Sunday, 29 January 2017

श्री प्रिया छुपन लीला ... तृषित

सखी वें आ रहे ... छिप जाओ ।

*आ ... आ ... आ रहे !! ... छिप ... छिप ... हाय ! क्यों सखी ...*

सखी उन्हें व्याकुल होना होगा तभी वें समझेंगे तुम्हारे प्रेम को ... हम ऐसे कैसे मिलने दे तुम्हें ... ???
तनिक कुछ मूल्य तो लें ...

*व्याकुल ... किसे ... उन्हें ... हाय !! ना ... ना ... ना ... !!! कौनसा मूल्य ! ना सखी ... मैं उनकी ही हूँ जो हूँ ... उनके नेत्र मुझे बिन मोल खरीद चुके है न ... ना ! ना ... व्याकुल ! सखी ... ना !!*

हमारी पिय मिलन को बाँवरी सखी ! तुझे हमने सजाया क्यों ? उनके लिए न !! तो इस सृंगार का रस उन्हें हो तो कुछ वह व्याकुल भी तो हो ...

*श्रृंगार ! ... हटा दो न फिर यह श्रृंगार ... उन्हें व्याकुल करने का कारण कैसे होऊँ ... ना !! तुम ले लो यह श्रृंगार ... यह दासी बिन श्रृंगार उनसे मिलेगी ... सखी वह मेरे प्राण है ... यहाँ हुए और मैं छिप भी सकूँ यह कैसे होगा ... ???*

ओह ! सखियों ... अब इसका क्या करें ... इससे खेल होता ही नहीँ ... देख पगली ... तू है उनकी ... पर उन्हें सहज दिख गई और कुछ व्याकुल होने पर दिखी तो इसमें लाभ उनका ही ... क्योंकि व्याकुलता में वह सहजता खो देंगे ... और फिर हृदय द्रवीभूत हो एक रस होने को उछल पड़ेगा ...

*सखी ... यह सब समझ न आया ... सच कह ... क्या न मिलने से उन्हें सुख होगा ... सखी मैं उनकी वस्तु मात्र हूँ ... क्या यह अपराध तो नहीँ होगा न !! क्योंकि कैसे ... उनकी अभिलाषा का हनन कर सकती हूँ ... मुझे न पाकर उनमें कौनसा सुख होगा ... ना ... ना ... ना ! सखी मुझे न पा कर ... वह वैसे ही व्याकुलित होंगे जैसे सर्प मणि के न मिलने पर ... ! यह मणि उनके नेत्र है ... उनका सुख ... मैं हूँ क्योंकि उनकी हूँ ... फिर ... सर्प मणि तो बेचारे सर्प की पिपासा समझ नहीँ सकती ... उनका असन्तोष !! कही मेरे प्राण न लें लें ... और सखी उनके सुख बिन यह प्राण भी छूट न सकेंगे ... तो ... तो सखी ... यह वेदना कैसे ... कैसे ... सखी उन बिन मैं स्वयं में पिंजरे में बंद सारिका सी हूँ ... सखी अपने प्राण से कैसे छिपुं ... न ... न !!*

सखियाँ कुछ मन्त्रणा कर ...
देख उन्हें सुख ही वर्द्धन होगा ... तू रति संग जा ... पीछे से आ उन्हें छुना ... अचानक तेरा स्पर्श पा कर वह ... अहा सखी !! सखी तू हमारी भी है न ... देख व्याकुलता तो होगी पर ... उन्हें सुख होगा !! सच पगली !! परिणाम उनका सुख ही है हमारा ...

*सखी उन्हें सुख होगा ... परन्तु जब उन्हें असन्तोष हुआ तो ... उन्हें लगा कही कि यह राधा रूठ गई उनसे तो ... सखी वह प्राण हमारे ... मैं अवशेष हूँ उनकी ! वें प्राणवायु हमारे ... उन्हें असन्तोष हुआ तो फलतः मुझसे सहा कैसे जाएगा ?? उनके सुख मात्र हेतु तो मेरी भूमिका है ... उनका सुख ही यह मेरी पृथक आवश्यकता है ... वरन हम ... !!*

सखियाँ पुनः मन्त्रणा करती है ... एक सखी उनमें से चुप चाप बाहर चली जाती है ...

सखियों से लिपट प्यारी उन्हें होने वाली पीड़ा के स्मरण मात्र से मूर्छित होने लगी है ... सखियाँ ललिता जु को देख रही है ... नेत्रों से ललिता जु सबको सम्बल देती है और मुस्कुरा देती है ... ललिता जु के मुस्कुराने से सबमें प्राण आते है कि प्रियाप्रियतम हित का ही नाम सखी है ... सखी जो कहेगी सुन्दर सुखफल ही होगा ...

