Saturday, 27 August 2016

श्री राधा रानी जू के आभूषण

🙌🏻🙌🏻👑👑🌿🌿श्री राधा रानी जू के आभूषण 👑👑🌿🌿

✨तिलक ➡ स्मर यंत्र
✨हार   ➡  हरि मनोहर
✨कान के आभूषण➡ रोचन
✨नासिका की मुक्ता➡  प्रभाकरी
🎵🎵मनमोहनकारी राग ➡मल्लार एवम् धनाश्री
💃🏻💃🏻प्रिया नृत्य➡ छालिक्य
🎹वाद्य यंत्र ➡रुद्रवल्लकी
👌🏻💍अंघूठी का नाम➡  विपक्षमदमर्दिनी
✨कांची(करधनी)का नाम➡ कांचचित्राङ्गि
🌹👣नुपुर का नाम ➡रत्नगोपुर
👰🏼वस्त्र ➡मेघाम्बर, कुरुविन्दनिभ
💎दर्पण का नाम➡ सुधांशु दर्पहरण
❤सुवर्ण शलाका ➡नर्मदा
💇🏻रत्नों से जड़ित कंघी का नाम➡ स्वस्तिदा
👑सोने के कंघन (कटक) ➡चटकाराव
🌹रंग बिरंगी मणीयों का नाम➡ केयूर
💐पुष्प उद्यान ➡ कंदर्प कुहली
🌻उद्यान स्थित स्वर्णयूथि पुष्प लता का नाम ➡तडिदवल्ली
🌁कुण्ड नाम➡ श्री राधाकुण्ड
👣श्री राधा जू के दास➡ गार्गी आदि श्रेष्ठ ब्राह्मण गण भृङ्गारिका आदि चेटीयाँ सुबल उज्जवल गन्धर्व मधुमंगल रक्तक आदि सेवक तथा विजया आदि रसाला आदि पयोदा आदि वितगण आदि🙌🏻🙌🏻🌻🌻🌿🌿🌹🌹

Monday, 8 August 2016

सहचरी भाग 7

सहचरी भाग 7

टहल लिये पिय प्यारी आगे छिनपल कहूँ न जाहीं।
दोऊ मन कौं लिये हिये में कुंज महल विलसाहीं।।

सखियाँ युगल की आसक्ति का स्वरूप हैं अतः इनके द्वारा किया गया युगल की आसक्ति का उपभोग स्वरूप का ही उपभोग है। वृन्दावन में हित-रूप सखियों का अनुपम हित ही मानो गौर-श्याम बनकर उनके मन और नेत्रों को सुख दे रहा है। हित के अद्भुत रूप एवं उसकी अद्भुत सेवा-प्रणाली का सुन्दर वर्णन करते हुए श्री भोरी सखी पूछते हैं ‘जिसकी प्यास तृप्ति रूप है और तृप्ति प्यासमयी है, उस प्रेम के अनूठे खेल को मैं अपने हृदय में कैसे लाऊँ ? जहाँ विरह मिलन रूप है और मिलन विरह रूप हैं, जहाँ विरह और मिलन एक हो रहे हैं, वहां मैं रसास्वाद कैसे करूँ ? जहाँ प्रिया प्रियतम रूप हैं और प्रियतम प्रिया रूप हैं, जहाँ प्रिया और प्रियतम परस्पर ओतप्रोत हो रहे हैं, वहाँ मैं इन दोनों को कैसे मिलाऊँ ? युगल की हृदयरूपी कुंज में जहाँ युगल की केलि हो रहीं है, वहाँ युगल हृदय की वृति बनकर मैं कैसे इन दोनों को लाड़ करूँ ? मन जिसको पाता नहीं है और बुद्धि का जहाँ प्रवेश नहीं है, अहा, ऐसे अद्भुत हित-रूप को मैं कैसे प्राप्त करूँ?’

कौन प्यास तृप्ति रूप, कौन तृप्ति प्यासमई,
प्रेम को अनूठौ खेल कैसे हिये लाइये?
कौन विरह मिलन रूप, विरह रूप मिलन कौन,
विरह मिलन एक जहाँ कौन स्वाद पाइये ?
कौन प्रिया पीय रूप, प्रिया रूप पीय कहाँ,
प्रिया पीय एकमेक कैसे कै मिलाइये ?
जुगल हीय कुंज जहाँ, जुगल केली होत तहाँ,
जुगल हृदय-वृत्ति होय कैसे कै लड़ाइये ?
मन हू न पावै जौन, बुद्धि हू न पहुँचे जहाँ,
अद्भुत हित रूप, हहा भोरी कैसे पाइये? 

