहरत बिछरि न एक पल ,काम केलि रस कन्द ।। 20।।

नव निकुंज नृप वर महिषि ,नवनिकुंज वर भूप ।
नित्यविहार सु एकरस ,राज अखण्ड अनूप ।। 21 ।।

अष्टोत्तर सत मधुर रस,जुगल नाम की दाम ।
प्रात पीवतहि जीह पुट ,पूरन सकल मन काम ।। 22।।

Tuesday, 13 December 2016

अशरण - शरण शरण तव आय

अशरण - शरण शरण तव आयो |
भटकत रह्यों अनादि काल ते, ज्यों अनाथ जग अग जग जायो |
तजि तव चरणकमल कहुँ नेकहुँ, एकहुँ पल कहँ कल नहिं पायो |
गयो हारि जब दीन जानि मोहिं, रसिक जनन यह मरम बतायो |
भुक्ति मुक्ति सुख भार डारि अब, बनि मधुकर चरनन लिपटायो |
जब ‘कृपालु’ ह्वै गयो तिहारो, काल कर्म गुन सब खिसियायो ||
भावार्थ - हे अशरण शरण श्यामसुन्दर ! अब मैं तुम्हारी शरण में आ गया हूँ | अनादिकाल से आज तक अनाथ की भाँति चराचरात्मक इस संसार में बार – बार पैदा होकर सदा भटकता रहा | तुम्हारे परमानंदमय युगल चरणों का परित्याग करके, कहीं एक क्षण को भी थोड़ा भी चैन नहीं पाया | जब सब प्रकार से हार गया तब महापुरुषों ने मुझे दीन समझकर ‘आपकी शरण में ही चैन है’ यह रहस्य बताया | संसार के सुख एवं मुक्ति के सुख का भी सर्वथा परित्याग करके अब मैं आपके चरण कमलों में भौंरा बनकर लिपट गया हूँ | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं कि मैं जब से तुम्हारी शरण में आकर तुम्हारा बन गया हूँ, तब से काल, कर्म एवं तीनों गुण सब खिसियाकर हाथ मींज रहे हैं अर्थात् काल, कर्म, गुण इन सबका कुछ भी वश नहीं चलता |

( प्रेम रस मदिरा दैन्य – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
#जयश्रीसीताराम

Monday, 12 December 2016

महाभाव दिनमणि लिंक श्रीराधा बाबा

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Sunday, 11 December 2016

नींद तोहि बेचूँगी,आली

🌿🌸नींद तोहि बेचूँगी,आली!🌸🌿
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एक भक्त का पद है, जिसकी प्रथम पंक्ति है --

"नींद तोहि बेचूँगी, आली! जो कोई ग्राहक होय।"

इस पर विचार करें।

प्रेमरसभावितमति ब्रजसुन्दरियाँ अपना व्यवहारिक ज्ञान यहाँ तक खो बैठती हैं कि उन्हे प्रतीत होने लगता है - नींद भी खरीद-बिक्री की एक वस्तु है।

वास्तव में तो तमोगुण से उत्त्पन्न होने वाली निद्रा श्रीकृष्ण की स्वरूपभूता ब्रजसुन्दरियों को स्पर्श ही नही कर सकती।
अपने प्रियतम श्यामसुन्दर के चिंतन में वृत्तियों के सर्वथा तन्मय हो जाने पर वे आत्मविस्मृत हो जाती हैं। इस आत्मविस्मृति को ही वे निद्रा मान लेती हैं।

सुषुप्ति की भाँति अज्ञान में उनकी वृतियां लीन हों, ऐसी उनकी निद्रा नहीं। उनकी चित्तभूमि में तो सोते समय भी नित्य निरन्तर अखण्ड श्रीकृष्ण स्फुरण होता ही रहता है -

"चलत चितवत, दिवस जागत, सुपन सोवत रात।
हृदय ते वह स्याम मूरति छिन न इत उत जात।"

ऐसी अनोखी निद्रा में ही एक गोपी विभोर थी --

प्रियतम श्री कृष्ण के चिंतन में अपने आपको भूली हुई शयन-पर्यंक पर अवस्थित थी।

उसी समय लीलाबिहारी आये, सर्वथा समीप तक आये। उन्होने गोपी को देखा, वे उसके पास कुछ कषण खड़े रहे, पर उसे उन्होने जगाया नही। बल्कि मिलनोत्कंठा बढाकर अधिकाधिक सुख देने के उद्देश्य से वे लौट गये।

