Monday, 10 June 2019

हित-युगल

*हित-युगल*

उज्‍जवल- रस की उपासना के लिये युगल का होना आवश्‍यक है। भरत ने प्रमदा युक्त पुरुष को ही श्रृंगार कहा है- ‘पुरुष:प्रमदा-युक्त: श्रृंगार इति संज्ञित: श्रृगांर रस की उपासना अपने देश में प्राचीन काल से चली आ रही है। पुराणों में तथा अन्‍यत्र दृष्टि में इसकी प्राचीनता सिद्ध हो चुकी है।

सोलहवीं शती में उत्‍पन्न होने वाले आचार्यों और महात्‍माओं ने इसको बहुत पल्लिवत किया और उसी समय इस उपासना की परिपाटियाँ बनीं। सभी रस-उपासकों के उपास्‍य राधाकृष्‍णात्‍मक युगल हैं, किन्‍तु राधाकृष्‍ण के स्‍वरूप और परस्‍पर संबध को लेकर इन लोगों में काफी मतभेद है। यह मतभेद मूलत: प्रत्‍येक आचार्य की भिन्न प्रेम-रस संबधिनी दृष्टि के ऊपर आधारित है।

राधावल्‍लभीय प्रेम-सिद्धान्‍त में युगल की स्थिति का संक्षिप्‍त परिचय पीछे दिया जा चुका है। वे प्रेम के दो खिलौने हैं जो प्रेम का ही खेल खेल रहे हैं- ‘प्रेम के खिलौना दोऊ खेलत हैं प्रेम खेल’। परात्‍पर ‘हित’ और प्रेम और सौन्‍दर्य दो रूपों में नित्‍य व्‍यक्त रहकर अनाद्यनंत प्रेम-क्रीडा में प्रवृत्त है। प्रेम और रूप ही हित के सहज युगल हैं। इन दोनों में भोक्ता-भोग्‍य का संबंध है, प्रेम भोक्ता है और रूप भोग्‍य। प्रेम की मूर्ति श्‍याम सुन्‍दर हैं और सौन्‍दर्य की श्री राधा। जिस प्रकार प्रेम और सौन्‍दर्य अपनी उज्‍वलतम परिणति में एक-दूसरे से पृथक् नहीं किये जा सकते, उसी प्रकार राधा-श्‍याम सुंदर को परस्‍पर एक क्षण का वियोग भी असह्य है।

प्रेम सदैव प्रेम-तृषा से पूर्ण होता है। प्रेम को प्रेम की प्‍यास सदैव लगी होती है। श्‍याम-श्‍यामा में प्रेम की स्थिति समान है, अत: इनकी प्रेम-तृषा भी समान है। ‘यह दोनों परस्‍पर अंशों पर भुजा रखे हुए एक-दूसरे के मुख- चन्‍द्र को देखते रहते हैं और इनके नेत्र वृषित चकोरों की भाँति मत्त बनकर रस-पान करते रहते हैं।’

अंसनि पर भुज दिये विलोकत इंदु-वदन विवि ओर।
करत पान रस मत्त परस्‍पर लोचन तृषित चकोर।।

इसका अर्थ यह हुआ कि यह दोनों ही चन्‍द्र हैं और दोनों तृषित चकोर हैं। दोनों ओर चन्‍द्र ही चकोर बन कर चन्‍द्र का रसपान कर रहा है। जल ही प्‍यास बनकर जल को पी रहा है। प्‍यासे पानी की प्‍यास को बुझाने का कोई उपाय नहीं रह जाता। पानी को यदि प्‍यास लग आवे तो निकट-स्थित कुए से भी क्‍या लाभ ? ‘पानी लागै प्‍यास जो कहा करैं ढिंग कूप ?’ प्रेम की तृषा रूप-जल से सिंचित होकर शान्‍त होती है, किन्‍तु यदि रूप-दर्शन से वह बढ़ने लगे, तो उसकी निवृत्ति का कोई साधन नहीं रहता। राधा-श्‍याम-सुन्‍दर की प्रेमतृषा परस्‍पर रूप-दर्शन से अनंत और नित्‍य वर्धमान बनी हुई है।
इस समान और अंनत प्रेम-तृषा का प्रभाव युगल के स्‍वरूप संबंध और क्रीडा पर अद्भुत पड़ा है। इसी के कारण उनके तन- मन घुल-मिलकर एक बने हैं और इसी के विवश बनकर वे प्रेम का एक रस उपभोग करने में समर्थ बने हैं। उनकी रसिकता का आधार भी यह तृषा ही है। रस-तृषित ही रसिक कहलाता है। रस-तृषा जितनी तीव्र होती है, रसिकता भी उतनी ही परिष्‍कृत और गंभीर होती है। श्‍याम-श्‍यामा-श्‍यामा, इसीलिए, रसिक शिरोम‍णि हैं कि वे एक-दूसरे के प्रेम-रूप का आस्‍वाद अनंत तृषा लेकर करते हैं। युगल के ऊपर उनकी अनंत प्रेम-तृषा के प्रभाव का वर्णन करते हुए श्री ध्रुवदास कहते हैं, ‘यह दोनों एक मन और एक हृदय हैं और इनको एक ही बात सुहाती है। इनकी एक ही वय है, एक से भूषण-पट हैं और इनके अंगों में एक-सी छबीली छटा सुशोभित है। यह दोनों रूप के रंग में ही भीग रहे हैं और दोनों ने अपने नेत्रों को परस्‍पर चकोर बना रखा है। यह दानों एक-दूसरे के संग को इस प्रकार चाहते हैं जैसे मीन जल के संग को चाहता है। इनको देखकर सखी गण परस्‍पर यह कहती रहती हैं कि रसिक-शिरोमणि युगल के बिना और कौन प्रेम-व्रत का एक रस निर्वाह कर सकता है।