राधामाधव के बीच में प्रीति का जो परमोज्जवल सागर लहरा रहा है उसमें अनंत तरंगे उठती रहती हैं, न इन तरंगों को गिना जा सकता है और न सखियों की संख्या निर्दिष्ट की जा सकती है। श्रीध्रुवदास कहते हैं कि ‘रज के कण, आकाश के तारे और घन की बूंदे गिनी जा सकतीं हैं किन्तु सखियों की संख्या जितनी बतलाई जाय यह थोडी है।’

रजकन, उडुगन, बूंदधन, आवत गिनती माहिं।
कहत जोइ थोरी सोई, सखियनि संख्या नाहिं।।[1]

इन सखियों में आठ सखियाँ ‘प्रधान हैं जिनके नाम ललिता, विशाखा, रंगदेवी, चित्रा, तुंगविद्या, चंपकलता, इन्दुलेखा और सुदेवी है। इन आठों में से प्रत्येक के साथ आठ-आठ सखियाँ रहती हैं जो स्वयं यूथेश्वरी है और जिनके यूथ में अनेकानेक सखियाँ हैं। अष्ट सखियों में ललिता सब बातों में चतुर है। इनके शरीर की प्रभा-गोरोचन के समान शुद्ध हैं और यह मोर-पिच्छ की तरह के चित्र-विचित्र वसन पहिनती हैं। यह पानों की सुन्दर बीडी बनाकर युगल को निवेदन करती रहती हैं। विशाखा सखी को वस्त्र धारण कराने की सेवा मिली हुई है। इनके तन की कांति शत-शत दामिनी जैसी है और यह तारा मंडल जैसे वस्त्र पहिन कर युगल की सेवा में लगी रहती हैं। चंपकलता युगल के लिये अनेक प्रकार के व्यंजन बनाती हैं, इनका वर्ण चंपक जैसा है और प्रिया का प्रसादी नीलांबर इनके तन की शोभा बढाता रहता है। चित्रा सखी अनेक प्रकार के पेय तैयार करके युगल को पान कराती हैं। इनका वर्ण कुंकुम जैसा है और यह कनक के समान वस्त्र धारण करती हैं। तुंगविद्या गान और नृत्य में अत्यन्त प्रवीण हैं। इनका वर्ण गौर है और यह पाँडुर वर्ण के वस्त्र पहिनती हैं। इन्दुलेखा कोक-कला की सब घातों को जानती हैं और श्री राधा को अत्यन्त प्रिय हैं। इनके देह की प्रभा हरताल के समान है और अनार के फूल के वर्ण के वस्त्र यह पहिनती हैं। रंगदेवी को भूषण धारण कराने की सेवा मिली हुई है। इनके तन की आभा कमल-किंजल्क जैसी है और जपा-पुष्प के रंग की साड़ी इनको शोभा देती है। सुदेवी सखी प्रिया के केशों का श्रृंगार करती हैं, उनके नेत्रों में अंजन लगाती हैं एवं शुक-सारिका को प्रेम कहानी पढ़ाकर उनके द्वारा युगल का मनोविनोद करती हैं। यह लाल रंग की साड़ी पहिनती हैं।

इन सखियों के साथ सब रागिनियाँ मूर्तिमान होकर प्रीतिपूर्वक श्याम-श्यामा के सुहाग का गान करती रहती हैं। दिवा यामिनी एवं छहौं ऋतुएँ युगल के सामने हाथ जोड़े खड़ी रहती है और जिस समय उनकी जैसी रचि होती है उसी प्रकार यह उनको सुख देती है। इनके अतिरिक्त वृन्दावन के खग, मृग, लता, गुल्म आदि सब सहचरी-भाव धारण किये हुए युगल की सेवा में प्रवृत्त रहते हैं। क्रमशः ...

