वृषभानु ललिहिं उर आनिये |
नरक, स्वर्ग, अपवर्ग आदि की, खाक वृथा मत छानिये |
तुम हो नित्य किंकरी जिनकी, तिन स्वरूप पहिचानिये |
अस उदार सरकार न मिलिहैं, उनहिंन स्वामिनि मानिये |
येहि दरबार दीन को आदर, जो जानन चह जानिये |
कह ‘कृपालु’ यह बात मानि मन ! ललिहिं प्रेम रस सानिये ||
भावार्थ – अरी जीवात्माओं ! श्री वृषभानुनन्दिनी किशोरी जी को हृदय में बसा लो | विकर्मों द्वारा नरक, सुकर्म द्वारा स्वर्ग एवं ज्ञान द्वारा मोक्षादि की व्यर्थ ही खाक क्या छानती हो ? तुम जिन किशोरी जी की स्वभावत: नित्य दासी हो उनके स्वरूप को पहचानो | ऐसी अकारण – कृपामयी उदार सरकार कोई न पा सकोगी | अतएव उन्हीं को अपनी स्वामिनी स्वीकार करो | उस दरबार में अपने को दीन मानने वाले का ही आदर होता है – यह विश्वास दृढ़ कर लो | ‘श्री कृपालु जी’ कहते हैं अरे मन ! तू भी उपर्युक्त बात पर विश्वास करके किशोरी जी के दिव्य प्रेम रस में सराबोर हो जा |
( प्रेम रस मदिरा श्रीराधा – माधुरी )
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
सर्वाधिकार सुरक्षित - राधा गोविन्द समिति
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