वह सखी पुनः भागती हुई ... हाँफती हुई भीतर आती है ... मुख से श्यामा ... श्यामा ... कह रही है ! उसकी अधीर वाणी से हल्के हल्के नेत्र खोल श्यामा उसे कौतूहल से देखती है , ... श्यामा ... श्यामा ... हम यहाँ प्रतीक्षा कर रहें है ... श्यामसुंदर आम्रकुंज में प्रवेश कर रहे है ... तुझे पुकारते हुए ...

*हाय ... चल ... चल ! सखी शीघ्र मुझे लें चल ... अपने प्राणों तक ... शीघ्र चल पगली ... यह प्राण उन बिन सम्बल नहीँ जुटा पा रहे ...*

उसका हाथ पकड़ प्रिया जु सजी श्रृंगारित ऐसे भागती है जैसे चातकी स्वाति मेघरस अणु के पान को भागती है ... !

सब सखियाँ ... भागती हुई श्यामा को देखती है ... रूप ललिता जु के नेत्रों में देखती है , रूप की अधीरता से ललिता जु स्वीकृति देती है और वह अपनी श्यामा के पीछे-पीछे भाग जाती है ... !!

श्यामसुंदर कहां आयेंगे इस पर सखियाँ आपस में वार्ता कर रही है ... ललिता जु के कहने पर वीणा पर रस रागिनियाँ छेड दी जाती है ... एक सखी प्रिया की नृत्य पेजनियों को बजाती है ...

प्रिया के नृत्य पद स्पन्दन से विचलित मनोहर दुविधा में होते है क्योंकि पद तल का स्पंदन और सौरभ आम्र कुँज से आ रहा है ... परन्तु गहन रागिनियों और नूपुर ध्वनियों से वह बलात इस रस कुँज तक आ जाते है ... !!

यहां सब है परन्तु श्रीप्रिया दर्शन ... विचलित मनहर के दृग कंज अपनी कमिलिनी को निहारने के लिये सारे रस कुँज की परिक्रमा लगाते है ...
जब नेत्र प्रिया को निहारने में असफल होते है तो परिणाम अधर और व्याकुलता का ज्वर हृदय से जैसे बिन आदेश फुट पड़ता है ...
नेत्र ललिता जु पर ... प्रिया कहां है ... दिखाई नहीँ दे रही ! नेत्र सजल हो गए है बस बहे नहीँ ...

युगल भाव की एकता में द्विधा वृत्ति कैसे ... तृषित

युगल का मन एक है , हृदय एक है , रस भाव एक है , दोनों समत्व रस एक समय धारण करते है ,
उसे विपरीत सखी करती है ... सहचरी । वरन समान समय पिपासा हो तो निदान कैसे हो । एक पिपासा एक निदान । अतः युगल रस का बीज उनके मिलन की द्रष्टा तत्व यानी सखी है ।
सखी भाव -- मै महाभाव रसराज की सेवा सहचरी हूँ । मुझमे दोनों के हृदय के तार जुड़े है ।
क्योंकि तत-सुखी युगल एक हृदय , एक रस , एक मन , एक भाव , एक रूप , एक रस होने पर ,द्विधा वृत्ति कैसे लायेंगे ।
विपरीत वृत्ति न हो अर्थात एक रस एक प्रेम न हो । या एक प्यास , एक निदान न हो दोनों प्यास हो जाएं या दोनों निदान हो जाएं तो केलि कैसे होगी । श्यामा हिय में श्यामसुंदर के हिय की बात है और श्यामसुंदर के हिय में श्यामा के हिय की बात , जब बात ही एक है तो केलि कैसे होगी अतः तत्सुख भाव केलि समय स्वसुख ही लगता है परन्तु उससे पुष्टि तत हृदय यानि परस्पर हृदय को होती है । क्षमा , अन्यथा न लीजियेगा । तृषित

योगमाया का यही प्रभाव है ... स्वरूप विस्मृति जिससे सहज रस आदान प्रदान हो । दोनों का दिव्य रस प्रभाव और रूप प्रभाव वहाँ होकर भी दोनों को परस्पर सुख में डूबा सकें ।

