Thursday, 27 December 2018

श्रीनवद्वीप गौर धाम महिमा

*श्रीनवद्वीप गौर धाम महिमा*

जय जय जय श्रीनवद्वीप धाम।
गौरनिताई नाम जहां गूँजे आठोंयाम।।1

गौरचन्द्र की लीला भूमि वृन्दावन स्वरूप।
युगल श्यामाश्याम यहाँ धरे गौर कौ रूप।।2

सीतानाथ अद्वैत प्रभु किये हरि सौं मनुहार।
कलिताप हरण कौ प्रभु लेयो आप अवतार।।3

जन्म लियो विप्रवंश में निमाई भयो नाम।
शचिनन्दन सुत भ्यै गौरांग वितरित किये हरिनाम।।4

फाल्गुनी पूर्णिमा भई सूर्यग्रहण जब आय।
हरि हरि की ध्वनि जब हर कोई मुख सौं गाय।।5

प्रकटे हरि आप ही चाखन भक्ति कौ स्वाद।
हरि हरि नाम सुन हृदय भरयौ आह्लाद।।6

बाल रूप लीला किये बाल गोपाल समान।
नदिया बिहारी निमाई भ्यै नदिया के उर प्राण।।7

हरि हरि कौ नाम सुन हँसे बालक रोना छोड़।
हरिनाम की लग गयी सकल नादिया होड़।।8

गोद लेह लेह लाड़ करैं नारी नदिया की सारी।
जिस भाँति गोपी प्रेम रह्यौ कृष्ण जन्म अवतारी।।9

हरिनाम कौ स्वाद लये विशम्भर कौ भ्राता।
गौर नाम उच्चरण सौं सदा कलिताप नसाता।।10

बालरूप लीला अनेक कीन्हीं कृष्ण समान।
गंगा तट क्रीडित हरि सोई कृष्ण यमुन समान।।11

हरे कृष्ण कौ नाम सदा मुख राखै हरि गौर।
हरिनाम जपत साँझ भ्यै हरिनाम जपै भोर।।12

गंगा तट नवद्वीप भूमि बनी भक्ति कौ आधार।
गौर चन्द्र जन्म भयौ कियो कृष्ण प्रेम प्रचार।। 13

हरे कृष्ण कौ नाम सदा मुख राखै हरि गौर।
हरिनाम जपत साँझ भ्यै हरिनाम जपै भोर ।। 14

ग्रह त्याग प्रस्थान कियो लेयो विशम्भर सन्यास।
गौर वर्ण निमाई सौं ही राखी सगरी आस।।15

विद्या अध्ययन सौं रोक लहै शचिनन्दन कौ दोय।
विशम्भर की भांति सौं ज्ञानी बनै न कोय।।16

मात पिता कौ आस एकै गौर सौं निशदिन।
सेवा अंत समय करै स्वास आवै न गौर बिन।।17

लीलाधर की लीला कौ समझ सकै न कोय।
मनमानी लीला करै हरि प्रेम वश होय।।18

प्रकांड पण्डित गौर भ्यै नदिया कौ सरताज।
सकल बुद्धिमत विद्वान भी खावैं इनसौं लाज।।19

बिष्णुप्रिया अर्द्धांगिनी दौऊ नदिया के भ्यै फूल।
अधिक समय न रह सक्यो प्रेम दोऊ अनुकूल।।20

गया गये जबहुँ श्राद्ध कौ लग्यो कृष्ण प्रेम कौ रोग।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण का गौर तबहुँ साधयो जोग।।21

विरहणी कौ आवेश होय पुनि पुनि करै क्रन्दन।
हा कृष्ण हा कृष्ण कह रोवै व्याकुल शचिनन्दन।22

सगरौ बुद्धि ज्ञान सब बहयो प्रेम कौ सँग।
कृष्ण विरहणी गौर भ्यै लग्यो भक्ति कौ रँग।।23

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कह होवै गौर सदा उन्मत्त।
नाचे हाथ उठाये दोऊ नीर बहावै शचिसुत ।।24

कृष्ण प्रेम कौ रोग लग्यो उठे हिय जब पीर।
हा कृष्ण हा कृष्ण कह गौरा भ्यै अधीर।।25

हरिनाम प्रसार कौ ल्यो हरि गौर अवतार।
लोक लोकाई तज दण्डी भयो गौरा सरकार।।26

ग्रह त्याग कियो जबहि शचि मैया के गये प्राण।
कौन भाँति दशा निरख सकै बिन सुत मृतक समान।।27

बिष्णुप्रिया गौरांगी कौ दियो हरि नाम उपदेश।
भक्ति प्रसार कौ जन्म लियो हरन कलिताप क्लेश।।28

बड़ो त्याग शचि देवी कौ बिष्णुप्रिया अति धन्य।
हरिनाम के सार कौ जिन जीवन कियो अनन्य।।29

मूंड मुड़ाये फिरै धर सन्यासी कौ वेश।
विरहणी राधा भाव का भारी होय आवेश।।30

शचि मैया आदेश होय पुरी देश करौ बास।
वृन्दावन अति दूर होय न पुनि मिलने कौ आस।।31

सकल देश भृमण कियो ,कियो हरिनाम प्रचार।
कृष्ण प्रेम देय जीव सकल कियो भवसिन्धु पार।।32

नाम की महिमा बड़ी कलियुग नाम कौ सार।
यज्ञ योग भक्ति सकल बनै हरिनाम सौं पार।।33

भक्तन कौ अवतार लेह कियो प्रेमाभक्ति प्रचार।
हरिनाम जिव्हा सदा नयन बहे प्रेम रसधार।।34

