🌀 *सम्बन्ध,अभिधेय,प्रयोजन तत्व* 🌀
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श्रीगौरांग देव कहते हैं-
*भगवान 'सम्बन्ध' भक्ति 'अभिधेय' हय।*
*प्रेमा 'प्रयोजन'-वेदे तीन वस्तु कय।।*
"हे सार्वभौम! श्री भगवान ही *सम्बन्ध* तत्व हैं,भक्ति ही *अभिधेय* तत्व है,और प्रेम ही *प्रयोजन* तत्व है
✴ *(A )सम्बन्ध तत्व-*
समस्त शास्त्रों के प्रतिपाद्य विषय को 'सम्बन्ध तत्व' कहते हैं
समस्त जगत की सृष्टि,स्थिति एवम प्रलय का जो कारण है,वही समस्त शास्त्रों का प्रतिपाद्य विषय है
महाप्रभु कहते हैं वेद श्री भगवान का ही प्रतिपादन करते हैं
समस्त जगत,समस्त जीव,चिन्मय भगवतधाम,सभी लीला स्वरूप तथा लीला परिकरगण- इन सबका परब्रह्म श्रीकृष्ण के साथ नित्य अविच्छेद्य सम्बन्ध है
अनादि बहिर्मुख जीव मयबद्ध हो इस सम्बंध को भूल गया है।
परन्तु परम करुणामय भगवान जीव को नहीं भूले।उन्होंने कृपा करके जीव के मंगल निमित्त वेद पुराणादि प्रकट किए हैं
भगवान के साथ जीव का सेव्य-सेवक सम्बन्ध है
तथा पर्रिकर के रूप में जीव जब उनकी सेवा करता है तो इसीमें जीव तथा परब्रह्म श्रीकृष्ण के सम्बंध की चरम सार्थकता है
सम्बन्ध ज्ञान में जीव श्रीभगवान के साथ अपने अनादि सम्बन्ध को पहचानता है तथा माया क्या है ये भी समझता है
⚛ *(B) अभिधेय तत्व-*
अभिधेय का अर्थ है 'कर्तव्य'
अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए जो उपाय अवलम्बन किया जाता है,उसे अभिधेय कहते हैं
महाप्रभु कहते हैं जीव का एक मात्र साधन या जीव का परम कर्तव्य श्री भगवान की भक्ति ही है
श्री चैतन्य चरीतामृत ग्रँथ कहते हैं-
*'कृष्ण भक्ति हय अभिधेय-प्रधान'*।
*भक्ति मुख निरीक्षक कर्म,योग,ज्ञान।।*
(C C m 22/14)
कृष्ण भक्ति ही प्रधान अभिधेय है क्योंकि कर्म ,योग,ज्ञान-ये तीनों साधन भक्ति का ही मुंह ताका करते हैं
अर्थात ये तीनों भक्ति की सहायता बिना स्वतंत्र रूपसे अपना फल प्रदान करने में असमर्थ हैं
"भक्ति ही जीव को भगवान के निकट ले जाती है,भक्ति ही जीव को भगवद्दर्शन कराती है।भगवान भक्ति के वशीभूत हैं,भक्ति ही गरीयसी (सबसे भारी/श्रेष्ठ) है"
✳ *(C) प्रयोजन तत्व-*
जिस उद्देश्य को लेकर साधना या उपासना की जाती है,उसे 'प्रयोजन' कहते हैं
सम्बन्ध स्मृति होने पर(अर्थात जब कृष्ण से अपना वास्तविक सम्बन्ध याद आ जाए),
तब प्रेम ही साधक की काम्य वस्तु हो जाती है
प्रेम एकमात्र पुरुषार्थ एवम एकमात्र प्रयोजन हो जाता है
अतः प्रेम ही प्रयोजन तत्व है
जन्म-मृत्यु ,त्रिताप-ज्वाला,भय से निवृत्ति आदि की इच्छा केवल उपासना में लगाने के लिए है
सम्बन्ध ज्ञान हो जाए तो साधक देखता है ऐसी कोई इच्छा बाकी ही नही रहती।
तब केवल श्रीकृष्ण ही अत्यंत प्रिय जान पड़ते हैं और उनकी सेवा के लिए तीव्र लालसा जाग उठती है
तब वह केवल यही मांगता है कि "हे नाथ!जैसे अविवेकी पुरुषों की इन्द्रिय विषयों में अटूट प्रीति होती है।वैसेही मुझमें आपकी अविच्छिन्न भक्ति बनी रहे"
*कामिहि नारी पियारी जिमी,लोभिहि प्रिय जिमी दाम।*
*तिमी रघुनाथ निरन्तर प्रिय लागहु मोहि राम।।*
(श्री राम चरित मानस)
अर्थात प्रेम-प्राप्ति ही केवल भगवद्भक्ति करने का प्रयोजन है
महाप्रभु कहते हैं-
*"भक्तिफल प्रेम-प्रयोजन"*
भक्ति का फल जो प्रेम है,वही 'प्रयोजन-तत्व' है
जय जय श्रीश्री राधे श्याम🙏🏼🙇🏻🌹
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