Thursday, 4 August 2016

सहचरी भाग 6

सहचरी भाग 6

राधमोहन सदैव अपनी दासियों की रुचि के अनुकूल रहकर उनके मन की साध पुजाते रहते हैं यह देखकर आनंद के रंग से भरी हुई सखियां फूली नहीं समातीं। इन सब के एक मात्र जीवन दोनों वृन्‍दावन-चन्‍द्र हैं।

फूली अंग ने मात है भरीं रंग आनंद।
जीवन सबकै एक ही विवि वृन्‍दावन चंद।

सखियों की प्रीति का चौथा भाव आत्‍मवत् भाव है। मनीषियों ने आत्‍मा को सबसे प्रिय माना है। अन्‍य सब पदार्थों में आत्‍मा के कारण प्रियता रही हुई है। सखियों की आत्‍मा और युगल में कोई अन्‍तर नहीं है। इनके अद्भुत प्रेम ने ही इनको इस स्थिति में ला दिया है। हित अनूप जी बतलाते हैं कि ‘प्रेम की प्रतीति का प्रताप ही ऐसा है कि प्रियतम आपमय हो जाता है और आप प्रियतममय हो जाता है, दोनों में कोई भेद नहीं रहता। जहां अपना सम्‍पूर्ण सुख होता है वहां प्रियतम के मोद की प्रतीति होती है और जहां प्रियतम का सम्‍पूर्ण सुख होता है वहां अपनी सुख- रीति होती है। दोनों के बीच में अपना पराया करने का कोई कारण नहीं रह जाता। अपनपे प्रियतम के साथ अभिन्न बनते ही अपने सखा और प्रियतम के सुख में भेद नहीं रहेगा।'

आप मई प्रीतम जहाँ औ प्रीतम मय आप।
रहयौ न भेद कोऊ कहूँ प्रेम प्रतीत प्रताप।।
अपनौ सुख नख-सिख जहाँ प्रीतम मोद प्रतीति।
प्रीतम सुख नख-सिख जहाँ है अपनी सुख-रीति।।
अपुन पराई करनि कों कारन रहयौ न कोइ।
तत्सुख कहौं तौ तत्सुखै स्वसुख कहौं तो सोइ।।

सखियों के तत्सुख और स्वसुख में कोई भेद नहीं है। हित्तप्रभु अपने सहज सखी-स्वरूप से श्यामाश्याम के परम सुख का दर्शन करके कहते हैं कि ‘आनंद में निमग्न दोनों प्रियतम डगमगाती चाल से वृन्दावन की सुन्दर एवं सघन कुंज-गली में विहार कर रहे हैं। यह दोनों लाल-ललना परस्पर मिलकर मेरे मन को शीतल करते हैं।’

पग डगमगत चलत बन बिहरत रुचिर कुंज घन खोर।
हित हरिवंश लाल-ललना मिलि हियौ सिरावत मोर।।

यहाँ पर लाल-ललना के सुख और हितजी के सुख में कोई अन्तर दिखलाई नहीं पड़ता और यहीं सखियों के आत्मवत् भाव का स्वरूप है। सखियों के सुखानुभव की प्रक्रिया में विलक्षणता यह है कि यह श्यामा और श्याम दोनों के साथ सहज रूप से एकात्म-भाव रखती हैं। श्यामसुन्दर के मन से मन मिलाकर यह प्रिया-चरण-माधुरी का आस्वाद करती हैं एवं अपनी स्वामिनी के मन से मन मिलाकर यह उनके प्रीति-परवश प्रियतम का लालन करती रहती हैं। ‘इन परम प्रेमी युगल के अद्भुत मनों को अपने एक मन में लेकर सहचरी-गण इनकी आसक्ति का अबाध उपभोग करती हैं और पिय-प्यारी के सुख को दृष्टि में रखकर उनकी टहल करती रहती हैं।'
टहल लिये पिय प्यारी आगे छिनपल कहूँ न जाहीं।
दोऊ मन कौं लिये हिये में कुंज महल विलसाहीं।।
जयजय श्यामाश्याम । क्रमशः ...