झारखंड वन्य जीव कौ दियो कृष्ण प्रेम कौ दान।
करुणामयी अवतार न कबहुँ भयौ गौरा हरि समान।।35

करुणा के अवतार गौर हृदय श्रीयुगल विलास।
युगल केलि हिय भर रहै मुख राखै नाम उल्लास।।36

नित्यानन्द अवधूत होय गौर प्रेम आधार।
भजे निताई नाम जो करै गौर हरि निस्तार।।37

नित्यानन्द गौर मिल कियो भक्ति कौ प्रचार।
नाम लेह नवद्वीप कौ हिय बहै रसधार।।38

नवद्वीप की भूमि होय वृन्दावन सौं अभिन्न।
गौर लीला हित युगल ही धारयो रूप जिन।।39

कौन भाँति श्रीराधिका लहै भक्ति प्रेम कौ स्वाद।
राधाहिय राधाकांति धर कृष्ण हिय आह्लाद।।40

राधाकृष्ण मिलित वपु वर्ण धारयो गौर।
नाम धरयौ गौरांग तबहुँ भक्तन कौ सिरमौर।।41

बहु भाँतिन लीला करै नवद्वीप और भूमि पुरी।
सकल देश भृमण कियो घूमे हरिनाम की धूरी।।42

जगाई मधाई दस्यु दोऊ कियो आपहुँ उद्धार।
कृष्ण नाम कौ प्रेम देय हरि गौर रूप रहे धार।।43

हरिनाम प्रचार कियो गौड़ देश अरु बंग।
कृष्ण भक्ति की प्रत्येक हृदय उठती रहै तरँग।44

हरिदास यवन कौ कियो हरिनाम नाम आचार्य।
जैसी आज्ञा हरि करै भक्त करै शिरोधार्य।।45

रूप जीव सनातन रघुनाथ दौऊ भट्ट गदाधर ।
षड गोसाईं मिल कियो गौड़ीय रस प्रखर।।46

नाम भजन रसरीति कौ दियो सकल आदेश।
लुप्त वृन्दावन प्रकटायो रह्यौ भक्तन कौ वेश।।47

नित्यानन्द अवधूत कियो दण्ड गौर कौ भँग।
हरे कृष्ण नाम की गौर हिय जब बाढ़ै अति तरँग।।48

सकल देश भृमण कियो हरिनाम प्रचार के हेत।
हरि हरि बोल आपहुँ हरि कृष्ण प्रेम लुटाय देत।।49

बढ्यो पाखण्ड चहुँ ओर भक्ति कौ विकृत रूप।
हरिनाम कौ सार दियो गौरा चिंतामणि अनूप।।50

करुणा प्रेम राधा हिय राधा कान्ति लिए धार।
गौर हरि गौरांग रूप भ्यै युगल प्रेम अवतार।।51

ग अक्षर गोविंद सौं राधा सौं लियो र।
गौर नाम हरि धार कर करै प्रेमाभक्ति प्रसार।।52

निताई नित्यानन्द होय गौर प्रेम आधार।
नाम निताई भजे ही हिय होय आनन्द अपार।।53

निताई कौ धन गौर हैं साँचो निताई धनवान।
गौर प्रेम लुटावते कह हरि ,हरि प्रेम दे दान।।54

भज निताई गौर राधेश्याम साँचो प्रेम आधार।
गौर निताई नाम सौं मिले प्रेमानन्द अपार।।55

कृष्ण नाम जपत जपत बनै अपराध अपार।
कृष्ण प्रेम न मिले जन्म जन्म आवै हिय बिचार।।56

ऐसो करुणामयी अवतार गौर न अपराध बिचार।
नाम गौर लेह उदय होय युगल प्रेम रसधार।।57

षड गोसाईं दियो जबहि करन भक्ति कौ प्रसार।
गौर भक्त वृन्द सबहि हिय करुणा प्रेम अपार।।58

नाम गौरांग लेह नाचत शिव भोला मुरारी।
पूछत पार्वती कौन कारण सगरी दशा बिगारी।।59

कौन बूटी पी भयौ हिय ऐसो उन्मत्त।
गौर नाम प्रिय कर्ण तबहुँ दियो शिव शम्भू प्रदत्त।।60

नाम गौरांग सुनत ही पार्वती ऐसो बौराई।
गौर भूमि नदिया कौ नमन कियो सिरनाईं। 61

शचि मैया आदेश कौ गौर हरि सिरनाय।
जगनाथ पुरी माँहिं लियो आवास बनाय।।62

विरहणी राधा आवेश होय निरख जगन्नाथ कौ रूप।
राधा हिय राखै कृष्ण गौरा भयौ स्वरूप।।63

जगन्नाथ यात्रा समय कियो उन्मादी नृत्य।
विरहणी भाव राधिका रूप बन्यो सब कृत्य।।64

हा हा प्राणनाथ कहे नयनन झरावै नीर।
निरख छवि जगन्नाथ पिय विरहणी भ्यै अधीर।।65

रे मन तज सब वासना भज लेय नाम श्रीगौर।
प्रेमाभक्ति उदय होय जीवन प्रेम विभोर।।66

हरिनाम की नाव बनाई आओ बैठो भजो रे भाई।
नाम की ही लगे उतराई नाम जपे हो पार लगाई।।67