उनके लौटते ही ब्रजसुन्दरी के हृदय-तन्तु उन्ही से नित्य जुड़े रहने के कारण खिंच-से गये और ब्रजसुन्दरी भाव-समाधि से जाग उठी।

अभी भी प्राणनाथ तन्तुओं को आकर्षित कर रहे थे। इसीलिए गोपी व्याकुल होकर प्रांगण की ओर दौड़ पडी। वहाँ देखा --

बिखरे हुए गुलाल पर चक्र, छत्र, यव, अंकुश, ध्वज आदि चिन्हों से युक्त प्रियतम के पदतल अंकित हैं।

अब तो गोपी के दुःख का पार नहीं --

'आह ! प्रियतम आँगन में आये और लौट गये और तुम री नींद! अरी बैरिन !! मुझे सुलाये रखा ? री तुझे लज्जा नही आती ?
तू मेरी सखि थी न ? मेरी व्यथा हरने आया करती थी और इसी के मूल्य में तुमने मेरे प्रियतम के दर्शन-सुख को हर लिया !
क्यों ? ठीक है न ? अच्छी बात है। सखी! मैने भर पाया। अब तु यहाँ से जा।

नहीं, नहीं। ठहर जा। यों तू पुनः मेरे पास आ जायेगी। इस वृन्दावन में तुझे पूछता ही कौन है, लौटकर पुनः मेरी ही वञ्चना करेगी।

इसीलिये सखी ! मैं तो तुझे बेच दूँगी -- किसी चाहने वाले के अधीन कर दूँगी, जिससे तू लौट न सके।

पर तेरा ग्राहक ब्रज में है कहाँ ?

हाय ! हाय !! कदाचित कोई तेरा ग्राहक मिल जाय तो नींद सखी! उसके हाथ तुझे बेचकर मैं अपना पिण्ड छुड़ा लूँगी।

बड़भागिनी ब्रजसुन्दरी श्री कृष्ण दर्शन में बाधा पाकर नींद जैसी वस्तु को भी बेचने का संकल्प कर रही है, पर हम लोग इतने अभागे हैं कि प्रत्यक्ष में जो वस्तुऐं श्री कृष्ण दर्शन में निरन्तर बाधक हैं उन्हे चाह-चाहकर, बुला-बुलाकर हृदय से लगाये रहते हैं और उनके न मिलने पर दुःखी होते रहते हैं।

( परमसिद्ध संत श्री राधाबाबा का कृपा प्रसाद)
🌻🍃👏👏👏👏👏🍃🌻

बेच आई निंदिया सखी बजार।
बहुत दिनन या ने मोय सतायो,या को कर दई बंटा धार।
जबहि सखी प्रीतम मग जोहती,आय बैठती नैनन द्वार।
आजु आनंद या कू बड्यौ छकायौ,दई दीन्ही ऐकौ खरीदार।
अब हे सखी रैन रैन जागूगी,रहू रैन पिय मुखडा निहार।
कर बिनती प्यारी कहे,कोऊ लै लौ भी निंदिया हमार।