Monday, 1 August 2016

हरे कृष्ण महामन्त्र पर सुंदर भाव

[8/1, 23:29] सत्यजीत तृषित: श्री प्राणेश्वर
चलो महामंत्र की व्याख्या सुनते है
मैं लिखता हूँ
रसराजरसरानी के भाव में

यह जो महामंत्र है
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

यह मंत्र याद रखना कोई " लोक साधारण कल्याण भाव से नहीं बोला गया जैसे और मंत्र
यह मंत्र
उस " भाव दशा को दर्शाता है प्रेम की सबसे उच्चतम अवस्था होती है
यह महामंत्र " महाभाव प्रेम के अनिवर्चनीय रस। के अस्वादन भाव में बोला गया है

देखिए हर इष्ट के मंत्र में " इष्ट का नाम से सम्बोधन होता है" और इष्ट को पता होता है
के जीव उसका नाम ले रहा है

परंतु इस महामंत्र के अति उच्चतम रस वैलक्षण ऐसा है के महारस के समुन्दर में महाभाव के प्रेम के आनंद से आंदोलित चित इष्ट को इस महाप्रेम रस धारा में " विस्मरण करा देता है
के वो इष्ट है और
उस महाभाव अति प्रेम में वो " अपने को कहीं प्रेम में खो कर

इस भाव समुन्दर में यह महामंत्र का उच्चारण करता है

हरे का अर्थ

श्यामसुंदर उस महाभाव रस की समुन्दर में
अपने को भूल
राधारानी के अत्यंत चिंतन में स्वयं भूल कर कहते है

क्या मैं कृष्ण हूँ???

हरे का अर्थ राधा है

कृष्ण स्वयम् उस प्रेम रस में निमग्न हो " राधा को पुकारते है "

राधे
मतलब " हरे"
हरे मतलब  " जो श्यामसुंदर के चित का हरण करे "
राधा ही तो है

तो पहला अक्षर बोले
राधा" मतलब हरे

हरे मतलब " राधा" जब कृष्ण हरे अर्थात राधा कहते है तब
तब महामंत्र के दूसरे अक्षर " कृष्ण"
तब राधारानी पूछती है
बोलो कृष्ण क्या हुआ
आपने हरे अर्थात राधा मेरा नाम लिया
क्या हुआ प्राणेश्वर

अब फिर " हरे" शब्द आता है
हरे कृष्ण हरे
इस " हरे " शब्द में
कृष्ण पूछते है
राधा आपने मुझे कृष्ण कहा है
क्या मैं कृष्ण हूँ

उस उच्चतम प्रेम रस भाव समाधि में कृष्ण भूल जाते है के वो कृष्ण है
और राधा भाव में आ जाते है

फिर " कृष्ण" मंत्र में आता है
राधारानी बोलती है
हाँ आप कृष्ण हो
मेरे प्राणनाथ

अब दो बार
" कृष्ण कृष्ण"  आता है

श्यामसुंदर पूछते है
क्या राधारानी
मैं " कृष्ण" " कृष्ण" हूँ
देखिए भाव की समाधि देखिए
इस अनंत प्रेम भाव में कृष्ण राधा भाव में आ जाते है
दोनो एक है ना रस समुद्र

" हरे हरे "
कृष्ण कहते है राधारानी से
आप भूल रही हो
मैं राधा हूँ
मैं राधा हूँ

अब दूसरा line महामंत्र की

हरे राम
राधारानी कहती है
आप " राधा" नहीं हो
आप " राधारमण" हो राधा को अनन्दित करने वाले
मेरे राधारमण

फिर
" हरे राम" आता है
श्यामसुंदर कहते है
क्या क्या बोले आप

मैं राधारमण हूँ
राधा रमण
आपको आनंद देने वाला

फिर
" राम राम" आता है
राधारानी विश्वास दिलाती है
हाँ प्राणेश्वर आप
राधारमण हो
राधा रमण हो

अब
" हरे हरे "
अब अंत में
श्री कृष्ण उस राधाभाव में इतने तन्मय है के hosh में कहाँ है
वो उस राधाभाव सागर में गोते लगाते हुए बोलते है

" नहि नहि"

मैं राधा हूँ
राधा हूँ" कृष्ण नहीं हूँ

यह है महामंत्र का " प्रेम रस रहस्य"
इसी भाव से
महाप्रभुजी ने बोला था
क्यूँकि वो स्वयं राधा भाव में रहते थे

श्री रघुनाथ जी गोस्वामी जी रति मंजरी
कहते जब राधारानी विरह भाव में होती है तब अपने दोनो हाथो से ताल मार इस भाव से महामंत्र का उच्चारण करती है