कोई भेद रहयो न भाई जाति वर्ण की न अधिकाई।
नाम कृपा सबपर सुखदाई नाम रूप अवतार रे भाई।।68

पतितन को भी पार लगाई काल, स्थान को रहो भुलाई।
हरिनाम सदा ही सुखदाई गाओ दोऊ भुजा उठाई।।69

कलियुग में हरिनाम सहाई नाम मे ही हरि कृपा समाई।
प्रेम रँगीली भक्ति दे लुटाई गौर रूप भये राधा कन्हाई। 70

गौर नाम सहज अति भाई करुणासिन्धु दिए करुणा लुटाई।
बाँवरी नाम कृपा से गाई  गौरहरि होय आप सहाई।।71

*श्रीगौर भूमि महिमा*

श्रीनवद्वीप श्रीवृन्दावन सौं अभिन्न।
नाम लेत सब पातक होय छिन्न।।72

श्री श्री नवद्वीप कौ पूर्ण नाम ।
करुणामयी गौरांग कौ धाम।।73

श्री वृन्दावन प्रेम रस खान।
श्री नवद्वीप देवे प्रेम कौ दान।।74

रूप गौरांग लिए हरि धार।
श्री वृन्दावन का कियो प्रसार।।75

श्री नवद्वीप धाम देश बंग।
नाम लेत हिय उठत तरँग।।76

दण्डवत नमन करै एक बार।
पावै सकल प्रेम भक्ति कौ सार।।77

श्री नवद्वीप धाम अति गुप्त।
दरस किये पावै शक्ति सब सुप्त।।78

श्री नवद्वीप जो रटन लगावै।
निताई गौर प्रेम सहजहि पावै।।79

जय नवद्वीप भूमि देस बंगाल।
प्रेमाभक्ति सौं करै निहाल।।80

जय जय गौर भूमि निज धाम।
हाथ जोरि नित्य करौ प्रणाम।।81

कौन विधि बाँवरी करै बखान।
श्री गुरु कृपा सौं सहजहि निदान।।82

रसना कोटि मोहे नाथा दीजौ।
श्रीधाम यश लिखन समर्थ कीजौ।।83

प्रभु नाम रूप लीला अरु धाम।
इन्हीं सौं रहै शेष सब काम।।84

जिव्हा उच्चरै क्षण क्षण नाम।
ऐसो नवद्वीप प्रेम कौ धाम।।85

जय गौरा जय जय गौरधाम।
दोय हाथ उठाय कीजौ प्रणाम।।86

जहाँ विलसत गौर हरि आप।
जिव्हा हरे कृष्ण कौ जाप।।87

करुणामई निताई गौर दयाल।
प्रेमाभक्ति दे करै निहाल।।87

पात पात जो श्री नवद्वीप धाम।
भ्यै उन्मादित सुन हरि कौ नाम।।88

श्री नवद्वीप प्रेम रस भूमि।
नयनन सौं राखूँ नित चूमि।।89

मस्तक धारण करूँ रज श्रीधाम।
गौरा गौर जिव्हा सौं उच्चरुं नाम।।90

जय श्रीनवद्वीप जय गौरधाम।
निशिबासर ही करूँ प्रणाम।।91

युगल भक्ति कौ सार ही गौर।
श्रीनवद्वीप जपै रहे न थोर।।92

पावन गौड़ देश भूमि नवद्वीप।
पातक हरणी बहे गंग समीप।।93

गंगा हरि सौं करि मनुहार।
यमुना भूमि बहे ब्रज रसधार।।94

गंग तट कीजौ हरि निज लीला।
गंगा तट गौर धाम रसीला। 95

जेहि लीला कृष्ण करै यमुना तट।
सौं भाँति लीला गौर गंगा तट।।96

राम कृष्ण गौर होय एक रूप।
नाम प्रेम भक्ति कौ सब रूप।।97

मति थोरी बाँवरी बुद्धि हीन।
नाम भजन रस रीति सौं हीन।।98

नाम गौर कौ सर्वसुख हारी।
स्वासा स्वास रसना सौं उच्चारी।।99

नाँहिं कोऊ ज्ञान न भजन समर्था ।
नाँहिं कोऊ बल नाँहिं कछु अर्था ।। 100

नाम गौर की पकराई गुरु डोरी।
श्रीगुरुदेव कृपा सौं महिमा जोरी।। 1

जय गुरुदेव जय गौर जय नवद्वीप।
मन चित्त देह सदा रखियो समीप।।2

पुनि पुनि महिमा धाम कौ गाऊँ।
श्रीगुरु गौर कृपा सौं चरण रज पाऊँ।।3

Wednesday, 26 December 2018

श्री गौरांग अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम्

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श्री गौरांग अष्टोत्तर शतनाम स्तोत्रम
***********************
1 विशम्भर
2 जित क्रोधा
3 माया मानुषा विग्रह
4 अमायी
5 माईनाम श्रेष्ठ
6 वरदेस
7 द्विजोतमा
8 जगन्नाथ प्रिय सुत
9 पित्र भक्त
10 महामना
11 लक्ष्मी कांत
12 शची पुत्र
13 प्रेमदा
14 भक्तिवत्सल
15 द्विज प्रिय
16 द्विज वर
17 वैष्णव प्राण नायक
18 द्वि जति पुजाका
19 संत
20 श्रीवास प्रिय
21 ईश्वर
22 तप्त कांचन गौरांग
23 सिंह ग्रीवा
24 महाभुजा
25 पीत वसा
26 रक्त पत्ता
27 षड भुजा
28 चतुर भुजा
29 द्वि भुजा
30 गदा पाणि
31 चक्री
32 पदम् धारा
33 अमाला
34 पञ्च जन्य धारा
35 सारंगी
36 वेणु पानी
37 सुरोतमा
38 कमलाक्षेश्वरा
39 प्रीता
40 गोपी लीला धारा
41 युवा
42 नीलरत्न धारा
43 रुपया हरि
44 कौस्तभा भूषण
45 श्रीवत्स लाँचना
46 भासवन मनी धृकः
