Sunday, 31 March 2019

श्रीराधिकाष्टकम् राधादास्य प्राप्तिके लिए

श्रीराधिकाष्टकम् राधादास्य प्राप्तिके लिए
       (गोविंद लीलामृत)

कुंकुमाक्त-काञ्चनाब्ज-गर्वहारि-गौरभा
पीतनाञ्चिताब्ज-गन्धकीर्ति निन्दि-सोरभा।
बल्लवेश -सूनु-सर्व वान्छितारथ्-साधिका
मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तू राधिका ।।1।।

जिसके अंग की गौरकान्ति कुंकुमिलित स्वर्णकमल के गर्व को हरण कर लेती है,जिसका अंग सौरभ कुंकुमयुक्त पद्म के सुगंध की कीर्ति को तिरस्कार करता है तथा जो ब्रजराजनन्दन श्रीकृष्ण की समस्त वांछित विषयों की पूर्ति करने वाली है, वही श्रीराधिका मुझे अपने चरणकमलों का दास्य प्रदान करें । ।।1।।

कौरविन्द-कांन्ति निन्दि- चित्र-पट्ट-शाटिका
कृष्ण- मत्हभृंग-केलि-फुल्ल-पुष्प-वाटिका।
कृष्ण-नित्य-संगमार्थपद्मबन्धु- राधिका
मह्यमात्म- पादपद्म- दास्यदास्तू राधिका।।2।।

जिनकी कौशेय साड़ी प्रवाल (मूंगा) का तिरस्कार करती है, जो कृष्णरूप मत्त भ्रमर के निमित्त पुष्पवन स्वरूपा हैं तथा जो कृष्ण मिलन के लिए पद्मबंधु सूर्यदेव की आराधना किया करती है, वही श्रीराधिका मुझेअपने चरण कमलों का दास्य प्रदान करें।।। 2।।

सौकुमार्य- सृष्ट-पल्लवालि-कीर्ति-निग्रहा।
चन्द्र-चन्दनोपलेन्दु-सेव्य-शीत-विग्रहा।
स्वाभिमर्ष-वल्लवीश-काम-ताप-बाधिका
मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तू-राधिका।।3।।

जिन्होंने अपनी सुकुमारता द्वारा पल्लव श्रेणियों की कीर्ति के अपमान की सृष्टि की है, जिनके सुशीतल अंग की सेवा चंद्र,चंदन,कमल और कर्पूरादि समस्त शीतल वस्तुएं करती हैं, तथा जो अपने अंग के स्पर्श द्वारा गोपीपति श्रीकृष्ण के कन्दर्पताप का निवारण करती है, वही श्रीराधिका मुझे अपने चरण कमलों का दास्य प्रदान करें।।।3।।

विश्वबन्धय-यौवताभिवन्दितापि या रमा
रूप-नव्य-यौवनादि-सम्पदा न यत्समा।
शील हार्द्ध-लीलया चसा यतोऽस्ति नाधिका
मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तू-राधिका।।4।।

जिस लक्ष्मी के रूप नवयौवनादि सम्पत्ति का अवलोकन करके विश्व की रमणीगण उनका अभिवादन करती हैं, ऐसी सद्भभाग्यवती लक्ष्मी भी रूप, यौवन, शील, गुण लीलादि सम्पत्ति में जिनके समान नहीं है तथा इस जगत में जिनसे अधिक रूप- गुण सम्पन्ना कोई रमणी नहीं है, वही श्रीराधिका मुझे अपने चरण कमलों का दास्य प्रदान करें।।।4।।

रास- लास्य- गीत-नर्म-सत्कलालि-पंडिता
प्रेम-रम्य-रूप-वेश-सदगुणालि-मंडिता।
विश्व-नव्य-गोप-योषिदालितोऽपि याधिका
मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तू-राधिका।।5।।