हितध्रुव रसिक सिरोमणि युगल बिनु,
आली, को निबाहै एक रस प्रेम-पान कौं।

वृन्‍दावन-रस के रसिकों ने इसीलिए इनको सदैव साथ ही चित्रित किया है। साथ रहने से प्रेम और रूप एक दूसरे में प्रतिविम्बित हो उठते हैं और रूपमय प्रेम तथा प्रेम मय रूप की सृष्टि हो जाती है। श्‍याम सुन्‍दर रूपमय प्रेम हैं, और श्री राधा प्रेम मय रूप हैं। प्रेम में रूप ओतप्रोत है, और रूप में प्रेम। श्री राधा और श्‍याम सुन्‍दर इस प्रकार प्रेमालिंगन में आबद्ध हैं कि उनमें श्‍याम और गौर का विवेक नहीं किया जा सकता, ‘रति रस-रंग साने ऐसे अंग लपटाने, परत न सुधि कछु को है श्‍याम गौर री’। इनको देखकर सखीगण यह विचार करती रहती हैं कि कौन सा प्रेम और कौन सा रूप एक स्‍थान में एकत्रित हुआ है, ‘हितध्रुव हेरि-हेरि करत विचार सखी, कौन प्रेम, कौन रूप जुरयौ इक ठौर री,।

नित्‍य-वर्धमान, समान प्रेम-तृषा ने यद्यपि युगल को एक दूसरे में ओत-प्रोत बना दिया है किन्‍तु प्रेम-क्रीडा के लिए दोनों का स्‍वतन्‍त्र व्‍यक्तित्‍व होना आवश्‍यक है। राधा-श्‍यामसुन्‍दर एक-प्राण, एक-मन, एक-शील और एक-स्‍वभाव होते हुए भी अपने स्‍वरूपों में सर्वथा स्‍वतन्‍त्र हैं। युगल की परस्‍पर विलक्षणता को स्‍पष्ट करते हुए श्री हित प्रभु कहते हैं- ‘इनमें से एक छवि तो सुवर्ण के चंपक जैसी है और दूसरा नील मेघ के समान श्‍यामल है। एक काम के द्वारा चंचल बन रहा है और दूसरे ने बाह्य प्रतिकूलता धारण कर रखी है। एक मान की अनेक भंगियों से मंडित है और दूसरा रसपूर्ण चाटुता कर रहा है। निकुंज की सीमा में क्रीडा करते हुए इस महामोहन युगल को मैं देख पाऊँगा?'
एकं कांचनचंपकच्‍छवि परं नीलाम्‍बुदश्यामलं,
कंदर्पोत्तरलं तथैकमपरं नैवानुकूलं बहि:।
किंचैकं बहुमानभंगि रसवच्‍चाटूनि कुर्वत्‍परं,
वीक्षे क्रीडनिकुंजसीम्नि तदहो द्वन्‍द्वं महामोहनम्।

एक ही प्रेम के दो ‘खिलौने’ होते हुए भी युगल के प्रेम-स्‍वरूपों में भिन्नता है। श्‍याम सुन्‍दर प्रेमी हैं और स्‍वभावत: उनका प्रेम आवेश युक्त है। उनकी प्रीति वेगवती जल धारा की भाँति अपने किनारों को तोड़ती हुई अपने लक्ष्‍य की ओर धावित होती रहती है। श्रीराधा प्रेमपात्र हैं, अत: उनका प्रेम उस गंभीर सागर की भाँति है जो अपनी लहरों को अपने अंदर समा लेता है। उनके प्रेम में वाणी को प्रवेश नहीं होता। यह गंभीर सागर यदि अपनी मर्यादा छोड़कर उमड़ पड़े तो इसको रोकने की क्षमता किस में है?