47 कंज लोचना
48 ताटंका नीला श्री
49 रुद्र लीला करी
50 गुरु प्रिय
51 स्वनाम गुण वक्ता
52 नामोपदेश दायक
53 अकाण्डला प्रिय
54 शुद्ध
55 स्प्राणी हिते रत
56 विश्वरूपानुजा
57 साध्यावतारा
58 शीतलाषया
59 निहंसिमा करुणा
60 गुप्ता
61 आत्म भक्ति प्रवर्तक
62 आत्मनन्दा
63 नट
64 नित गीता नाम प्रिय
65 कवि
66 आरती प्रिय
67 शुचि
68 शुद्ध
69 भावदा
70 भगवत प्रिय
71 इंद्र सर्व लोकेशा वन्दिता श्री पदाम्बुज
72 न्यासी चूड़ामणि
73 कृष्णा
74 सन्यासराम पावन
75 चैतन्य
76 कृष्ण चैतन्य
77 दंड धारक
78 न्यासता दण्डका
79 अवधूत प्रिय
80 नित्यानंद षड्भुजा दर्शक
81 मुकुंद सिद्धि दा
82 दीन
83 वासुदेव अमृतप्रद
84 गदाधारा प्राण नाथ
85 आर्त हा
86 शरण प्रद
87 अकिंचन प्रिय
88 प्राण
89 गुण ग्राही
90 जितेंद्रिय
91 अदोषदर्शी
92 सुमुखा
93 मधुरा
94 प्रियदर्शन
95 प्रतापरुद्र समत्राता
96 रामानंद प्रिय
97 गुरु
98 अनन्त गुण सम्पन्न
99 सर्व तिरथिका पावन
100 वैकुंठ नाथ
1 लोकेष
2 भक्ताभिमता रूपधारक
3 नारायण
4 महाजोगी
5 जन भक्तिप्रद
6 प्रभु
7 पीयूष वचन
8 पृथ्वी पावन
9 सत्यवाक
10 साह
11 उड़ा देसा जनानन्दी
12 संधोमर्त रूप धारक

नित्यानंन्द प्रभु के 108 नाम

नित्यानंन्द प्रभु के 108 नाम
**********************
1 पद्मावती सुत
2 बलदेव
3 नीलाम्बर धर
4 एकचक्रा नवद्वीप राशि
5 राढ़ सुधाकर
6 नित्यानंन्द
7 पित्र भक्त
8 अद्भुत बालक
9 कृष्ण प्रेमी
10 सर्व अवतार लीला दर्शक
11 हाडाई सुत
12 एकचक्रा सर्व क्लेश हारी
13 जगाई मधाई त्राता
14 कीर्तन बिहारी
15 गौर दर्शक नट
16 लौह दंड धारी
17 सखा सङ्गे मोड़ेश्वरी तीर बनचारी
18 गोप गोपी ब्रज प्राण
19 निताई सुंदर
20 गौरांग प्रेमोन्मत
21 अवधूत
22 नटवर
23 स्वनामोन्मत्त
24 गौर तत्व प्रकाशक
25 नाम संकीर्तन युग धर्म प्रवर्तक
26 नूपुर चरण धर
27 आदि गुरु बलरामा
28 अद्वैत गदाधर बांधव
29 गौर गुण धाम
30 कोटि चन्द्र मुख पद्म उज्ज्वल सुखी
31 चन्दन लेपित अंगी सुथाम तिलकी
32 नव मेघ सम सुवाणी कंठ गम्भीर
33 दाड़िम बीज सम दन्त सदा अस्थिर
34 आजानु लम्बित भुजा
35 कांचन शरीर
36 अट्ट अट्ट हास्य
37 प्रेम विकारी अस्थिर
38 अदोष दर्शी
39 सदा घूर्णित लोचन
40 अक्रोधी
41 लक्ष्मण
42 कलयुग पावन
43 मूल संकर्षण
44 अधम डाकू जन त्राता
45 भक्त निंदा नाशक
46 माधवेन्द्र भर्ता
47 परमात्मा
48 अनन्त शेष
49 जीव दुख हारी
50 उत्तम अधम दृष्टि शून्य
51 पापी तारी
52 सर्व मन्त्र मूर्तिमन्त
53 करुणावतरी
54 गौर दण्ड भंगी
55 सर्व तीर्थ उद्धारी
56 जान्हवा पति
57 गुनमणि
58 चंडाल त्राता
59 बालक धाता
60 प्रेमी
61 शुद्ध नाम दाता
62 श्री जगन्नाथ भ्राता
63 भक्ति अलंकारी
64 मल्ल वीर
65 मत्त सिंह
66 पुष्पमाला धारी
67 वीरचन्द्र पिता
68 बांका राय प्रिय भ्राता
69 परमहंस शिरोमणी
70 गौड़ देश त्राता
71 मालिनी प्रिय पुत्र
72 श्री शचि जीवन
73 वृन्दावन दास गुरु
74 जीव प्राणधन
75 द्वादश गोपाल नाथ
76 धामवासी सुखकारी
77 संधिनी स्वरूप
78 सर्व अमंगल हारी
79 अभिराम बांधव
80 श्रीवास ग्रह धन
81 गौरीदास प्राण
82 महेश हरिदास जीवन
83 सुन्दरानन्द कमलाकर दत्त उधारण परमेश्वरी धनन्जय पुरुषोत्तम प्राण
84 काला कृष्णदास खोलावेचा प्राणधन
85 गज गति चालक मोहित सर्वजन
86 अभिमान शून्य
87 जीव परिक्रमा कारी
88 मीन केतन प्राण
89 स्वभक्त गौरव कारी
90 दास गोस्वामी कुंड दाता
91 वसुधा जीवन
92 दही पोहा स्वादानन्दी
93 आनन्द वर्धन
94 षड्भुज दर्शक
95 गौर नाम धाम दाता
96 रूप रघुनाथ आश्रय कृष्णदास प्रदाता
97 अनाथ जन नाथ
98 अगति जन गति
99 राधा मन्त्र दाता
100 कोटि ब्रह्मांडपति
1 गदाधर दास गोपीभाव प्रदाता
2 भागवत चरितामृत प्रकाशक विधाता
3 गौर कृष्ण दण्डित जीव क्षमाकारी
4 राधा भागिनी अनंग सेवा दान कारी
5 राजमार्ग आविष्कर्ता
6 सिद्ध देह दाता
7 अपराध अनर्थक नाशक
8 मञ्जरी भाव दाता