जो रास में नृत्य, गीत, परिहास, वैदग्धी की नाना विद्या में परम पंडिता है, जो प्रेम के द्वारा रमणीय रूप- वेश व सद्गुणावली से सुशोभित है, और जो विश्वविख्यात नवीन ब्रजसुंदरियों से भी अधिक है, वही श्री राधिका मुझेअपने चरणकमलों का दास्य प्रदान करें।।।5।।

नित्य-नव्य-रूप-केलि-कृष्णभाव-सम्पदा
कृष्णराग-बन्ध-गोप-यौवतेषु-काम्पदा।
कृष्ण-रूप-वेश-केलि-लम्न-सत्समाधिका
मह्यमात्म-पादपद्म- दास्यदास्तू- राधिका।।6।।

जो अपने नित्य नवीन रूप, केलि व कृष्णभाव (कृष्ण में प्रेमभाव या अपने में कृष्ण के प्रेमभाव) सम्पत्ति द्वारा श्रीकृष्ण में बद्ध प्रेमवती ब्रजबालाओं को कम्पित कर देती है, (स्वपक्षाओं को हर्ष से और विपक्षाओं को दुख से) तथा श्रीकृष्ण के वेश रूप व केलि में जिनके चित्त की नित्य समाधि लगी रहती है, वही श्रीराधिका मुझे अपने चरण कमलों का दास्य प्रदान करें।।।6।।

स्वेद-कम्प-कण्टकाश्रु- गद्गगदादि-सञ्चिता
मर्ष-हर्ष-वामतादि-भाव-भूषणाञ्चिता।
कृष्ण-नेत्र-तोषि-रत्न-मण्डनालि-दाधिका
मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तू-राधिका।।7।।

जो स्वेद् ,कम्प ,पुलक,अश्रु गदगद् स्वरादि सात्विक विकारों द्वारा संयुक्त है, क्रोध, हर्ष व वामता आदि भावभूषणों से विभूषित है तथा जिन्होंने श्रीकृष्ण के लोचनानन्द दायक रत्नालंकारों को धारण कर रखा है, वही श्रीराधिका मुझे अपने चरण कमलों का दास्य प्रदान करें।।।7।।

या क्षणार्ध-कृष्ण-विप्रयोग-सन्ततोदिता
नेक-दैन्य-चापलादि-भाववृन्द-मोदिता।
यत्नलब्ध-कृष्णसंग- निगर्ताखिलाधिका
मह्यमात्म-पादपद्म-दास्यदास्तू-राधिका।।8।।

जो क्षणार्धकाल के लिए श्रीकृष्ण के वियोग में अतिशय दुःखित हो जाती है और उस समय दैन्य, चपलादि संचारी भावों द्वारा आमोदित हो जाती है तथा दूतीप्रेरणादि प्रयत्न द्वारा श्रीकृष्ण का संग प्राप्त करके अपनी समस्त मनोव्यथा को शांत करती है, वही श्रीराधिका मुझे अपने चरण कमलों का दास्य प्रदान करें।।। 8।।

अष्टकेन यस्त्वनेन नीति कृष्णवल्लभां
दर्शनेऽपि शैलजादि- योषिदालि- दुर्लभाम्।
कृष्णसंग-नन्दिताम-दास्य-सीधु-भाजनं
तं करोति नन्दितालि-सञ्चपाशु सा जनम्।।9।।

जो व्यकित इस अष्टक द्वारा पार्वती आदि देवियों के लिए भी दुर्लभ- दर्शन श्रीराधा की स्तुति करता है, श्रीराधिका अपनी सखियों को आनंदित करती हुई एवं स्वयं श्रीकृष्ण के सहित आनंदित होती हुई, उस व्यकित को शीघ्र ही दास्यामृत का पात्र बना लेती है।।।9।।

श्रीरघुनाथ गोस्वामी नित्य सिद्ध परिकर द्वारा रचयित *श्रीराधिकाष्टकं* का नित्य पाठ करने से राधादास्य की प्राप्ति सुलभ है, श्रीकृष्णलीला में वह रसमंजरी थी। गौरलीला में गौर परिकर होकर राधादासी भाव से भावित होकर उन्होंने वृंदावन में राधा कुंड पर जीवनपर्यंत वास किया था।
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Friday, 1 March 2019