Saturday, 10 December 2016

निकुंज पराग , संगिनी भाव

नित्यनिकुंजेश्वर व नित्यनिकुंजेश्वरी के नित्य विहार रमण में स्वयं श्री युगल ही तत्सुख हेतु एक अद्भुत भाव लीला का सफ्फुर्ण अपने ही विभिन्न स्वरूपों से करवाते हैं।पूर्णकाम पूर्णस्वचित्त पूर्णरसराज युगल एकरूपता को त्याग जब दो देहधारी रूप धर प्रकटते हैं तो उनके पूर्वराग हेतु उनके अंतस की कई उर्मियाँ श्रीनिकुंजस्थल की पावन धरा पर अवतरित होतीं हैं।
  काम्यवन में मयूर मयूरी वेशधारी नट नटनागर श्यामा श्यामसुंदर जु विहर रहे हैं।पूर्वराग हेतु ललिता सखी जु कदम्ब तले वीणा वाद्य पर सुमधुर राग छेड़ देतीं हैं।जिसे सुन कीर कपोत मयूर विहंग सब आ इस अद्भुत वन में सुसज्जित होते हैं और प्रियतम श्यामसुंदर जु के दास दासी सेविका रूप निकुंज की रूपरेखा का वर्णन करते हैं।एक कमल के ऊपर ये मोरकुटी का उद्गम श्यामा श्यामसुंदर जु के मयूर रूप विहार के फलस्वरूप ही होता है।
    ललिता सखी जु का अनहद् नाद अनगिनत भ्रमरों को पुष्पों से पराग लाकर निकुंज को सजाने हेतु आमंत्रित करता है।ये भ्रमर श्यामा श्यामसुंदर जु को मयूर मयूरी रूप धरे देख अत्यधिक प्रसन्नचित्त होते हैं ।
    यहाँ श्रीनिकुंज की धरा की विलक्षणता स्वरूप यह कहना अनिवार्य होगा कि सम्पूर्ण निकुंज यहाँ के बेल पत्र कीर पक्षी रज अणु परमाणु श्यामा श्यामसुंदर जु से अभिन्न ही हैं और उनके ही भावों से परिपूर्ण हुए भावराज्य में विचरते ये श्यामा जु की सेवा हेतु सेव्यभावभावित हुए श्यामसुंदर जु ही हैं।अपनी प्रिया जु रसराजरानी को हर रूप से सेवारत होते हैं।जहाँ सखियाँ श्यामा जु की कायव्यूहरूप हैं ऐसे ही इस निकुंज की धराधाम पर विराजित हर जड़ सजीव रूप श्यामसुंदर भावस्वरूप ही हैं।
     आज एक भ्रमरी ललिता सखी जु का राग सुन यहाँ आती है और मयूर मयूरी बने श्यामा श्यामसुंदर जु को विहरते देख उसके नयनों से एक अश्रुकण हिम कण रूप में गिरता है।यह हिमकण गिरते गिरते निकुंज पवन का स्पर्श पाकर भाव बन एक पत्र को छूते हुए जल रूप होता है और ललिता जु की वीणा की तारों पर गिर उनकी अंगुली का संस्पर्श इसे विकार संताप रहित कर रज अणु में तब्दील करता है।यह रज अणु धरा पर अन्यान्य रज अणुओं से मिल अपनी शीतलता से रसमय हो एक पराग कण में विकसित हो जाता है और इसकी ऊष्णता श्रीनिकुंज की धराधाम पर थिरक उठती है जिसमें से श्यामा श्यामसुंदर जु भावरूप सफ्फूरित होते हैं और आरम्भ होती है एक अद्भुत प्रेममयी गहन नृत्य लीला जिसका दर्शन मात्र ही प्रत्येक कण अणु का जीवनप्राण है।
     इस रस रूप पराग कण पर कई भ्रमरियाँ विमोहित हुईं इसे अपने तन से लिपटा कर मधुर रूप में श्यामा श्यामसुंदर जु पर न्यौच्छावर हो जाना चाहतीं हैं।सरसता और सरलता से एक भ्रमरी इस सरस सरल पराग कण को अपने में समेट कर एक कर लेती है।प्रियाप्रियतम जु के प्रेममयी नृत्य से धरा पर होने वाली अनेकानेक पदकमल थापों से इन भ्रमरी व पराग कण में कितनी ही तरह से भिन्न भिन्न लीला सफ्फूरन होते हैं और ये बार बार कई बार पुष्प पर अपने को प्रेमलिप्त करते यंत्रचालित से सेवारत रहते हैं।
   यहाँ श्यामा श्यामसुंदर जु के मयूर मयूरी नृत्य में अद्भुत सुंदर क्रीड़ाऐं होते होते गहराने लगतीं हैं और वहीं वह भ्रमरी व पराग कण भी रसगाढ़ता हेतु पूर्णरूपेण एक दूसरे में लिप्त होते हैं।आत्ममंथन व रस हेतु दो को एक होना आवश्यक है ही अन्यथा पूर्णता का अभाव रहता ही है।अंततः रसमयी भ्रमरी रसपराग कण में प्रगाढ़तावश हो समा जाती है और फिर होता है उद्घोष रसप्रेम की गहन परिसीमाओं से परे का तत्सुख रूप अभिन्न तांडव।
   प्रियाप्रियतम जु का प्रेम रस रूप गहन नृत्य अपनी सब हदें तोड़ एकरूप हो एक दूसरे में समाने को आतुर और यहाँ यह भ्रमरी परागरस के प्रीतिरस से प्रगाढ़ता का गहन अनुशीलन कर इसे कमल पुष्प पर तत्सुख हेतु छोड़ स्वयं  का देहाध्यास भूल न्यौच्छावर हो जाती है।
     कमल के मध्य में श्यामा श्यामसुंदर जु की पद कमल थाप से मधुरसपूर्ण पराग उड़ उनके श्रीअंगों पर सुसज्जित होते हैं जो श्यामा श्यामसुंदर जु को मदहोश कर उन्हें गहन आकर्षण देते हैं।दो देह एक प्राण होने के लिए भ्रमरी परागकण कमल प्रियाप्रियतम जु का नृत्य और ललिता सखी जु का अनहद् नाद सब पूर्वराग ही तो हैं।
     प्रगाढ़ता वश अब सब अपना अपना सेवारत कृत्य कर एक होने को।मधु रूपी गहन परागकण जो श्यामा जु के श्रीअंगों पर जा सजे हैं श्यामसुंदर जु मधुसूदन रूप इन मधुकणों को पीकर अपनी तृषा को बढ़ाने हेतु क्योंकि ये प्रेम तृषा अनवरत बढ़ती ही है श्यामा जु के अथाह रस समन्दर से अभिन्नता की स्थिति में आ चुके हैं और दोनों मधुमद पिपासु परस्पर मदहोश हुए से विश्राम पाते हैं एक नवपराग के संचार हेतु।विलीन होकर एक नव अनुराग के नवीन सफ्फूरन के लिए।।