Sunday, 9 December 2018

भावना (हित रस रीति)

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‘भावना’ से तात्पर्य उस सेवा से है जो किसी बाह्य उपादान के बिना केवल मन के भावों के द्वारा निष्पन्न होती है। इस सेवा में सेव्य, सेवा की सामग्री एवं सेवक भाव के द्वारा उपस्थापित होते हैं। इस सेवा का समावेश ‘ध्यान’ के अन्तर्गत होता है। इस सेवा में भी सर्वप्रथम सखी भाव को अपने मन में स्थिर करना होता है। भावना के अभ्यासी को यह तीव्र आकांक्षा अपने मन में जगानी होती है कि ‘मुझको जिस भाव का आश्रय है, वही जिनका भाव है, भगवान के उन नित्य संगीजनों जैसा प्रेम मुझ में भी हो।’

निजोपजीव भावानां भगवन्नित्य संगिनाम्।
जनानां यादृशो रागस्ताट्टगस्तु सदा मयि।।

‘अभ्यासी को सखीजनों के भाव की भावना में स्थिर रहना चाहिये क्योंकि उस भाव को लक्ष्य करके अपने अन्दर बढ़ी हुई भावना-वल्ली कभी फलहीन नहीं होती।'

इत्थं भावनयास्थेयं स्वस्मिस्न्तस्मभिलक्षिता।
समृद्धा भावना वल्ली न वंध्या भवति ध्रवम्।।

इस सम्प्रदाय के भाव के अनुकूल भावना के अभ्यास का क्रम इस प्रकार बतलाया गया है। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर एवं मन को एकाग्र करके पहिले मंत्रोपदेष्टा गुरु के सखीरूप को और फिर सम्प्रदाय- प्रवर्तक गुरु के सखीरूप को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करना चाहिये। तदनन्तर श्रीमद् वृन्दावन का ध्यान करना चाहिये ‘जिसमें लताओं के ही नाना प्रकार के भवन बने हुए हैं और जिसकी दिशायें विचित्र पक्षियों के समूह के नाद से मुखरित हैं। उपासक, इस वृन्दावन में प्रियतम से संयुक्त प्रिया का और प्रिया से संयुक्त प्रियतम का एवं इन दोनों का मिलन ही जिसके जीवन का एकमात्र आधार है उस सखी- समुदाय का, भली प्रकार से स्मरण करे। जो युगल परस्पर दर्शन, स्पर्शन, गंधग्रहण, और श्रवण में ही तत्पर रहते हैं एवं इन बातों को छोड़कर जिनमें परस्पर कोई अन्य व्यवहार है ही नहीं, उनकी शैय्या पर विराजमान होने से पूर्व की एवं शैय्या से उठने के पश्चात की मधुर रस भरी नित्य-लीला का मन के द्वारा संस्मरण करें।'
श्रीमद् वृन्दावनं ध्यायेन्नानाद्रुम लतालयम्।
विचित्र पत्रिनिवह मुखरीकृत दिड्मुखम्।।
प्रियां दयित संयुक्तां दयितं च प्रिया युतम्।
तत्संगमैक जीवातु मालिव्यू हं च संस्मरेत्।।
यौ दर्शस्पर्शनाघ्राणा श्रवणेषु च तत्परौ।
परस्परं तदितर व्यवहार वियोगिनौ।।
नित्यां स्वारसिकीं लीलां मनसा संस्मरेत्प्रभो:।
शैया रोहणत: पूर्वां परां शम्यावरोहणत्।।

प्रकट सेवा जिस प्रकार मंगला आरती से शयन आरती पर्यन्त होती है, उसी प्रकार भावना का भी क्रम है। दोनों सेवाओं में भेद यह है कि प्रकट सेवा स्थूल देश काल से आवद्ध है और भावना में इस प्रकार का कोई बंधन नहीं है। भावना में ऐसी लीलाओं का भी समावेश हो जाता है जिनका दर्शन प्रकट सेवा में संभव नहीं है। उदाहरण के लिये सायंकालीन सेवा में उत्थापन केे बाद बन- विहरण, जल-केलि, कंदुक-क्रीड़ा, दानलीला आदि लीलाओं का चिंतन करने की व्यवस्था भावना-पद्धति में दी हुई है। इसी प्रकार संध्या आरती के पश्चात रास लीला का चिंतन होता है।