यद्यपि प्‍यारे पीय कौं रहत है प्रेम अवेस।
कुंवरि प्रेम गंभीर तहाँ नाहिन वचन प्रवेश।।
प्रिया-प्रेम सागर अमल लहरिनु लेत समाय।
उमड़ै जो मर्जाद तजि कापै रौक्‍यौ जाय।।

Sunday, 9 June 2019

प्रेम का अधिकारी - वियोगी हरि

*प्रेम का अधिकारी*

*प्रेम योग -वियोगी हरि*

प्रेम का असली अधिकारी करोड़ों में कहीं एक मिलता है। दर्द का मर्म किसी कस कीले दिलवाले के ही आगे खोला जाता है। जो स्वयं ही प्रेमी नहीं, वह प्रेम का भेद कैसे समझ सकेगा? कबीर साहब इस बेदर्दी दुनिया के रंग ढंग से ऊबकर अपने मन से कहते हैं कि अपनी राम कहानी किसे जाकर सुनायें, अपना रोना किसके आगे रोया जाय? दर्द तो कोई जानेगा नहीं, उलटे सब हँसेंगे-

कह कबीर, दुख कासों कहिए, कोई दरद न जानै।।
इससे अपनी मीठी मनोव्यथा मन में ही छिपा रखनी चाहिए। अनाधिकारियों के आगे अपना दुख रोने से लाभ ही क्या? व्यथा को बाँट लेने वाला तो कोई है नहीं, सुनकर लोग उलटे अठलायँगे। रहीम का यह सरस सोरठा किस सहृदय की आँखों से दो बूँद आँसू न गिरा देगा-

मन ही रहिए गोय, ‘रहिमन’ या मन की व्यथा।
बाँटि न लैहै कोय, सुनि अठिलैंहैं लोग सब।।

कहो, किसे प्रेम का अधिकारी समझें! किसे अपनी प्रेम गाथा सुनायें। क्या कहा कि किसी पंडित या ज्ञानी को अपनी व्यथा कथा क्यों नहीं सुना देते, क्या  ज्ञानी भी तुम्हारी प्रेम वेदना सुनने का अधिकारी नहीं है? नहीं, वह प्रेम प्रीत का अधिकारी नहीं है। वह विद्याभिमानी ज्ञानी प्रेम कथा को क्या समझेगा-
अँधे आगे नाचते, कला अकारथ जाय।
शास्त्रों के मनोमुग्धकारी मार्ग में वह नेत्रवान् हुआ करे, परंतु प्रेमपंथ में तो नेत्र विहीन ही है। अँधे के आगे नाचने से कोई लाभ तो फिर किसी नियम निरत योगी को ढूँढ़ लाओ। तुम्हें तो किसी श्रोता से ही प्रयोजन है न? वह जरूर तुम्हारे दिल की बात समझ लेगा। और तुम्हारी अंतर्व्यथा पर सहानुभूति भी प्रकट कर देगा। प्रेम का तो उसे अवश्य अधिकारी होना चाहिए। नहीं, भाई! नेमी और प्रेमी में पृथिवी आकाश का अंतर है। वह प्रेम का अधिकारी कदापि नहीं हो सकता। इससे-

कोऊ कहूँ भूलि जिन कहियो नेमीसों यह ज्ञानी।
कैसे मिदै तासु उर अंतर ज्यों पाथर में पानी।।- बख्शी हंसराज

नियम बेचारा तो यम नियम की ही बातें सुनना चाहेगा। प्रेमव्यथा की यह अकथनीय कथा तो आदि से अंत तक नियम नियंत्रण से परे है। बेचारा सुनते सुनते थक जायेगा। उसका मन ही न लगेगा। बड़ी लंबी चौड़ी कहानी है। दूसरे, इसका कहना भी महान् कठिन है। यह तो अंतस्तल की कथा है, जिगर की कहानी है। जिसे पढ़ना हो, कलेजा चीरकर पढ़ ले। पर ऐसा प्रेमाधिकारी तो उस प्रेम प्यारे को छोड़ दूसरा कोई नजर आता नहीं-