जय जय श्यामाश्याम
जय जय वृंदावन प्रीतिरसधाम

Saturday, 3 December 2016

धाम साध्य है , तृषित

"धाम" साधन नही है , साध्य है ।
धाम को हेतु नहीं जानना रस प्राप्ति का , धाम का प्रकट होना और रस का प्रकट होना दो बात नहीँ । अगर रस प्रकट है तो धाम ही प्रकट हुआ है । युगल का नाम धारण कर ने वाली जिह्वा तक धाम की शक्ति से न पूरित हो तो युगल नाम सम्भव नही । ऐसे ही हृदय में युगल अनुभूति देह का धाम से सम्बन्ध करने पर ही सम्भव है । धाम स्थूल नहीँ , स्थूल देह का ही धाम से सम्बन्ध हो तब ही रस प्राप्त हो ऐसा नहीँ , धाम स्वतन्त्र है , हाँ धाम का रस प्रकट होने पर ब्रज के बाहर स्पष्ट नीरसता द्रश्य होती है। धाम साध्य है , धाम सिद्ध हुआ तो युगल से नित्य सम्बन्ध स्वतः होगा ।
धाम युगल के प्रेम का सूचक है अतः प्रेम पथिक के लिये धाम का प्रकट दर्शन ही जीवन है ।
धाम-सखी-युगल आदि सब में सब सिद्ध है और सभी के आश्रय से रस प्राप्त होता है । कोई भी एक इनमें सब से जोड़ता है और सब से जुड़ना ही नित्यलीला प्रवेश है । वरन कोई न कोई साधक एक से जुड़ा है । अभिन्न स्वरूप होते ही लीला प्रकट हो जाती है ।
तृषित

https://youtu.be/UZZ2K3E2H1A

महाचैतन्य में प्रविष्ट होने पर भाव और महाभाव सब अतिक्रान्त हो जाते है एवं मिलन या विरह किसी की भी सार्थकता नही रहती । आत्मा की तृप्ति करने के लिये ही इनकी (मिलन-विरह) व्यवस्था है ।