प्रकट सेवा से भावना मे सेवा का अवकाश अधिक रहता है, इसीलिये इस सेवा का महत्त्व अधिक है। दूसरी बात यह है कि प्रकट सेवा में मन का पूरा योग न होने पर भी सेवा का कार्य चलता रहता है किन्तु भावना में मन के इधर-उधर होते ही सेवा रुक जाती है और सेवाको पूर्ण करने के लिये मन को स्थिर होना ही पड़ता है। मन को वश में करने के लिये यह अभ्यास श्रेष्ठ है। मन स्थिर होकर जिस विषय का चिन्तन करता है उसी के प्रति उसमें राग उत्पन्न हो जाता है और अनुकूल पदार्थ में राग का नाम ही ‘प्रेम’ है। भावना के द्वारा, इसीलिये, अधिक प्रेमोत्पत्ति मानी गई है।

इस सम्प्रदाय के साहित्य में ‘अष्टयामों’ का एक स्वतन्त्र एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस अष्टयामों में रस-सिद्ध संतों की भावना का वांगमय स्वरूप प्रकट हुआ है। प्रायः सभी पहुँचे हुए रसिकों ने अष्टयामों की रचना की है जिनमें से अनेक उपलब्ध हैं। अकेले श्रीवृन्दावन दास चाचाजी के चौदह अष्टयाम प्राप्त हैं। इन रसिकों के अधिकांश सुन्दर पद अष्टयामों में ही ग्रथित हैं। अष्टयामों में युगल की अष्ट कालिक लीला का चमत्कार पूर्ण गान एवं सखीजनों की रसमयी सेवा का विशद वर्णन रहता है। भावना का अभ्यास करने वाले को यह अष्टयाम अत्यन्त सहायक होते हैं। प्रेमपूर्ण मनोयोग के साथ किसी अष्टयाम का गान कर लेने से भावना का कार्य सरस रीति से निष्पन्न हो जाता है।

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Friday, 7 December 2018

राधा-चरण -प्राधान्‍य , हित रस

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*राधा-चरण-प्राधान्‍य*

राधा-सुधा-निधि के एक श्‍लोक में श्रीराधा को ‘शक्ति: स्‍वतन्‍त्रा परा’ कहा गया है; और इस के आधार पर कुछ लोग हि‍तप्रभु को शक्ति-रूपा सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। किन्‍तु उक्त श्‍लोक को ध्‍यान पूर्वक देखने से मालूम होता है कि इस में हितप्रभु ने श्रीराधा संबंधी सब प्रचलित मान्‍यताओं को एक स्‍थान में एकत्रित कर दिया है और साथ में अपना दृष्टिकोण भी दे दिया है। वह श्‍लोक इस प्रकार है।

प्रेम्‍ण: सन्‍मधुरीज्‍ज्‍वलस्‍य हृदयं, श्रृंगार लीला कला-
वैचित्री परमावधि, भंगवत: पूज्‍यैव कापीशता।
ईशानी च शची, महा सुख तनु:, शक्ति: स्‍वतन्‍त्रा परा,
श्री वृन्‍दावननाथ पट्ट महिषी राधैव सेव्‍या मम।।

इस श्‍लोक में, हितप्रभु ने, ‘मधुरोज्जवल प्रेम की हृदय रूपा, श्रृंगाल-लीला-कला-वैचित्री की परमावधि, श्रीकृष्‍ण की कोई अनिर्वचनीय आज्ञाकर्त्री, ईशानी, शची, महा सुख रूप शरीर वाली, स्‍वतन्‍त्रा परा शक्ति और वृन्‍दावन नाथ की पट्ट महिषी श्रीराधा’ को ही अपनी सेव्‍या बतलाया है। हितप्रभु के सिद्धान्‍त से परिचित कोई भी व्‍यक्ति यह नहीं कह सकता कि वे श्रीराधा की उपसाना उनके ईशानी, शची या शक्ति के रूपों में करते हैं किन्‍तु इन सब रूपों वाली श्रीराधा ही उनकी इष्ट हैं, इसमें संदेह नहीं है।

हित प्रभु श्‍यामाश्‍याम के बीच में स्‍थूल विरह नहीं मानते किन्‍तु राधा सुधा निधि में एक श्‍लोक ऐसा भी मिलता है जिसमें उन्‍होंने स्‍थूल वियोगवती श्री राधा की वंदना की है।

इस श्‍लोक को देखकर भी लोगों को भ्रम होता है और कुछ लोग तो इस प्रकार के श्‍लोकों के आधार पर राधा-सुधा-निधि को ही श्रीहित हरिवंश की रचना स्‍वीकार नहीं करते। किन्‍तु हितप्रभु के तीस-चालीस वर्ष बाद ही होने वाले श्रीध्रुवदास ने इस प्रकार की उक्तियों के संबंध में अपने ‘सिद्धान्‍त-विचार’ में कहा है, ‘जो कोऊ कहै कि मान-विरह महा पुरुषन गायो है, सो सदाचार के लिये। औरनि कौं समुझाइवे कौं कहयौ है। पहिले स्‍थूल-प्रेम समुझै तब आगे चलै। जैसे, श्रीभागवत की बानी। पहिले नवधा भक्ति करै तब प्रेम लच्‍छना आवै। अरु महा पुरुषनि अनेक भाँति के रस कहे हैं, एपै इतनौ समुझनौ कै उनको हियौ कहाँ ठहरायौ है, सोई गहनौ'।