हााा राधााा  श्री राधाााा 🌹
[8/1, 23:29] सत्यजीत तृषित: 🙏🏼हरे कृष्ण में श्री राधा और श्री कृष्ण का मिलन का भाव है। 
कृष्ण कृष्ण  हरे हरे में

वियोग का भाव है।हम मंजरियां व्याकुल हो उठती हैं कि नही नही हमारी तो सार्थकता इसीमे की युगल प्रसन्न हो।हम आपके मिलन करवाएंगी हरे अपने रमण से मिल जाए यही हमारा आनंद।हरे राम एक हो जाए। परंतु फिर लीला में वियोग का आस्वादन होता है।फिर हरे हरे राम राम में वियोग रस।परंतु ये केवल परवर्ती संयोग रस को परिवर्धित करने।इसलिए भक्त युगल मन्त्र रोकना नही चाहते ।नही नही वियोग नही फिर मिलन हो फिर 'हरे कृष्ण'
इस प्रकार इस मंत्र में निरंतर उनकी लीलाओ का युगल प्रेम का चिंतन है।उनके क्षण क्षण के संयोग वियोग प्रेम माधुर्य का चिंतन भी है।
श्री राधे🙏🏼

6 रस उद्दीपन

🍃🍂❣🌺❣🍂🍃
भक्त के ह्रदय में कृष्ण प्रेम कैसे उद्दीपन हो❓

उज्जवल नील मणि में श्रील रूप गोस्वामी पाद ने 6 प्रकार के उद्दीपन बताये जो है-

1) 🌹 गुण उद्दीपन🌹 जिसमे कृष्ण जी गुण याद करने ह्रदय में प्रेम उदित होता
🔸ये 3 प्रकार के गुण
(A)कृष्ण जी मानसिक गुण
(  example जितेन्द्रिय है)
(B)कृष्ण जी वाचिक गुण
( सत्य बचना है )
(C)कृष्ण जी कायक गुण(unki body related gun)
(अनुपम सुंदर है) matchless beauty.

2 )🌹नाम उद्दीपन🌹
कृष्ण के जो अनंत रस पूर्ण नाम है श्यामसुन्दर गोविन्द गोपाल माधव इन्हे जपने या इन पवित्र नमो का कीर्तन करने से ह्रदय में कृष्ण प्रेम उदित होता है ।

3 )🌹चरित्र उद्दीपन🌹 कृष्ण  के सुंदर मनोहर चरित्र का स्मरण करने से जैसे  उनकी बंसी लीला, उनकी नृत्य लीला का, उनकी गायन लीला का ,गौबर्धन लीला का, क़दम लीला का ,अनेकानेक  लीला का स्मरण करने से ह्रदय में कृष्ण प्रेम उदित होता है 🌹🌹

4 )🌹मंडन उदीपन🌹bodily adornment( उनके दिव्य  आभूषण अलंकारो)

(A)🌸माल्या-🌹--उनकी माला कुंडल मुकुट का स्मरण करने से
(B)🌸अनुलेपन --🌹उनके चंदन इत्र प्रसादी से
(C)🌸वासा(वस्त्र)🌹उनके दिव्य वस्त्रो कमरबंद अदि का दर्शन से
(D)🌸भूसण🌹उनके दिव्य आभूषणों को जैसे नुपुर कंगन बाजूबंद मणि अदि का स्मरण करने ह्रदय में कृष्ण प्रेम उदित होता है।

5 )🌹समन्धी उद्दीपन🌹(कृष्ण जी से related दिव्य सामग्री )

उनकी बाँसुरी उनकी बीणा उनकी दिव्य सुगंध उनके नुपुर की ध्वनि उनकी चरण चिंन्ह उनका मोर पंख उनका रास नृत्य
तुलसी जी कदम का व्रक्ष  और सम्बन्धित सभी दिव्य बस्तुओं  का स्मरण करने से कृष्ण प्रेम उदित होता है।

6) 🌹तटस्थ उद्दीपन🌹(natural phenomena)
शरण पूर्णिमा वसंत ऋतू सावन का मौसम मंद सुशीतल पवन जो श्री राधा कृष्ण जी को लीला में सहायक होते उनका स्मरण करने से ह्रदय में कृष्ण प्रेम उदित होता है।

🍃🍂💗🙏🏼🍁🌹🍁🙏🏼💗🍂🍃