जैसे - मान लीजिये श्यामा जु पुष्प चुन रही है
परन्तु सुगन्ध श्यामसुंदर को आ रही है , जहां वह है ...
केलि ।
एक ही खेल के दो पाले - परस्पर सुख हेतु ।
रसराज और महाभाव
श्याम सुंदर के प्रेम का श्यामा  भाव रूप का होना ।
और श्यामा के रूप का शयमसुन्दर के हिय भाव से गहन होना ही केलि है ।
श्यामसुंदर में नित श्यामा की माधुर्यता और
श्यामा में नित श्याम हिय से विकसित रूप की नित्य आभा का विकास होते रहना नित्य केलि है ।
यह सब बहुत गहन है ।
श्यामसुंदर के हिय नित्य वर्द्धित श्यामा के रूप का चिंतन है ...
और जो रूप उनके हिय में छिपा है वह प्रकट होना ही श्यामा का होना है ।
श्यामा के भाव समूह सार सिंधु का दृश्य रूप ही मनहर है
श्यामा के हिय की कोमलत्व से ही श्यामसुंदर का अणु अणु प्रस्फुरित होता है ।
परस्पर विकसित यह ... दो है ही नही ।
जगत में एक और पुष्प दूसरी और शुष्कता है । वहाँ एक नाल दोनों और यह पुष्प ।
एक बत्ती दोनों और से प्रकाशित जिनके बीच का घृत संयुक्त भाव ईंधन है ।
अर्थात किशोरी के उज्जव भाव हेतु उसके पात्र श्यामसुंदर अति कोमल खिल रहे ।
श्यामसुंदर के भाव रूप की छब ही गहन हेतु हो श्यामा ।
श्यामसुंदर के नेत्र के सौंदर्य का नाम राधा ।
श्यामा के हिय के गूढ़तम रस का नाम मोहन ।
अनन्यता यही है कि श्यामसुंदर की सेवा का सुख किशोरी हिय में होता है प्रेम दान में प्रेम पात्र का सुख । यह जगत में असम्भव है ।

"प्रिय पौंछत पटपीत सौ प्रिया कपोलन पीक
" प्यारी पौंछत प्रिय के अधरन अंजन लीक"

Friday, 27 January 2017

श्री प्रिया की पलकें ... तृषित

*श्री प्रिया की पलकें* ... *तृषित*

श्यामल रस घन को समेटते सजल अथाह पिपासा की मधुर उर्मियों को पिए हुए श्री प्रिया के नयन युगल की सहचरियाँ है यह पलकें ...

रस घन की लावण्यता और उनके अधर नयन का संयुक्त दर्शन करते ही नयनों की लज्जा को तत्क्षण बता कर पुनः व्यथित पिपासु नयनोँ का पट है यह पलकें ...

पिय स्मरण के स्पंदन से सजल नयन के रस झारी को समेटने के लिये गिरती यह नीलिमा समेटी चद्दर जैसे प्रियतम के सौंदर्य को भीतर ही उतारना चाहती हो ... नित्य मिलन की विश्राम भूमि है यह पलकें ...

नागर की सौरभ से तिलमिलाए अंग को ना समेट पाने से संचालन खो कर बारबार गिरती और उठती कुछ कह कर भी न कहती श्रीप्रिया के उन्माद की तरँग को किसी परिभाषा से परे करते हुए काँपते हुए सागर की तलाश बन जाती है यह पलकें ...

नागर जु की दृष्टि से चोरी करती हुई प्रिया के नैनो में सिमटी नवल अधर रस पिपासिनी की लज्जा जो नैनों के आवरण को भंग करने की यथेष्ठ कामना बन गई हो यह पलकें ...

लज्जित नेत्रों में समेटे माधुर्य में नागर उपस्थिति का लाभ उठाने को सजल नयनों की अनसुनी कर उन्हें अनवरत नागर सौरभ पान के लिये उन्मादित करती भाग गई नयनों की एक सखी है यह पलकें ...

प्रियतम की प्रतीक्षा को प्रियतम की उपस्थिति बनाने के लिये रसीली जु को हृदय में उनका नित्य दर्शन कराने के लिये शीतल मेघ लता बन जाती है यह पलकेँ ...

श्री प्रिया प्रियतम के नित संग में स्वयं को असार समझ सजल नयनों का श्रृंगार बन ऊपर उठी श्यामल ओढ़नी थामें तपस्विनी है यह पलकें ...

नेत्रों का निकटतम कृष्ण सुख है यह पलकें इस पर जो काले नन्हें बाल है वह प्रियतम की मधुरतम स्मृतियों से प्रिया को आह्लादित करता है और प्रियतम के निकटतम छुअन स्पंदन को उनमें नित्य पिरोता जाता है । अस्पर्श में स्पर्श सुख प्रदायिनी है पलकें ...

शयमसुन्दर की प्रतीक्षा काल में व्यथित श्यामा को शीतल मंद ब्यार से स्वप्न रस में मिलन लोभ दिखा विश्राम प्रदायिनी है यह पलकें ...

भाव मिलन में कभी शीघ्र बाह्य नागर सौरभ से भाग गई नयन कमल पर बैठी तितली है यह पलकें ...

वहीँ भाव रस गाढ़ता में डूबी प्रिया को बाह्य नागर अनुभूति से मान पूर्वक मानिनी हो नागर को पुनः-पुनः सताती हुई उनके रस को व्याकुलित कर गहन करती है यह पलकें ...