ध्रुवदास जी के कहने का तात्‍पर्य यह है कि महापुरुषों की रचनाओं में उनकी मूल भावना को समझने की चेष्टा करनी चाहिये और उस भावना के विरुद्ध जो उक्तियाँ दिखलाई दें, उनको महत्‍व नहीं देना चाहिये। चाचा हित वृन्‍दावनदास ने चार महानुभावों को नित्‍य विहार का आदि प्रचारक बतलाया है; सब के मुकट-मणि व्‍यासनंद सुमोखन शुक्ल के कुल-चन्‍द्र, आनंद-मूर्ति वामी हरिदास जी और भक्ति-स्‍तम्‍भ श्रीप्रबोधानंद जी।

सबकेजु मुकट मणि ब्‍यासनंद, पुनि सुकुल सुमोखन कुल सुचंद।
सुत आसधीर मूरति आनंद, धनि भक्ति –थंभ परबोधानंद।।
इन मिलि जु भक्ति कीनी प्रचार, व्रज-व्रन्‍दावन नित प्राति विहार।
जन किये सनाथ मथि श्रुति जु सार, मंगल हू कौ मंगल विचार।।

इनमें से श्रीप्रबोधानंद सरस्‍वती की संपूर्ण रचना संस्‍कृत में मिलती हे। इन चारों के दो-चार या अनेक ऐसे पद या श्‍लोक मिलते हैं जो वृन्दावन-रस की मूल दृष्टि से मेल नहीं खाते। ‘हित चतुरासी’ और स्‍वामी हरिदासजी कृत ‘केलि-माल’ की टीकाओं में ऐसे पदों का अर्थ बदल कर उनको मूल भावना के अनुकूल बनाने की चेष्टा की गई है किन्‍तु ऐसे पदों के संबंध में ध्रुवदास जी का दृष्टिकोण वैज्ञानिक और युक्ति युक्त प्रतीत होता है।

श्रीहित हरिवंश सच्‍चे युगल उपासक हैं और युगल में समान रस की स्थिति मानते हैं। उनकी दृष्टि में श्रीराधा की प्रधानता का अर्थ श्रीकृष्‍ण की गौणता नहीं है। राधा-सुधा-निधि स्‍तोत्र में श्रीकृष्‍ण से वे उनकी प्रियतमा के चरणों में स्थिति माँगते हैं और श्रीराधा से उनके प्राणनाथ में रति की याचना करते हैं।

युगल के लिये बिना, अकेले श्रीकृष्‍ण अथवा श्रीराधा से, रस की निष्‍पति संभव नहीं है। श्रीराधा के प्रति पूर्ण पक्षपात रखते हुए भी हित प्रभु अपनी मानवती स्‍वामिनी से कहते हैं, ‘हे राधिका प्‍यारी, गावर्धनधर लाल को सदैव एक मात्र तुम्‍हारा ध्‍यान रहता है। तुम श्‍यामतमाल से कनक लता से समान उलझ कर क्‍यों नहीं स्थित होतीं, और रसिक गोपाल को गौरी राग के गान द्वारा क्‍यों नहीं रिझातीं ? हे ग्‍वालिनि, तुम्‍हारा यह कंचन-सा तन और यह यौवन इसी काल में सफल होने का है। हे सखि, तुम महा भाग्‍यवती हो, अत: मेरे कहने से अब विलम्ब मत करो। तुम को श्‍यामसुन्‍दर के कंठ की माला के रूप में देखने की मेरी अभिलाषा उचित है।
तैरौई ध्‍यान राधिका प्‍यारी गोवर्धनधर लालहि।
कनक लता सी क्‍यों न विराजत अरुझी श्‍याम तमालहि।।
गौरी गान सुतान ताल गहि रिझवत क्‍यों न गुपालहि।
यह जोबन कंचन तन ग्‍वालिनि सफल होत इहि कालहि।।
मेरे कहे बिलम्‍ब न करि सखि, भूरि भाग अति भालहिं।
(जय श्री) हित हरिवंश उचित हौं चाहत श्‍याम कंठ की मालहिं।।[1]

सेवकजी ने इसीलिये, हितप्रभु की उपासना की रीति का निर्धारण करते हुए कहा है ‘मैं श्री हरिवंश की रीति का अनुसरण करके श्‍यामाश्‍याम का एक साथ गान करता हूँ। इन दोनों में एक क्षण को भी अंतर नहीं होता, इनके प्राण एक हैं और देह दो। राधा के संग के विना श्‍याम कभी नहीं रहते और श्‍याम के विना राधा नाम नहीं लिया जाता। प्रतिक्षण आराधन करने के कारण ही श्‍यामसुन्‍दर राधा नाम का उच्‍चारण करते हैं। श्‍यामश्‍यामा ललितादिक सखियों के संग सुख पाते हैं और श्री हरिवंश उनकी श्रृंगार-रति का गान करते हैं।'