Thursday, 1 December 2016

प्रेम की ध्वजा गोपी के कान्हा , ब्रज भाषा लेख

प्रेम की ध्वजा गोपी के कान्हा

अहाहा! देखौ, ये गोपी प्रेम-मंदिर की धुजा हैं। मंदिर में बिसेष ऊँचौ स्थान सिखर कौ होय है। सिखर के ऊपर कलसा होय है, कलसा के ऊपर चक्र होय है, चक्र के ऊपर धुजा होय है; परंतु धुजा के ऊपर कछु नहीं होय है। वो धुजा लहराय-फहराय कैं दूर ही ते कहैं है- ‘एरे पथिकौ, यह मंदिर है; यहाँ आऔ और श्रीहरि के दरसन करि नैन-मन सिराऔ, पाप नसाऔ और पुण्य कमाऔ। ऐसैं ही वे गोपी प्रेम-मंदिर की धुजा स्थान पै बिराजमान है कैं पुकारि-पुकारि कैं कहि रही हैं- ‘एरे संसार के जीवौ, यह ब्रज है, यहाँ आऔ। यह प्रेमकौ मंदिर है। प्रेम के देवी देवता श्री जुगलस्वरूप के दरसन करौ। प्रेम की ठाकुर यहीं है, प्रेम की उपासना यहीं है और प्रेम की सामग्री हू यहीं है। यातैं या प्रेमधाम में आऔ। यदि तुम्हारौ हृदय कारौ है तो यहाँ के कारे-गोरे रंग सौं ऊजरौ करि लेउ। और जो तुम्हारी धारना मैली है तौ यहाँ प्रेम की जमुनाधार ते पबित्र करि लेऔ । जो रुकि गई है तौ बहाय लेऔ। और सूखि गई है तौ सरसाय लेऔ। या श्रीवृंदाबन में प्रेम नदी चारों ओर बहि रही है, तुम यामें गीता लगाय कै पाप-ताप ते रहित है जाऔ!

तीन लोक चौदह भुवन प्रेम कहूँ ध्रुव नाहिं।
पर- जगमग ह्वै रह्यौ रूप सौं श्रीबृंदाबन माँहि ।।
और ढूँढ़ि फिरैं त्रैलोक जो, मिलत कहूँ हरि नाहिं।
पर- प्रेमरूप दोउ एकरस बसत निकुंजन माँहि।।
हम दोऊ स्वरूप प्रेम-निकुंज के देवता हैं, और ये गोपी हमारी पुजारिन है, प्रेम की आद्याचार्य हैं। प्रेम-संप्रदाय गोपिन ते ही चल्यौ है, प्रेम की पद्धति इननें ही चलाई, और प्रेम कौ स्वरूप इननें हीं जगत कूँ दरसायौ है। यदि ये गोपी नहीं होतीं, तौ, प्रेम-शब्द ग्रंथन में हीं रहि जातौ। श्रीनारदजी ‘यथा व्रजगोपिकानाम्’ कहि कैं अपने ग्रंथ ‘भक्तिसूत्र’ में कौन कौ दृष्टान्त देते। और जो गोपी न होतीं तौ स्वयं मेरौ जो बाक्य- ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरण ब्रज’ है, याकौ स्वरूप प्रत्यक्ष करि कौन दरसावतौ। अजी, गोपी न होतीं तौ मेरी माखन-चोरी-लीला, पनघट-लीला, दान-लीला, मान-लीला, होरी-लीला, बंसी-लीला और रास-लीला नहीं होतीं। रसिकजन लुटि जाते, और स्वयं मैं हूँ पूरे ते आधौ रहि जातौ-पूर्णतम् स्वरूप ते न्यूनतम रहि जातौ! और यदि गोपी न होतीं तौ भक्ति जुबती ते फेर वृद्धा है जाती। श्रीनारदजी नें भक्ति सौं कही ही-

वृन्दावनस्य संयोगात्पुनस्त्वं तरुणी नवा।
धन्यं वृन्दावनं तेन भक्तिर्नृत्यति यत्र च।।
अर्थ- हे भक्तिदेवी! तुम बृंदाबन के संयोग ते फिर जुबती है गई हैं; याते ते बृन्दाबन धन्य है, जहाँ भक्ति नृत्य करै है। यह भक्ति गोपी-कृष्ण-लीला कूँ गाय-गाय कैं नृत्य करै है। यदि गोपी न होतीं तो मैं कौन के संग लीला करतौ, और भक्ति कहा गाय कैं नृत्य करती, बिचारी रोय-रोय कैं आप ही बूढ़ी है जाती। या प्रकार ये ब्रजगोपी मेरी ब्रज-लीला की आधार-स्वरूपा हैं, तथा स्वयं मेरी प्राण-जीवन-स्वरूपा हैं। याही सौं प्रेम-मंदिर में इनकौ स्थान सर्वोपरि है- गोपी प्रेम की धुजा हैं।
(दोहा)
जदपि जसोदा नंद अरु ग्वालबाल सब धन्य।
पै या जग में प्रेम की गोपी भईं अनन्य।।
भक्त जगत में बहुत हैं, तिन कौ नाहिं प्रमान।
हौं गोपिन के हिय बसौं, गोपी मेरे प्रान।।