दृष्टि भेद (नृत्य)

दृष्टि के भेद

समममलोकितम् साची प्रलोकितनिमीलिते ।
उल्लोकितानुवृत्ते च तथा चैवावलोकितम् ।।

आचार्य नंदीकेश्वर के अनुसार दृष्टि अभिनय के 8 प्रकार बताए गए हैं।
सम
आलोकित
साची
प्रलोकित
निमीलिते
उल्लोकित
अनुवृत्ते
अवलोकित

सम:-आंखों की दृष्टि सीधे हो अर्थात सीधे देखना सम दृष्टि कहलाती है

(विनियोग)नृत्य में सम दृष्टी का उपयोग:- नाटक के आरंभ में, तुलनात्मक की स्थिति में, किसी के चिंतित विचारों का अनुमान लगाने में, आश्चर्य को व्यक्त करने में और देव प्रतिमा के सम्मुख सम दृष्टि का उपयोग किया जाता है।

आलोकित:-आंखें खोलकर पुतलियों को चारों तरफ घुमाना आलोकित दृष्टि कहलाती है।

(विनियोग)नृत्य में आलोकित दृष्टी का उपयोग:-सभी प्रकार के वस्तुओं को देखने का प्रयत्न करना याचना की स्थिति को प्रकट करने के लिए आलोकित दृष्टि का प्रयोग किया जाता है।

साची:-तिरछी नजर से देखना अर्थात सीधा बैठ कर अपनी पुतलियों को बाएं या दाएं के तरफ देखने को साची दृष्टि कहते है।

(विनियोग)नृत्य में साची दृष्टी का उपयोग:-संकेत करने में, बाण का लक्ष्य साधने में, स्मरण करने में, सूचना देने में और कार्य आरंभ करते समय व्यक्त करने में साची दृष्टि का उपयोग किया जाता है।

प्रलोकित:-एक ओर से दूसरी ओर पुतलियों को किया जाता है अर्थात पुतलियों को दाएं से बाएं की ओर किया जाए तब आंखों की उस स्थिति को प्रलोकित दृष्टि कहा जाता है।

(विनियोग)नृत्य में प्रलोकित दृष्टी का उपयोग:-अपने बगल में दोनों भागों में अवस्थित वस्तुओं को निर्देश देने में, चलने या हिलने डोलने में और बुद्धि की स्थिरता का भाव व्यक्त करने के लिए प्रलोकित दृष्टि का उपयोग किया जाता है।

निमीलित:-आँखें आधा खोल कर नीचे की तरफ देखने को निमीलित दृष्टि कहा जाता है।

(विनियोग)नृत्य में निमीलित दृष्टी का उपयोग:-मंत्र पढ़ने में, ध्यान करने में, नमस्कार करने में, उन्माद की अवस्था में, निमीलित दृष्टि का उपयोग किया जाता है।

उल्लोकित:-ऊपर की तरफ देखने को अर्थात पुतलियां ऊपर की तरफ हो उसे उल्लोकित दृष्टि कहते हैं।

(विनियोग)नृत्य में उल्लोकित दृष्टी का उपयोग:-ध्वज को फहराने समय, मीनार की गुंबज को देखते समय, नक्षत्र मंडल का अवलोकन करते समय, पूर्व जन्म का स्मरण करते समय, ऊंचाई की ओर देखते समय उल्लोकित दृष्टि का उपयोग किया जाता है।

अनुवृते :- ऊपर से नीचे तीव्रता से आँखे करना ।

अवलोकित:-नीचे पृथ्वी की ओर दृष्टि को टिकाने पर यह अवलोकित दृष्टि कहलाती है।

(विनियोग)नृत्य में अवलोकित दृष्टी का उपयोग:-छाया का प्रतिबिंब को देखने में, चिंतन करने में, किसी की चर्चा करने में, अध्ययन करने में, परिश्रम करने में, अपने अंग को देखने में  अवलोकित दृष्टि का उपयोग किया जाता है।