Monday, 8 August 2016

सहचरी भाग 7

सहचरी भाग 7

टहल लिये पिय प्यारी आगे छिनपल कहूँ न जाहीं।
दोऊ मन कौं लिये हिये में कुंज महल विलसाहीं।।

सखियाँ युगल की आसक्ति का स्वरूप हैं अतः इनके द्वारा किया गया युगल की आसक्ति का उपभोग स्वरूप का ही उपभोग है। वृन्दावन में हित-रूप सखियों का अनुपम हित ही मानो गौर-श्याम बनकर उनके मन और नेत्रों को सुख दे रहा है। हित के अद्भुत रूप एवं उसकी अद्भुत सेवा-प्रणाली का सुन्दर वर्णन करते हुए श्री भोरी सखी पूछते हैं ‘जिसकी प्यास तृप्ति रूप है और तृप्ति प्यासमयी है, उस प्रेम के अनूठे खेल को मैं अपने हृदय में कैसे लाऊँ ? जहाँ विरह मिलन रूप है और मिलन विरह रूप हैं, जहाँ विरह और मिलन एक हो रहे हैं, वहां मैं रसास्वाद कैसे करूँ ? जहाँ प्रिया प्रियतम रूप हैं और प्रियतम प्रिया रूप हैं, जहाँ प्रिया और प्रियतम परस्पर ओतप्रोत हो रहे हैं, वहाँ मैं इन दोनों को कैसे मिलाऊँ ? युगल की हृदयरूपी कुंज में जहाँ युगल की केलि हो रहीं है, वहाँ युगल हृदय की वृति बनकर मैं कैसे इन दोनों को लाड़ करूँ ? मन जिसको पाता नहीं है और बुद्धि का जहाँ प्रवेश नहीं है, अहा, ऐसे अद्भुत हित-रूप को मैं कैसे प्राप्त करूँ?’

कौन प्यास तृप्ति रूप, कौन तृप्ति प्यासमई,
प्रेम को अनूठौ खेल कैसे हिये लाइये?
कौन विरह मिलन रूप, विरह रूप मिलन कौन,
विरह मिलन एक जहाँ कौन स्वाद पाइये ?
कौन प्रिया पीय रूप, प्रिया रूप पीय कहाँ,
प्रिया पीय एकमेक कैसे कै मिलाइये ?
जुगल हीय कुंज जहाँ, जुगल केली होत तहाँ,
जुगल हृदय-वृत्ति होय कैसे कै लड़ाइये ?
मन हू न पावै जौन, बुद्धि हू न पहुँचे जहाँ,
अद्भुत हित रूप, हहा भोरी कैसे पाइये? 

राधामाधव के बीच में प्रीति का जो परमोज्जवल सागर लहरा रहा है उसमें अनंत तरंगे उठती रहती हैं, न इन तरंगों को गिना जा सकता है और न सखियों की संख्या निर्दिष्ट की जा सकती है। श्रीध्रुवदास कहते हैं कि ‘रज के कण, आकाश के तारे और घन की बूंदे गिनी जा सकतीं हैं किन्तु सखियों की संख्या जितनी बतलाई जाय यह थोडी है।’

रजकन, उडुगन, बूंदधन, आवत गिनती माहिं।
कहत जोइ थोरी सोई, सखियनि संख्या नाहिं।।[1]

इन सखियों में आठ सखियाँ ‘प्रधान हैं जिनके नाम ललिता, विशाखा, रंगदेवी, चित्रा, तुंगविद्या, चंपकलता, इन्दुलेखा और सुदेवी है। इन आठों में से प्रत्येक के साथ आठ-आठ सखियाँ रहती हैं जो स्वयं यूथेश्वरी है और जिनके यूथ में अनेकानेक सखियाँ हैं। अष्ट सखियों में ललिता सब बातों में चतुर है। इनके शरीर की प्रभा-गोरोचन के समान शुद्ध हैं और यह मोर-पिच्छ की तरह के चित्र-विचित्र वसन पहिनती हैं। यह पानों की सुन्दर बीडी बनाकर युगल को निवेदन करती रहती हैं। विशाखा सखी को वस्त्र धारण कराने की सेवा मिली हुई है। इनके तन की कांति शत-शत दामिनी जैसी है और यह तारा मंडल जैसे वस्त्र पहिन कर युगल की सेवा में लगी रहती हैं। चंपकलता युगल के लिये अनेक प्रकार के व्यंजन बनाती हैं, इनका वर्ण चंपक जैसा है और प्रिया का प्रसादी नीलांबर इनके तन की शोभा बढाता रहता है। चित्रा सखी अनेक प्रकार के पेय तैयार करके युगल को पान कराती हैं। इनका वर्ण कुंकुम जैसा है और यह कनक के समान वस्त्र धारण करती हैं। तुंगविद्या गान और नृत्य में अत्यन्त प्रवीण हैं। इनका वर्ण गौर है और यह पाँडुर वर्ण के वस्त्र पहिनती हैं। इन्दुलेखा कोक-कला की सब घातों को जानती हैं और श्री राधा को अत्यन्त प्रिय हैं। इनके देह की प्रभा हरताल के समान है और अनार के फूल के वर्ण के वस्त्र यह पहिनती हैं। रंगदेवी को भूषण धारण कराने की सेवा मिली हुई है। इनके तन की आभा कमल-किंजल्क जैसी है और जपा-पुष्प के रंग की साड़ी इनको शोभा देती है। सुदेवी सखी प्रिया के केशों का श्रृंगार करती हैं, उनके नेत्रों में अंजन लगाती हैं एवं शुक-सारिका को प्रेम कहानी पढ़ाकर उनके द्वारा युगल का मनोविनोद करती हैं। यह लाल रंग की साड़ी पहिनती हैं।

इन सखियों के साथ सब रागिनियाँ मूर्तिमान होकर प्रीतिपूर्वक श्याम-श्यामा के सुहाग का गान करती रहती हैं। दिवा यामिनी एवं छहौं ऋतुएँ युगल के सामने हाथ जोड़े खड़ी रहती है और जिस समय उनकी जैसी रचि होती है उसी प्रकार यह उनको सुख देती है। इनके अतिरिक्त वृन्दावन के खग, मृग, लता, गुल्म आदि सब सहचरी-भाव धारण किये हुए युगल की सेवा में प्रवृत्त रहते हैं। क्रमशः ...

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