श्रीहरिवंश सुरीति सुनाऊँ, श्‍यामाश्‍याम एक संग गाऊँ।
छिन एक कबहुँ न अंतर होई, प्रान सु एक देह हैं दोई।।
राध संग विना नहीं श्‍याम, श्‍याम विना नहीं राधानाम।
छिन-छिन प्रति आराधत रहई, राधानाम श्‍याम तक कहहीं।।
ललितादिकन संग सचु पावैं, श्रीहरिवंश सुरत-रति गावै।[2]

श्रीराधा को प्रधानता मानने वाले एक रसिक महानुभाव उन्नीसवीं शती के आरंभ में हुए हैं। इनका नाम श्रीवंशीअलि था। ये उच्चकोटि के भक्त होने के साथ व्रजभाषा के सुकवि और संस्‍कृत के अच्‍छे विद्वान थे। राधावल्‍लभीय संप्रदाय के गोस्‍वामी चन्‍द्रलालजी की ‘वृन्‍दावन-प्रकाशमाला’ में इनका थोड़ा-सा परिचय मिलता है। वंशी अलिजी राधा वल्‍लभीय संप्रदाय के अनुयायी नहीं थे और उनकी स्‍वतन्‍त्र शिष्‍य-परंपरा अद्यावधि विद्यमान है। हित प्रभु पर इनकी प्रगाढ़ श्रद्धा थी और उनकी प्रशंसा में कहे गये इनके कई सुन्‍दर पद प्राप्त हैं। हैं। हितप्रभु के राधा सुधा निधि स्‍तोत्र के ये, अपने समय के, सबसे बड़े वक्ता माने जाते थे। कहा जाता है कि बरसाने में इनको श्री राधा के प्रत्‍यक्ष दर्शन हुए थे।

वंशी अलिजी रचित ‘श्री राधिका महारास’ प्रकाशित हो चुका है। इसके अध्‍ययन के द्वारा हम यह दिखलाने की चेष्टा करेंगे कि हितप्रभु की उपासना की रीति को छोड़ने से श्रीराधा-प्राधान्‍य का क्‍या रूप बन जाता है।

‘राधिका-महारास’ में श्री भागवत वर्णित रासलीला का संपूर्ण अनुकरण है, केवल श्रीकृष्‍ण के स्‍थान में श्रीराधा को प्रतिष्ठित कर दिया गया है। श्रीमद्भागवत की रासलीला में श्रीराधा का नामोलेख नहीं है, इसमें श्रीकृष्‍ण अनुपस्थित हैं। इसमें श्रीराधा ही वेणु-वादन करती हैं और जब सखी-गण ‘गृह-तन-बन्‍धु बिसारि’ कर उनके निकट पहुँचती है तो श्रीराधा कहती हैं,

सहचरिधर्म नाहिं यह होई, सहचरि-धर्म सख्‍य रस जोई।
हँसि हैं ओर सखी जेती मो, कौन देश तै आई ये को?

इसके उत्तर में सखीगण कहती हैं,

अहो कुँवरि तुव रुप यह नाहिंन राखत धर्म।
तेरी सुधि विसरावई हमरे छेदत मर्म।।

इसके बाद रास का आरंभ होता है और श्रीकृष्‍ण की भाँति श्रीराधा एक सखी को लेकर रास के मध्‍य के अंतर्धान हो जाती हैं। सखीगण परम दुखित होकर विलाप करने लगती हैं और श्रीराधा की लीला का अनुकरण करती है। श्रीराधा प्रगट होकर उनके साथ रास क्रीडा का आरंभ करती हैं, रास में सब श्रमित हो जाती हैं और-

श्रम निर्वारन चलीं, कुंवरि‍ राधा यमुना तट।
प्रिया वृन्‍द लिये संग, माल मरगजि तैसे पट।।
वारि माँझ मिल खेलत श्री राधा सँग प्‍यारी।
छिरकत मुख छवि पैरनि हावभाव सुखकारी।।
छिरकि-छिरकि लपटात कुंवरि सौं सब व्रजनारी।
तब अकुलाइ लड़ैती तिन सौं करत हहारी।।

इस रास में श्रीकृष्‍ण के सर्वथा अभाव ने श्रृंगार रस ही नहीं बनने दिया है। हम देख चुके हैं कि भरत ने प्रमदायुक्त पुरुष को ही श्रृंगार कहा है, अत: श्रीकृष्‍ण को छोड़कर श्रीराधा की प्रधानता का, रस की दृष्टि से, कोई अर्थ नहीं रह जाता। हित प्रभु ने श्रीराधा की किसी स्‍वतन्‍त्र लीला का वर्णन तो कहीं किया ही नहीं है, उनके श्रीराधा–रुप–वर्णन के जो पद हैं, उनमें भी वे विदग्‍धता पूर्वक श्‍याम सुन्‍दर का उल्‍लेख कहीं न कहीं कर देते हैं। हितप्रभु की राधा-चरण-प्रधानता को स्‍पष्ट करते हुए नागरीदासजी कहते हैं, ‘रसिक हरिवंश का मन ही श्‍यामा श्‍याम का तन है और वे अपने अनुराग के इस ललित वपुओं को सदैव अपने हाथ में लिये रहते हैं।

अपनी वाम भुजा की ओर श्‍यामसुन्‍दर और दक्षिण भुजा की ओर श्रीराधा को लिये हुए वे मत्त गति से वृन्‍दावन में विचरण करते रहते हैं।

रसिक हरिवंश मन लाड़िली लाल तन
ललित अनुराग वपु करनि लीने।
वाम भुज लाल दक्षिण भुजा लाड़िली,
ललित गति चलत मल्‍हकत प्रवीने।।

*राधा-चरण -प्राधान्‍य*