नागर जु की दृष्टि की लज्जा और प्रिया मुख दर्शन लालसा को समझ स्व दर्शन सुख को प्रिया मानस में उतार नयनों पर गिर कर प्रियतम को गहन प्रिया दर्शन सुख को प्रदान करने वाली महाभाविनि है यह प्रिया की पलकें ...
"तृषित"

Wednesday, 25 January 2017

व्रज रज मिश्रित यमुना जल

व्रज रज मिश्रित यमुना जल.....

शरदपूर्णिमा की रात्रि को श्री कृष्ण ने जब श्री श्यामा जू की आज्ञा पा कर महारास का प्रारम्भ किया तब श्री राधा रानी के संग तो उन्ही के श्याम ने नृत्य किया ही..
साथ ही हर एक गोपी के हृदयस्थ प्रभु श्री कृष्ण उस परम भाव मयी बेला में उसी के समक्ष प्रकट हो नृत्य मयी रास करने लगे..

संतों के माध्यम से ही श्रवण किया जाता है कि दो गोपियों के साथ एक कृष्ण नृत्य किये..
"जिन जिन गोपियों के ह्रदय भाव मिलते हुए रहे"
उन्ही दोनों गोपियों के बीच उनके हृदयस्थ श्री कृष्ण प्रकट हुए..

महारास का प्रारम्भ होने पर प्रथमतः रास श्री युमुना पुलिन के पास होता रहा....उसके पश्चात् श्री यमुना के पुलिन पर होना प्रारम्भ हो गया....तत्पश्चात श्री कृष्ण श्री राधे व् सभी गोपियों सहित श्री यमुना जल में उतर कर रास करने लगे....

श्री राधे जू व् सभी गोपियों सहित श्री कृष्ण इतना तीव्र गति से महारास में नृत्य करते रहे..कि जब रास दर्शन करने को ब्रह्म लोक से श्री ब्रह्मा जी ने रास के दर्शन करने चाहे तो ऐसा प्रतीत होता था मानो बादलों में बिजली चमक रही हो..

क्योंकि गौर वर्ण श्री जू और उनकी सखियों का है..(जबकि श्री जू का सौंदर्य सभी गोपियों से अनंत गुना है..किसी भी प्रकार उनके सौंदर्य का वर्णन नहीं किया जा सकता ..वह अवर्णनीय है)..
और श्याम वर्ण श्री कृष्ण है..इसी कारण ऊपर से दर्शन करने पर बादलों में बिजली चमकती सी प्रतीत होती थी..

इसी तीव्र गति रास में जब श्री युगल किशोर सभी गोपियों सहित नृत्य करते है..तब श्री श्यामाश्याम व् सभी गोपियों के चरणों में जो व्रज रज लगी है वह यमुना जल में इस प्रकार मिश्रित हो गई की जल की अधिकता से रज की अधिकता हो गई..जो कि अहर्निश बनी हुई है..

वस्तुतः जब हम यमुना जल हाथ में पान करने को लेते है तब हमें वह जल का ही अनुभव देता है..किन्तु सत्यता में उस जल में जल से भी अधिकता व्रज रज की ही है..इसी कारण पुष्टि सम्प्रदाय के आचार्य श्री मद वल्लभाधीश जी ने "श्री यमुनाष्टकं" की रचना करते समय प्रथम श्लोक की दूसरी ही पंक्ति में इसी बात को कहते हुए उस पर प्रकाश डाला है..कि..

"मुरारी पद पंकज स्फुर दमन्द रेणूत्कटाम्"

अर्थात-मुरारी भगवान् के जो कोमल चरण कमल है..उन चरणों की रेणू को अपने जल की अपेक्षा अधिक धारण करने वाली श्री यमुना जी है..!

और आज हम जिन श्री यमुना जी के जल का दर्शन करते है..वस्तुतः वह श्री यमुना जल तो है ही....
किन्तु यमुना जल के नाम से प्रसिद्ध वह इस धरा पर अत्यंत दुर्लभ ब्रह्म रस ही है....
वही ब्रह्म रस रुपी श्री यमुना जी जिसका मूल प्रादुर्भाव श्री कृष्ण के ह्रदय से हुआ है..

श्री यमुना जी..जो अधमाधम पर भी अपनी करुणा मयी दृष्टि से कृपा कर श्री कृष्ण की भक्ति से उसके जीवन को श्रृंगारित करने वाली है..
निसंदेह जो भक्ति प्रदायिनी होते हुए स्वयं भक्ति महारानी की ही स्वरूप है..

ऐसी अनंत आनंद की सागर..कृपा मयी करुणा मयी श्री यमुना जी के चरणारविन्द में हम सादर नमन करते है....जो हमें श्री कृष्ण की ओर सहज ही अपनी कृपा कर ले जाती है..
जो की मानव जीवन को पाने की एक मात्र सार्थकता है....!

श्री राधे..🙌