मेरी ये प्रेम व्यथा लिखिबेको गनेस मिलैं तो उन्हीतें लिखावौ।
व्यास के शिष्य कहाँ मिलै मोहिं, जिन्हें अपनी बिरतान्त सुनावौं।।
राम मिलैं तौ प्रनाम करौं, कवि ‘तोष’ बियोगकथा सरसावौं।
पै इक साँवरे मीत बिना यह काहि करेजो निकारि दिखावौ।।

यों तो इस जगत् में ‘प्रेमी’ उपाधि धारी सैकड़ों सहस्रों महापुरुष मिलेंगे, पर उनमें भुक्त भोगी प्रेमाधिकारी तो कदाचित् ही कहीं कोई एकाध देख पड़े। तालाब में मछली भी रहती है और मेढक भी रहता है। दोनों ही जलचरर है, जल के जीव हैं। पर नीर के प्रेम की अधिकारिणी एक मछली ही है। अब कहो जल वियोग की व्यथा सुनने या समझने का सच्चा अधिकार मेढक को है या मीन को?
जिन नहिं समुझय्यौ प्रेम यह, तिनसों कौन अलाप?

दादुर हू जल में रहै, जानै मीन मिलाप।।- ध्रुवदास
इस मतलबी दुनिया में मेढक जैसे नामधारी प्रेमी तो पग पग पर मिल जाएंगे, पर मीन की जाति का प्रेमाधिकारी शायद ही कहीं कोई मिले। बख्शी हंसराज ने ‘सनेह सागर’ में क्या अच्छा कहा है-

चाहनहारे सुख संपत्ति के जग में मिलत धनेरे।
कोऊ एक मिलत कहुँ प्रेमी, नगर बगर सब हेरे।।

परम प्रेमी आनन्दघन ने अपनी करुणा कलापिनी कविता के अधिकारी की जो व्याख्या की है, प्रायः वही प्रेमाधिकारी की भी परिभाषा है। जिसके हृदय और नेत्रों में एक प्रेम की पीर, लगन की एक मीठी सी कसक या हूक उठा करती है, वही अनुरागी आनन्द घन की कविता या किसी प्रेमी की प्रेम कहानी सुनने और समझने का सच्चा अधिकारी है-

प्रेम सदा अति ऊँचो लहै, सुकहै इहि भाँति की बात छकी।
सुनिकै सबके मन लालच दौरै, पै बोरे लखैं सब बुद्धि चकी।।
जग की कविताई के धोखें रहैं, ह्याँ प्रवीननि की मति जाति जकी।
समुझै कविता ‘घन आनंद की’ हिय आँखिन नेह की पीर तकी।।

इस अधिकार का पाना कितना कठिन है, कैसा दुर्लभ है, इसे कौन कह सकता है। प्रेमी होना चाहे कुछ आसान भी हो, पर प्रेम का अधिकारी होना तो एकदम मुश्किल है। बड़ी टेढ़ी खीर है। सिंहिनी का दूध दुह लेना चाहे कुछ सुगम भी हो, पर प्रेम का अधिकार प्राप्त कर लेना तो महान् कठिन है।
हमारी मनोव्यथा सुनने समझने का अधिकारी तो वही हो सकता है, जिसे अपना शरीर दे दिया है, मन सौंप दिया है और जिसके हृदय को अपना निवास स्थान बना लिया है अथवा जिसे अपने दिल में बसा लिया है। उससे अपना क्या भेद छिपा रह सकता है। ऐसे प्रेमी को अपने रामकहानी सुनाते सचमुच बड़ा आनन्द आता है, क्योंकि वही उसके सुनने समझने का सच्चा अधिकारी है। रहीम ने कहा है-

जेहि ‘रहीम’ तन मन दियौ, कियौ हिये बिच भौन।
तासों सुख दुख कहन की रही बात अब कौन?

ज्ञानी अथवा सिद्ध प्रेमाधिकारी नहीं हो सकता, किन्तु प्रेमाधिकारी निस्संदेह ज्ञानी और सिद्ध की अवस्था को अनायास पहुँच जाता है। जो प्रेम की कहानी सुन और समझ सकता है, वही तो ज्ञानी और सिद्ध है-

कहै प्रेम कैबरनि कहानी। जो बूझै सो सिद्ध गियानी।।  - जायसी

*वियोगी हरि*

लेखक एक दिव्य रसिक हुये है । उनका नाम ना हटावें । श्रीहरि को अपने प्रेमियों के नाम स्मरण से आह्लाद होता है ।